लोक आस्था का प्रतीक
- प्रो अश्विनी केशरवानी
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की जनकपुर यात्रा रथ में बिठा कर करायी जाती है। जगन्नाथपुरी में तीनों को अलग अलग रथ में बिठाकर यात्रा कराया जाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष’ कहते हैं जो 65 फीट लंबा, 65 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊँचा होता है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। इसी प्रकार बलभद्र जी के रथ को 'तालध्वज’ और सुभद्रा जी के रथ को 'देवलन’ कहा जाता है जो जगन्नाथ जी के रथ से कुछ छोटे होते हैं। इन रथों को खींचने के लिए गाँव-गाँव से हजारों-लाखों लोग आते हैं। पुरी में प्रथम पूजा और रथ को खींचने का प्रथम अधिकार वहाँ के तत्कालीन राजा को था। आज भी उनके वंशज इस परम्परा को निभाते हैं। विशाल जनसमुदाय इस रथयात्रा का आनंद और पुण्य लाभ लेते हैं। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद विशेष रूप से इस दिन मिलता है। तीनों रथ गुंडिचा मंदिर (मौसी के घर, जिसे जनकपुर भी कहते हैं) में आकर रुक जाती है। यहाँ भगवान आठ दिन रहकर विजियादसमीं को मंदिर लौट आते हैं। जनकपुर में भगवान जगन्नाथ दसों अवतार का रूप धारण करते हैं.. विभिन्न धर्मो और मतों के भक्तों को समान रूप से दर्शन देकर तृप्त करते हैं। इस समय उनका व्यवहार सामान्य मनुष्यों जैसा होता है।
मौसी के घर अच्छे-अच्छे पकवान खाकर भगवान जगन्नाथ बीमार हो जाते हैं। तब यहाँ पथ्य का भोग लगाया जाता है; जिससे भगवान शीघ्र ठीक हो जाते हैं। रथयात्रा के तीसरे दिन पंचमी को लक्ष्मी जी भगवान जगन्नाथ को ढूँढ़ते यहाँ आती हैं। तब द्वैतापति दरवाजा बंद कर देते हैं जिससे लक्ष्मी जी नाराज होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और 'हेरा गोहिरी साही’ (पुरी का एक मुहल्ला जहाँ लक्ष्मी जी का मंदिर है) में लक्ष्मी जी लौट आती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ लक्ष्मी जी को मनाने जाते हैं। उनसे क्षमा माँगकर और अनेक प्रकार के उपहार देकर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं। इस आयोजन में एक ओर द्वैतापति भगवान जगन्नाथ की भूमिका में संवाद बोलते हैं तो दूसरी ओर देवदासी लक्ष्मी जी की भूमिका में संवाद करती हैं। लोगों की अपार भीड़ इस रूठन और मनौव्वल के संवाद को सुनकर खुशी से झूम उठते हैं। सारा आकाश जै श्री जगन्नाथ... के नारों से गूँज उठता है। लक्ष्मी जी को भगवान जगन्नाथ के द्वारा मना लिए जाने को विजय का प्रतीक मानकर इस दिन को 'विजयादशमी’ और वापसी को 'बोहतड़ी गोंचा’ कहा जाता है। रथयात्रा में पारम्परिक सद्भाव, सांस्कृतिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
कल्पना और किंवदंतियों में जगन्नाथ पुरी का इतिहास अनूठा है। आज भी रथयात्रा में जगन्नाथ जी को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है.. उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन भी हैं और बुद्ध भी। अनेक कथाओं और विश्वासों और अनुमानों से यह सिद्ध होता है कि भगवान जगन्नाथ विभिन्न धर्मो, मतों और विश्वासों का अद्भुत समन्वय है। जगन्नाथ मंदिर में पूजा पाठ, दैनिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन यहाँ तक तांत्रिकों ने भी प्रभावित किया है। भुवनेश्वर के भास्करेश्वर मंदिर में अशोक स्तम्भ को शिव लिंग का रूप देने की कोशिश की गयी है। इसी प्रकार भुवनेश्वर के ही मुक्तेश्वर और सिद्धेश्वर मंदिर की दीवारों में शिव मूर्तियों के साथ राम, कृष्ण और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं। यहाँ जैन और बुद्ध की भी मूर्तियाँ हैं पुरी का जगन्नाथ मंदिर तो धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय का अद्भुत उदाहरण है। मंदिर कि पीछे विमला देवी की मूर्ति है जहाँ पशुओं की बलि दी जाती है, वहीं मंदिर की दीवारों में मिथुन मूर्तियों चौंकाने वाली है। यहाँ तांत्रिकों के प्रभाव के जीवंत साक्ष्य भी हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्त्व, पाँच तंत्र मात्राएँ, दस इंद्रियों और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजन का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता ; बल्कि उसे खींचने के लिए लोकशक्ति की आवश्यकता होती है।
उड़ीसा प्रदेश से जुड़े छत्तीसगढ़ के अनेक गाँवों, कस्बों और शहरों में रथयात्रा बड़े धूमधाम, श्रद्धा और भक्तिभाव के साथ मनाया जाता है। जिस प्रकार राजा-महाराजा, जमींदार, मालगुजारों ने रतनपुर की महामाया देवी और सम्बलपुर की समलेश्वरी देवी को अपने नगरों में 'कुलदेवी’ के रूप में प्रतिष्ठित किया है, वैसे ही जगन्नाथ धाम की यात्रा करके भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों को अपने नगरों में स्थापित कर पुण्य लाभ प्राप्त करते रहें हैं। यहाँ के हर गाँवों में और घरों में जगन्नाथ जी का मंदिर अवश्य मिलेगा।
शिवरीनारायण में रथयात्रा-
स्कंद पुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को 'श्री सिंदूर गिरिक्षेत्र’ कहा गया है। प्राचीन काल में यहाँ शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में श्रापवश जरा नाम के शबर के तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है। आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है।
जरा को बहुत पश्चाताप होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का समाचार मिलता है तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्री सिंदूर गिरि क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बाँस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा तभी भगवान नीलमाधव अपने नारायणी रूप का उन्हें दर्शन कराया और यहाँ गुप्त रूप से विराजित होने का वरदान दिये। उन्होंने यह भी वरदान दिया कि प्रतिवर्ष माघपूर्णिमा को जो कोई मेरा दर्शन करेगा वह मोक्ष को प्राप्त कर सीधे बैकुंठधाम को जाएगा। तब से यह गुप्तधाम कहलाया।
तथ्य चाहे जो हो, पुरी के जगन्नाथ मंदिर और शबरीनारायण मंदिर में बहुत कुछ समानता है। दोनों मंदिर तांत्रिकों के कब्जे में था जिसे क्रमश: आदि गुरू शंकराचार्य और स्वामी दयाराम दास ने शास्त्रार्थ करके तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त कराया। शबरीनारायण में नाथ सम्प्रदाय के ताँत्रिकों का कब्जा था। चूँकि शबरीनारायण से होकर जगन्नाथपुरी जाने का मार्ग था। पथिकों को यहाँ के तांत्रिक शेर बनकर डराते और अपने प्रभाव से मारकर खा जाते थे। इसलिए इस मार्ग में जाने में यात्रिगण भय खाते थे। एक बार स्वामी दयाराम दास ग्वालियर से तीर्थाटन के लिए घूमते हुए रतनपुर पहुँचे। उनकी विद्वता और पांडित्य से रतनपुर के राजा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें शबरीनारायण के मंदिर और मठ की व्यवस्था करने का दायित्व सौंपा। स्वामी दयाराम दास जब शबरीनारायण पहुँचे तब वहाँ के तांत्रिक उन्हें भी डराने के लिए शेर बनकर झपटे लेकिन ऐसा चमत्कार हुआ कि शेर के रूप में तांत्रिक उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। बाद में तांत्रिकों के गुरू कनफड़ा बाबा के साथ उनका शास्त्रार्थ हुआ ,जिसमें कनफड़ा बाबा को पराजय का सामना करना पड़ा और डर के मारे वे जमीन के भीतर प्रवेश कर गये। इस प्रकार शबरीनारायण के मठ और मंदिर नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों के प्रभाव से मुक्त हुआ, जगन्नाथ पुरी जाने वाले यात्रियों को तांत्रिकों के भय से मुक्ति मिली और यहाँ रामानंदी सम्प्रदाय के वैष्णवों का बीजारोपण हुआ। यहाँ के मठ के स्वामी दयाराम दास पहले महंत हुए और तब से आज तक इस वैष्णव मठ में 14 महंत हो चुके हैं जो एक से बढ़कर एक धार्मिक, आध्यात्मिक और ईश्वर भक्त हुए। उनकी प्रेरणा से अनेक मंदिर, महानदी के किनारे घाट और मंदिर की व्यवस्था के लिए जमीन दान में देकर कृतार्थ ही नहीं हुए ; बल्कि इस क्षेत्र में भक्ति भाव की लहर फैलाने में मदद भी की। जिस स्थान पर कनफड़ा बाबा ने जमीन के भीतर प्रवेश किया था ,उस स्थान पर स्वामी दयाराम दास ने एक 'गाँधी चौरा का निर्माण कराया। प्रतिवर्ष माघ शुक्ल तेरस और आश्विन शुक्ल दसमी (दशहरा) को शिवरीनारायण के महंत इस गाधी चौरा में बैठकर पूजा-अर्चना करते हैं और प्रतीकात्मक रूप से यह प्रदर्शित करते हैं कि वैष्णव सम्प्रदाय तांत्रिकों के प्रभाव से बहुत ऊपर है। शिवरीनारायण के दक्षिणी द्वार के एक छोटे से मंदिर के भीतर तांत्रिकों के गुरु कनफड़ा बाबा की पगड़ीधारी मूर्ति है और बस्ती के बाहर एक नाथ गुफा के नाम से एक मंदिर है जिससे इस तथ्य की पुष्टि होती है।
शबरीनारायण में मठ के भीतर संवत् 1927 में महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से भटगाँव के जमींदार श्री राजसिंह ने जगन्नाथ मंदिर की नींव डाली जिसे उनके पुत्र श्री चंदन सिंह ने पूरा कराया और उसमें भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की विग्रह मूर्तियों की स्थापना कराई। संवत् 1927 में ही उन्होंने महंत अर्जुनदास जी की प्रेरणा से महानदी के तट पर योगियों के निवासार्थ एक भवन का निर्माण कराया। इसे 'जोगीडीपा’ कहते हैं।
रथयात्रा यहाँ का एक प्रमुख त्योहार है। प्राचीन काल से यहाँ रथयात्रा का आयोजन मठ के द्वारा किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार महंत गौतमदास ने यहाँ रथयात्रा की शुरुआत की और महंत लालदास ने उसे सुव्यवस्थित किया। मठ के मुख्तियार पंडित कौशल प्रसाद तिवारी को हमेशा स्मरण किया जाएगा। उन्होंने ही यहाँ रामलीला, रासलीला, नाटक, रथयात्रा, और माघी मेला को सुव्यवस्थित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रथयात्रा के लिए जगन्नाथ पुरी की तरह यहाँ भी प्रतिवर्ष लकड़ी का रथ निर्माण कराया जाता था ,जिसे बाद में बंद कर दिया गया और एक लोहे का रथ बनवाया गया है ;जिसमें आज रथयात्रा निकलती है। शिवरीनारायण और आस-पास के हजारों-लाखों श्रद्धालु यहाँ आकर रथयात्रा में शामिल होकर और रथ खींचकर पुण्यलाभ के भागीदार होते हैं। जगह जगह रथ को रोककर पूजा-अर्चना की जाती है। प्रसाद के रूप में नारियल, लाई और गजामूंग दिया जाता है। मेले जैसा दृश्य होता है। इस दिन को सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में बड़ा पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नई दुकानों की शुरुआत और गृह प्रवेश जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। इस दिन अपने स्वजनों, परिजनों और मित्रों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की परम्परा है। बच्चे नये कपड़े पहनते हैं और उन्हें खर्च करने के लिए पैसा दिया जाता है। उनके लिए यह एक विशेष दिन होता है। सद्भाव की प्रतीक रथयात्रा आज भी यहाँ श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। शिवरीनारायण को 'छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी’ कहा जाता है। राजिम में भगवान साक्षी गोपाल विराजमान हैं और ऐसी मान्यता है कि शिवरीनारायण के बाद राजिम की यात्रा और भगवान साक्षी गोपाल का दर्शन करना आवश्यक है अन्यथा उनकी यात्रा निरर्थक होता है।
यहाँ भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती रोहिणी कुंड की महिमा अपार है। कवियों ने उसे साक्षात् मोक्ष देने वाला बताया है। उस कुंड के कारण इसे बैकुंठ द्वार माना गया है। देखिए कवि की एक बानगी-
नारायण के कलाश्रित जानिय धामहि एक
प्रथम विष्णुपुरि नाम पुनि रामपुरि हूँ नेक
चित्रोत्पल नदि तीर महि मंडित अति आराम
बस्यो यहाँ बैकुंठपुर नारायणपुर धाम
भासति तहं सिंदूरगिरि श्रीहरि कीन्ह निवास
कुंड रोहिणी चरण तल भक्त अभीष्ट प्रकास।
छत्तीसगढ़ के अन्यान्य नगरों-सारंगढ़, रायगढ़, सक्ती, चाम्पा, नरियरा, रायपुर, राजिम, बिलासपुर, रतनपुर बस्तर, जशपुर, धरमजयगढ़, और सरगुजा में भी जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा निकलती है। रायपुर में रथयात्रा दूधाधारी मठ से, बिलासपुर में वेंकटेश मंदिर से और अन्य स्थानों में जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा निकलती है। चांपा में जमींदार रूद्रशरण सिंह ने जगन्नाथ मंदिर बनवाया। इसी प्रकार सारागाँव में श्री काशीप्रसाद राठौर के पूर्वज हटरी चौंक में और रगजा में श्री घासीराम चौधरी ने सन 1926 में जगन्नाथ मंदिर बनवाया था। रथ को खींचकर नारियल, लाई और गजामूंग का प्रसाद ग्रहण करते हैं। जगन्नाथपुरी और चांपा में विशेष रूप से मालपुआ बनाया जाता है। सुदूर बस्तर में तो इसे 'गोन्चा परब’ के रूप में विशेष रूप से मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में रथयात्रा की तिथि को बड़ा शुभ दिन माना जाता है। इस दिन कोई भी शुभ कार्य किया जाता है। बेटी बिदा और बहू को लिवा लाने की विशेष परम्परा है। बच्चे, बूढ़े सब नये कपड़े पहनकर रथयात्रा में सम्मिलित होते हैं। इस दिन नाते-रिश्तेदारों के घर मेवा-मिष्ठान भिजवाने की प्रथा है। यह लोक -भावना से जुड़ी परंपरा है। इससे सद्भावना का विकास होता है। इसमें जात-पात का भेद नहीं होता। इसीलिए कवि गाता है-
मास आषाढ़ रथ दुतीया, रथ के किया बयान।
दर्शन रथ को जो करे, पावे पद निर्वान।।
संपर्क: राघव, डागा कालोनी, चाम्पा-495671
Email- ashwinikesharwani@gmail.com
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