जहाँ बिखरे हैं कुदरत
के अनेक रंग
- दीपाली शुक्ला
इस जगह को देखने की इच्छा बरसों से
थी। ऐसा नहीं कि कभी होशंगाबाद नहीं गई। अनेकों बार होशंगाबाद गई,
सेठानी घाट व दूसरे घाटों पर घंटों बैठकर कभी दिन तो कभी रात में
नदी को निहारा ; लेकिन बांद्राभान कुछ कोस दूर ही रहा।
पर इस बार होशंगाबाद जाने पर अनायास
ही बांद्राभान जाने की योजना बनी और अगले दिन सूरज के उठने के साथ ही बांद्राभान
का सफर शुरू हुआ। रास्ते के दोनों ओर खेतों, बागों
की लम्बी कतारें, बीच-बीच में मकान, दुकानें
ये सब मिलकर माहौल को खुशनुमा बना रहे थे। चूँकि अप्रैल का महीना था सो आम के
पेड़ों पर छोटे-बड़े कच्चे आमों की हरियाली छाई हुई थी। ऐसे में कटहल कहाँ पीछे
रहने वाला था। कटहल के बाग में हरे और भूरे परत वाले अनगिनत कटहल शान से लगे थे।
खेतों में गेहूँ की फसल कट चुकी थी बस ठूँठ ही शेष थे। वहीं सब्जि़यों के नन्हे
पेड़ लदे हुए थे।
रास्ता एकदम शान्त था। आस-पास के
नज़ारों को ताकते हुए अचानक दाई ओर ढेरों ट्रक दिखे जिनमें रेत भरी जा रही थी। कुछ
आगे तरबूज़, खरबूज़े की बेलें पसरी हुई थीं।
वहीं कमजोर तवा दिखाई दी। आगे बढऩे पर बाई तरफ नर्मदा का पाट दिखने लगा। मुख्य
सड़क के किनारे से उतर कच्ची सड़क पर चलते-चलते नर्मदा साफ-साफ दिखने लगी।
कच्चे रास्ते के बाद रेत पर टहलते
हुए चमकीली नदी एकदम पास आ गई थी। वाह...कंकरीट का कोई जाल नहीं। पानी,
रेत और दूर तक बस यही। नदी का पानी खुशनुमा था। साफ नीला पानी। नदी
की हँसी साफ सुनाई दे रही थी। सामने की तरफ पहाड़ थे जो रोशनी बढ़ने के साथ ही गिरगिट
की तरह रंग बदल रहे थे।
ढोलक की थाप पर गाते हुए लोगों की
टोली नदी की ओर हौले-हौले आ रही थी। रंग-बिरंगे कपड़ों में बच्चे,
महिला, पुरुष, युवा और
बुजुर्ग सभी नर्मदा से मिलने चले आ रहे थे। थोड़ी-थोड़ी देर में टोलियों की आवक हो
रही थी। एक तरफ नदी की आवाज़ तो दूसरी ओर गान, इनके साथ ही
पूजा करते लोग, पानी में गोता लगाकर नारियल बटोरते बच्चे। सब
मिलकर विचारों का, सुख-दुख का लेन-देन कर रहे थे। बच्चे रेत
से घरौंदे बना रहे थे। महिलाएँ नदी में डुबकी लगाने के बाद किनारे ही रेत से
शिवलिंग बनाकर पूजा रही थीं। कुछ पुरुष नाचने-गाने में मगन थे तो कुछ रेत में बाटी
के लिए कंडे सुलगा रहे थे। मैं भी नदी में पैर डाले गुनगुने पानी का मज़ा ले रही
थी।
एक क्षण सोचा यदि नदी न हो तो
क्या होगा। अगले ही पल इस विचार को विदा
कर दिया। नदी के किनारे कितना कुछ चल रहा था। मेरी नज़र लगातार आस-पास की
गतिविधियों को देख रही थी। सोच रही थी कि नर्मदा क्या सोचती होगी इनको देखकर। हो सकता
है कि वो हँसकर आगे बढ़ जाती हो।
इन सबके बीच नावों में सवार मछुआरे
अपने काम में व्यस्त थे। नर्मदा के उस पार काले पत्थरों के बीच बड़ा सा त्रिशूल
दिख रहा था। जो वहाँ मंदिर होने का प्रतीक था। उसके आस-पास खेतों का सुनहरा रंग
चमक रहा था। कुदरत के ढेरों रंग बिखरे हुए थे जिनके बीच नदी नगीने की तरह लग रही
थी।
नर्मदा और तवा का यह संगम स्थाल
बेहद आकर्षित करने वाला है। शहर की ओर बहती नदी के बहाव को देखते हुए कहीं दूर
शहरी बसाहट दिखाई देती है। जो सुबह कुछ धुंधली सी होती है। वैसे यह जगह होशंगाबाद
से बहुत दूर नहीं है और होशंगाबाद के व्यस्त घाटों की तुलना में काफी शान्त है। बस कुदरत के नज़ारे,
नदी और आप।
नदी की इस जगह पर प्रसिद्ध बांद्राभान
मेला भी लगता है। उस समय यहाँ काफी भीड़ होती है। जीवनदायिनी नदी से अपनी कृतज्ञता
व्याक्त करने श्रद्धालुओं का ताँता लगता
है ; पर मेले के बाद भी नदी से मिलने लोगों का आना जारी रहता है। कोई देवता पूजता
है तो कोई अन्न की भेंट चढ़ाता है, चुनरी-
फूल सब कुछ नदी खुशी से लेती है। ऐसे ही एक-एक करके दिन, महीने
और मौसम बीतते हैं।
कुछ घंटे नदी से बतियाने के बाद अब
बारी थी लौटने की। कुछ गरम सी रेत पर धीरे-धीरे चलते हुए कच्ची सड़क से होते हुए
मुख्य सड़क पर आ गए। जहाँ से खेतों, बागों
और तवा को देखते हुए होशंगाबाद की ओर लौट पड़े अगली बार मिलने का वादा कर।
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