- डॉ. रत्ना वर्मा
प्रकृति
मानव जीवन का वह स्रोत है ,जिसके बगैर हम कुछ
भी नहीं ;इसलिए एक ओर जहाँ प्रकृति हमपर अपना सब कुछ न्योछावर
कर हमें जीवन देती है, तो दूसरी ओर जब वह अपने प्रति हो रहे
अन्याय से क्रुद्ध हो जाती है तो फिर वह ऐसा तांडव दिखाती है कि उससे बचने का कोई
रास्ता नहीं रह जाता। प्रकृति ने ऐसा ही विकराल रूप पिछले महीने उत्तराखंड में
दिखाया है। भारी बारिश और बादल फटने के कारण आई भयानक बाढ़ ने उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग और केदारनाथ के आस-पास के इलाकों
में ऐसी तबाही मचाई कि देशवासियों के दिल दहल उठे। चारधाम की यात्रा पर गए हजारों यात्रियों को
अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। साथ ही वहाँ
रहने वाले स्थानीय लोगों के घर- बार सब कुछ तबाह हो गए। एक अनुमान के अनुसार इस
आपदा से 16000 गाँव
प्रभावित हुए हैं जिसमें से 4200 गाँव तो पूरी तरह से
नष्ट हो गए हैं। सबसे अफसोसनाक़ बात तो ये है कि इस संकट की घड़ी में जैसी सहायता
पीडि़तों को मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पाई। सरकार यह पता लगाने में अब तक कामयाब
नहीं हो पाई है कि वहाँ अब तक जान- माल का कितना नुकसान हुआ है। आपदा- प्रबंधन
कितनी पुख्ता था ,उसकी पोल इसी से खुल जाती है कि आपदा की इस घड़ी में सहायता तीन
दिन बाद पँहुची। सेना यदि आगे न आती तो स्थिति बद-से-बदतर हो गई होती। प्रदेश में
इस तबाही से प्रभावित हुए लोगों की जिंदगी को फिर से पटरी पर लाने में अब न जाने
कितने साल लग जाएँगे।
उत्तराखंड की चार धाम की यात्रा पर
जाने का सौभाग्य मुझे भी मिला है। एक बार नहीं दो- दो बार,
2005 और 2009 में। दूसरी बार शायद इसलिए कि पहली यात्रा में यमनोत्री के दर्शन नहीं हो
पाए थे। पहाड़ों की इस दुर्गम लेकिन सुखद यात्रा का बेहद खूबसूरत अनुभव आज भी
यादों में किसी चलचित्र की भाँति बसा हुआ है। वैसे तो पूरा उत्तराखंड प्राकृतिक
सौन्दर्य से भरपूर इलाका है- जीवनदायी नदी गंगा की बहती धारा के संग-संग यात्रा
करने के अनुभव को सिर्फ वहाँ जाकर ही महसूसा जा सकता है, गंगा
को माँ और उसके पानी को अमृत क्यों कहते हैं यह गंगा की कल-कल बहती धारा को देखकर
ही समझा जा सकता है। सही मायने में चंद शब्दों से वहाँ के सौन्दर्य का वर्णन करना
बहुत मुश्किल है। फिर केदारनाथ मंदिर के समीप पँहुच कर तो बस एक ही बात मन में आई-
सच ही कहते हैं स्वर्ग यदि कहीं है तो बस यहीं है। अपने जीवन में आत्मा को तृप्त
कर देने वाला प्रकृति का ऐसा मनभावन सौन्दर्य मैंने तो नहीं देखा था, न कभी इससे पूर्व इस अप्रतिम
सौन्दर्य का अहसास हुआ था। यही वजह है कि वहाँ जाने का जब दूसरा मौका मिला तो अपने
आप को रोक नहीं पाई थी। कहीं मन में यह बात भी थी कि यदि एक बार और आने का मौका
मिलेगा तो फिर आऊँगी! लेकिन प्रकृति के कोप की जो लीला पिछले दिनों देखने को मिली
है उसके बाद पता नहीं एक बार और उस सौंदर्य को निहारने का मौका मिलेगा भी या...।
वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखंड
में आई यह विपदा थी तो पूर्णत: प्राकृतिक पर प्रकृति के इस कोप से जो जान- माल की
हानि हुई है, वह पूरी तरह मानव निर्मित है। पिछले दो दशकों से वैश्विक स्तर पर
किये गये अध्ययनों का भी यह निष्कर्ष रहा है कि 'ग्लोबल वार्मिंग' के कारण इस तरह की घटनाओं में
निरन्तर वृद्धि हुई है। विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मोटर-गाडिय़ों के प्रदूषण
तथा सड़कों व बाँधों के निर्माण से उत्पन्न धूल के कणों से भी ऐसी अतिवृष्टि की
संभावना बढ़ती है। विकास के नाम पर पहाड़ और नदियों का जो दोहन मनुष्य ने किया है
उसने प्रकृति के इस रूप को इतना विकराल बनाया है। (पढिय़े इसी अंक में डॉ. खड्ग
सिंह वल्दिया और शेखर पाठक्र के लेख) ऐसा
नहीं है कि ऐसी तबाही के प्रति कभी चेतावनी न दी गई हो। हमेशा से ही वैज्ञानिकों
और प्रकृति को बचाने के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने इसके विरुद्ध लड़ाई लड़ी
है। लेकिन हम ऐसी चेतावनियों को हमेशा ही अनसुना,अनदेखा और उपेक्षित कर देते हैं। पूरे उत्तराखंड में धार्मिक आस्था
और पर्यटन विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ों पर जिस तादाद में होटलों का निर्माण हुआ
है, पहाड़ों को काट कर पुल, सुरंगें
सड़कें और बाँध बनाए गए हैं ,वे सब इस महाविनाश का कारण बने हैं। दरअसल हमारी
सरकारों ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को ही विकास का एकमात्र रास्ता मान लिया
है। यह जानते हुए भी कि विकास का यह रास्ता विनाश की ओर ही ले जाएगा। पहाड़ों को खोखला कर, उसकी
हरियाली को ही नष्ट कर, नदियों की धाराओं को रोक कर हम कैसा
और किसका विकास करना चाहते है?
प्रश्न ये उठता है कि क्या इस आपदा
के बाद प्रकृति के प्रति हमारी सोच में बदलाव आएगा? इससे पहले कि फिर से वही गलतियाँ दोहराएँ कुछ कड़े निर्णय लेने होंगे;
क्योंकि पर्यावरण की कीमत पर जब तक विकास कार्य होते रहेंगे ,ऐसे विनाश को हम
स्वयं ही आमंत्रित करते रहेंगे। अत: अब समय आ गया है कि हमारे मौसम विशेषज्ञ, वैज्ञानिक और पर्यावरण की चिंता करने वाले
गंभीरता से आवाज उठाएँ और उत्तराखंड की इस आपदा को भविष्य की चेतावनी मानते हुए
हमारी सरकारों को प्रकृति के दोहन से की जाने वाली विकास की परिभाषा को बदलने को
बाध्य कर दें। विकास प्रकृति का दोहन करके नहीं बल्कि प्रकृति को बचाते हुए करना
होगा।
उपर्युक्त चिंतन के साथ इस समय सबसे
पहली जरूरत- आपदा से प्रभावित लोगों की जिंदंगी को पुन: सामान्य स्तर पर लाने का
प्रयास होना चाहिए। उनके रहने, खाने और
स्वास्थ्य की चिंता के साथ सड़क, बिजली, पानी और रोजगार की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिए सिर्फ सरकार को ही नहीं
देश की पूरी जनता को अपने स्तर पर सहायता करनी होगी।इस त्रासदी के विनाश की भरपाई
करने के लिए खोखली घोषणाओं की नहीं, क्षुद्र राजनीति की नहीं, वरन् ठोस स्तर पर
नि:स्वार्थ कल्याणकारी प्रबन्धन की आवश्यकता है ।इतना ज़रूर ध्यान रहे कि कोई भी
योजना सरकारी बन्दरबाँट की भेंट न चढ़ जाए। साथ ही इस बात को भी गाँठ बाँध लें कि
प्रकृति हमें वही देती है ,जो हम उसको लौटाते हैं । प्रकृति
को हम घाव देंगे तो वह भी प्रतिकार स्वरूप ऐसा ही करेगी।
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