नदियाँ
दिखा रहीं हैं अपना रौद्र रूप
केदारनाथ मंदिर के पट खुलने के दिन मैं वहीं मौजूद था.
आज के केदारनाथ को देखकर मेरे मन में पहले वो तस्वीर कौंधी जो 1882 में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग
के निदेशक द्वारा खींची गई थी.
इस
तस्वीर में सुंदर प्रकृति से घिरा सिर्फ़ मंदिर दिखता है.
उस
तस्वीर की तुलना मैंने आज के केदारनाथ से की जहाँ मंदिर के चारों ओर अतिक्रमण करके
मकान बना दिए गए हैं जिसने मंदिर परिसर को भद्दा बना दिया है.
मैंने
सोचा कि काश इस निर्माण को नियमबद्ध तरीक़े से हर्जाना देकर यहाँ से हटा दिया जाता
और मंदिर अपनी पुरानी स्थिति में आ जाता.
कुछ
ही दिनो बाद प्रकृति ने केदारनाथ में इंसानी घुसपैठ को अपने तरीक़े से नेस्तनाबूद
कर दिया है, लेकिन हमारे पूर्वजों की ओर से बनाए गए स्थापत्य का बेहतरीन नमूना बचा रह
गया है.
प्रकृति
का विकराल रुप
हिमालय
पुराने ज़माने में भी टूटता, बनता और बिखरता रहा है. मानवीय आबादी के अत्यधिक विस्तार
और दख़ल के पहले हिमालय के विस्तृत क्षेत्र में ग्लेशियर पिघलने, भूस्ख़लन और भूकंप की घटनाएँ होती रही हैं.
सरकारें
अच्छी-बुरी आती रहती हैं,
लेकिन उनके बदलाव का हिमालय के स्वभाव पर कोई असर नहीं पड़ा.
बीसवीं
शताब्दी में पहली बार मनुष्य के कार्यकलाप ने प्रकृति के बनने और बिगडऩे की
प्रक्रिया को त्वरित किया है और पिछले पच्चीस सालों में उसमें तेज़ी आई है. जबसे
हमने विकास के आठ प्रतिशत और नौ प्रतिशत वाले विकास वाले मॉडल को अपनाया है, प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप
और बढ़ गया है.
मेरी
पचास वर्ष की स्मृति में (अगर पूर्वजों की पचास साल की स्मृति को जोड़ें तो पिछले
सौ सालों में) पहले कभी जून महीने के पहले पंद्रह दिनों में इतनी भारी विपदा और
प्रकृति के इतने विकराल स्वरूप की याद नहीं है.
उत्तराखंड
की नाजु़क स्थिति
उत्तराखंड
राज्य बनने के बाद हमने यहाँ की नदियों को खोदने, बाँधने, बिगाडऩे और
कुरूप करने का जिम्मा सा ले लिया है. ऐसा लगता है जैसे विकास और जनतंत्र की
परिभाषा यही हो.
पिछले
दो-तीन दशकों में और राज्य बनने के बाद पहले दशक में विशेष रूप से जिस तरीके से
हमने पहाड़ों को बाँध,
सड़क, खनन, विकास के नाम
पर छेड़ा है, उसने प्रकृति के स्वाभाविक अभिव्यक्ति को एकदम
त्वरित किया है और उसको सैकड़ों गुना बढ़ा दिया है. प्रकृति के इस कोप के आगे
मनुष्य, सरकार और तमाम लोग असहाय, लाचार
और पराजित हैं.
बारह
साल पहले उत्तराखंड में असाधारण रूप से सड़कें बनाने, खनन, रेता-बजरी
खोदने का, विद्युत परियोजनाओं आदि का काम इतना तेजी और
अनियंत्रित तरीके से हुआ है कि नदियों ने विकराल रूप ले लिया है. इसके कारण मनुष्य,
मनुष्य के विकास कार्य और उसके खेत सब धरे के धरे रह जाते हैं.
उत्तराखंड
के इन इलाकों में 1991 और 1998 में भूकंप भी आए थे’; लेकिन इतनी
भारी तबाही नहीं देखी. इस तबाही को मैंने अपनी आँखों से बढ़ते हुए देखा है.
विकास
के मॉडल को चुनौती
भागीरथी, धौली, पिंडर,
मंदाकिनी, विष्णुगंगा आदि अलकनंदा की सभी
सहयोगी नदियों ने अपना विकराल रूप दिखाया है. उन्होंने विकास के उस प्रारूप को
चुनौती दी है , जिसके ज़रिए नदियों को बाँधा जा रहा है, बिजली पैदा करने के लिए पहाड़ों को खोदकर सुरंगें बनाई जा रही हैं.
समाज
बार-बार सरकार बहादुरों की तरफ़ उम्मीद से देखता ; लेकिन पिछले बरसों में
आई सरकारों में कहीं भी अपनी प्रकृति के प्रति संवेदनशील दृष्टि नहीं है. समाज के
लोगों ने भी बहुत सारी जगहों पर नदियों में घुसपैठ की है, होटल बनाए हैं ताकि अपनी
आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर सकें. एक समाज के रूप में हम भी शत-प्रतिशत ईमानदार नहीं
रहे हैं.
अब नदियाँ कह रही हैं कि तुम्हारी सरकारों, तुम्हारे योजना आयोग और
तुम्हारे दलालों और ठेकेदारों से हम अब भी ज़्यादा ताक़तवर हैं. (बी.बी.सी. से
साभार)
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