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Feb 1, 2023

उदंती.com, फरवरी 2023

चित्रः डॉ. सुनीता वर्मा

वर्ष- 15, अंक- 6

सामान्यतः एक पक्की सड़क चलने में आरामदायक

होती हैलेकिन उस पर कोई फूल नहीं खिलता।

     - विन्सेंट वान गॉग  

    

इस अंक में

अनकहीः चलो स्वच्छता की जिम्मेदारी भी निभाएँ  - डॉ. रत्ना वर्मा

ललित निबंधः वसंत मेरे द्वार - विद्यानिवास मिश्र

संस्मरणः आनन्द धाम में आनन्द के पल - शशि पाधा

 नदी की व्यथाः काश मैं भी अपनी नदी बहनों से मिल पाती - राजेश पाठक

आलेखः  जोशीमठ: सुरंगों से हुई तबाही का नतीजा -  प्रमोद भार्गव

कविताः गौरा का मैका - डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

वन्य- जीवनः धनेश पक्षियों का आकर्षक कुनबा - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

यादेंः  मधुबाला- नज़ाक़त की खूबसूरत सिंड्रेला - डॉ.  दीपेन्द्र कमथान

कहानीः तुम ठीक कहते थे  - सविता मिश्रा 'अक्षजा'

व्यंग्यः मूर्खो से सावधान - अख़तर अली

कविताः प्राणशक्ति  -भावना सक्सैना

लघुकथाः टुकड़े-टुकड़े  - चन्द्रशेखर दुबे

लघुकथाः सुहाग-व्रत - शकुन्तला किरण

लघुकथाः औकात - कृष्णानंद कृष्ण

कविताः एक समुद्री लहर- सा  - लिली मित्रा

किताबेंः लोक संवेदना में रचे बसे मधुर-कर्णप्रिय लोकगीत -  डॉ. उपमा शर्मा

सॉनेटः प्रेम है अपना अधूरा - प्रो. विनीत मोहन औदिच्य

स्वाथ्यः स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है पर्याप्त निद्रा - डॉ. आर. बी. चौधरी

जीवन दर्शनः सेवक का सम्मान -विजय जोशी


आवरण चित्रः चित्रकला के क्षेत्र में डॉ. सुनीता वर्मा एक जाना पहचाना नाम है। भिलाई छत्तीसगढ़ के दिल्ली पब्लिक स्कूल में आर्ट टीचर के रुप में कार्यरत सुनीता की कला से आप सभी परिचित हैं। इस बार उन्होंने अपने चित्र का शीर्षक दिया है - ‘मेरे संगी साथी। जब उनसे इस चित्र और उसमें उपस्थित पक्षियों के आकार के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बड़ी खूबसूरती से इसका जवाब दिया- भारतीय चित्रकला में रूपों का आकार उसकी कहानी या उसके निहित भावों के अनुसार बनाया जाता है। मेरे इस चित्र में स्त्री के संगी साथी चिड़िया है इसलिए उसे बड़े आकार में बनाया गया है। उनका पता है- फ्लैट नं. 242, ब्लाक नं. 11, आर्किड अपार्टमेंटतालपुरीभिलाई (छत्तीसगढ़), मो. 094064 22222    

अनकहीः चलो स्वच्छता की जिम्मेदारी भी निभाएँ

 - डॉ. रत्ना वर्मा 

हम जैसे- जैसे आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, तरक्की के रास्ते पर चल रहे हैं वैसे- वैसे अपने संस्कार, अपनी धरोहर खोते चले जा रहे हैं। अपने आस- पास के परिवेश को स्वच्छ रखने के संस्कार हमें बचपन से ही मिल जाते हैं। पहले परिवार फिर स्कूल और उसके बाद अन्य सामाजिक क्षेत्र। बचपन से मिले संस्कार हमारी वह धरोहर हैं, जो पीढ़ी -दर- पीढ़ी हमारे साथ चलती रहती है; परंतु अफसोस इस धरोहर को हम सँजो नहीं पा रहे हैं।

इसके लिए जिम्मेदार किसे मानें ? बदलाव प्रकृति का नियम है; पर बदलाव जब अच्छे के लिए होता है,  तभी खुशी मिलती है।  आज मनुष्य स्वार्थी होते चला जा रहा है। वह अच्छे के लिए बदलना ही नहीं चाहता। वह अपने घर को तो साफ- सुथरा रखना चाहता है; पर जैसे ही वह अपने घर से बाहर निकलता है, उसे अपने आसपास की बिल्कुल परवाह नहीं होती। वह अपनी गली- मोहल्ले में और सड़कों पर फैली गंदगी को देखकर गुस्सा तो होता है, पर सरकार को, व्यवस्था को कोसते हुए यह कहते हुए आगे बढ़ जाता है कि लोगों ने कितनी गंध मचा रखी है। इस गंदगी को कैसे दूर करना चाहिए या इस समस्या का निदान किस तरह किया जा सकता है, इस पर विचार करने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता। उलटे यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लेता है कि सड़क को साफ करना मेरी जिम्मेदारी नहीं है, मेरी अपनी समस्याएँ कम हैं क्या कि मैं दुनिया भर की मुसीबतों को पालूँ।

इस मामले में हमें जापानियों से सीख लेनी चाहिए;  क्योंकि जापानियों की साफ-सफाई और कई अच्छी आदतें उन्हें बाकी दुनिया से अलग बनाती है। जापान के स्कूलों में स्वच्छता अन्य विषयों की तरह पाठ्यक्रम में शामिल होता है। वहाँ प्राथमिक से लेकर हाई स्कूल तक 12 साल के स्कूली जीवन में प्रतिदिन सफाई का समय शामिल होता है। पढ़ाई खत्म होते ही उन्हें पूरा स्कूल साफ करके जाना होता है। सभी बच्चों को शिक्षक सफाई की जिम्मेदारी बाँटते हैं । जैसे- पहली और दूसरी पंक्ति में बैठने वाले बच्चे कक्षा साफ करेंगे। तीसरी और चौथी पंक्ति गलियारे और सीढ़ियाँ साफ करेंगे। पाँचवीं पंक्ति टॉयलेट साफ करेगी। इतना ही नहीं, वहाँ के बच्चे  प्रति माह सामुदायिक सफाई के लिए भी निकलते हैं और अपने स्कूल के पास की सड़कों से कूड़ा उठाते हैं।

जाहिर है स्कूली पाठ्यक्रम में स्वच्छता को शामिल करने से बच्चों में जागरूकता और अपने परिवेश के प्रति गर्व की भावना विकसित हो जाती है। आप ही सोचिए, जिस स्कूल को उन्होंने खुद साफ किया है, उसे भला कौन गंदा करना चाहेगा? बचपन में मिली इसी शिक्षा का  नतीजा है कि जब वे बड़े होते हैं, तो वे न सिर्फ अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखते हैं;  बल्कि अपने शहर और अपने देश को स्वच्छ रखना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऐसे संस्कारी माहौल में जिन बच्चों की परवरिश हुई हो, उनकी अवधारणा स्कूल से निकलकर पड़ोस, शहर और फिर पूरे देश तक फैल जाती है।

इसका प्रमाण वर्ल्ड कप फुटबॉल प्रतियोगिताओं के दौरान देखने को मिला, जब उनकी फुटबॉल टीम ने फीफा विश्व कप में जर्मनी पर शानदार जीत दर्ज की। वहीं जापानी फुटबॉल प्रेमी, मैच खत्म होने के बाद स्टेडियम में फैला कचरा उठाने के लिए रुक जाते थे, जिसे देखकर पूरी दुनिया चकित रह गई थी। इसी तरह जापान के सबसे बड़े और पुराने फूजी रॉक फेस्टिवल में संगीत के दीवाने अपने कचरे को तब तक अपने साथ रखते हैं, जब तक उन्हें कहीं कूड़ेदान न मिल जाए।  यही नहीं जापान की गलियाँ, सड़कें व अन्य सार्वजनिक स्थल भी बिल्कुल साफ- सुथरे इसलिए होते हैं; क्योंकि वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह दुकानदार हो या किसी ऑफिस का कर्मचारी, वह अपनी दिनचर्या शुरू करने से पहले अपने काम की जगह के आसपास की सड़कों को पहले साफ करता है,  उसके बाद ही काम शुरू करता है।

जापान के ये कुछ उदाहरण देने के पीछे कारण यही है कि किसी आदत या अच्छाई को जीवन में शामिल करना हो, तो उसके संस्कार बचपन से ही बोना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि हम भारतीय स्वच्छता के महत्त्व को नहीं समझते- हमें भी स्वच्छता का पाठ बचपन से सिखाया जाता है। हम भी जब घर पहुँचते हैं, तो बाहर पहने जाने वाले जूते- चप्पल दरवाजे के बाहर ही उतार देते हैं, खाना हाथ धोकर ही खाते हैं, घर की प्रतिदिन सफाई करते हैं; लेकिन जहाँ पर बात घर से बाहर की आती है, हम उधर से बेपरवाह हो जाते हैं। समस्या यहीं से शुरू होती है। चूँकि हम अपने घर के अलावा बाहरी दुनिया की साफ- सफाई की जिम्मेदारी नहीं लेते । शायद इसीलिए देश में सबसे स्वच्छ प्रदेश और सबसे स्वच्छ शहर को पुरस्कृत करने की एक नई सरकारी परंपरा का जन्म हुआ है। दिन- प्रतिदिन बढ़ती गंदगी, कचरों के बनते पहाड़ और इससे उपजी समस्याओं को देखते हुए केंद्र सरकार द्वारा स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की गई है।

चलिए, हमें इसी बात पर खुशी मनाना चाहिए कि प्रतियोगिता के बहाने ही सही देश को स्वच्छ बनाए रखने की दिशा में कुछ तो काम शुरू हुआ है।  प्रश्न तो फिर भी वहीं है कि क्या हमारी बस इतनी ही जिम्मेदारी है कि हम प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए सफाई अभियान में शामिल हों? इसका जवाब तो ‘नहीं’ ही होगा।  हमारी भी कुछ नैतिक जिम्मेदारी बनती है। यह काम एक दिन झाड़ू लेकर सड़क की सफाई करने से नहीं होगा। इसके लिए सबको एक होकर प्रयास करना होगा। जापानियों की तरह प्राइमरी स्तर से ही स्वच्छता के विषय को पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। सरकारी स्तर पर भी सिर्फ कागजी अभियान चलाने के बजाय धरातल पर काम करना होगा, क्योंकि हमारे देश में आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा झुग्गी झोपड़ियों में रहता है, जिनके घरों के आस-पास गंदी बदबूदार नालियाँ बहती हैं, वहाँ के बच्चों और वहाँ के नागरिकों को भी स्वच्छता के बारे में जागरूक करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी होगी, जो एक प्रतियोगिता आयोजित करने मात्र से नहीं निभाई जा सकती। 

इसमें कोई दो मत नहीं कि आज भारत दुनिया में सबको पछाड़कर नंबर वन के पायदान की ओर तेजी से बढ़ रहा है, तो स्वच्छता के मामले में पीछे रहकर अपनी छीछालेदर क्यों करवाएँ। क्यों न अपने संस्कारों पर गर्व करें और उन्हें भावी पीढ़ी को सौंपते हुए देश के जिम्मेदार और जागरूक नागरिक बनकर दुनिया को यह बता दें कि हम भारतीय हैं।

ललित निबंधः वसंत मेरे द्वार

- विद्यानिवास मिश्र

लोगों ने सुना, फागुन आ गया है। फागुन आया है, तो वसन्त भी आया होगा, फूलों के नए पल्लवों का ऋतु-चक्र मुड़ा होगा। पर सिवाय इसके कि कुछ पेड़ों की पत्तियाँ बड़ी निर्मोही हो गई हैं अपनी डाल पर रुकती नहीं, पेड़ की छाया तक भी नहीं रुकती, भागती चली जाती है, और कोई संकेत यहाँ बड़े शहर में फागुन का या वसन्त का मिलता नहीं। क्या निर्मोहीपन को ही वसन्त मानकर वसन्त का स्वागत करें या इसे कोसें, फिर तुम आ गए। तुम आते हो कितना कुछ गवाँ देना पड़ता है, पास से और कुछ भी हाथ में हासिल नहीं आता। राग की ऋतु हो, कितना विराग दे जाती हो, अपने आप से। ब्रजभाषा के किसी कवि ने ऐसा ही प्रश्न किया थाः

झूरि से कौन लये बन बाग,

कौने जु आंयन की हरि भाई।

कोयल काहें कराहित है बन,

कौन धौं, कौन ने रारि मचाई।।

कौनधौं कैसी किसोर बयारि बहै,

कौन धौं कौन ने माहुर जाई।

हाय न कोऊ तलास करै,

या पलासन कौन ने आगि लगाई।।

यह क्या हुआ है, किसने बन बाग झुलसा दिये सब नंगे ठाठरी-ठाठरी रह गए, किसने आमों की हरियाली हर ली। किसने यह उपद्रव किया कि ‘बन- बन’ कोयल कराहती रहती है। कैसी तो जाने मारू हवा बही, किसने इसमें जहर घोल दिया। कोई तलाश करने को भी तैयार नहीं कि किसने ढाक बनों में आग लगाई?

इन अनेक उत्पातों के पीछे कोई छिपी शक्ति काम कर रही है, उसी का नाम वसन्त है। लोग इसे मदन महीप का उत्पाती बालक बताते हैं, बाप से एक सौ प्रतिशत ज्यादा ही उत्पाती। पर मदन तो काम का देवता है, मन के देवता चन्द्रमा का मित्र है। वह क्यों इतना उन्मन करता है। चाह पैदा करने का मतलब यह तो नहीं तो चाहने वाला मन ही न रहे।

इस वसन्त से बड़ी खीझ होती है, इतना सारा दुःख चारों ओर, दरिद्रता चारों ओर, दरिद्रता बाहर से अधिक भीतर की दरिद्रता का ऐसा पसारा है, इन सबके बीच क्यों एक अप्राप्य सुख की लालसा जगाने आता है। क्या वसन्त कोई विदूषक है, पुराने विदूषकों का नाम वसन्त इसीलिए हुआ करता था? क्या वसन्त कोई कापालिक है, लाल लाल गुरियों की माला पहने, हाथ में कपाल लिए आता है, कन्धे पर एक लाल झोली लटकी रहती है, उसी में नए फूल, नए पल्लव, नई प्रतिमा, नई चाह, नई उमंग सब बटोरकर चला जाता है। फिर साल भर बाद ही लौटता है, कुछ भी लौटता नहीं, बस बरबस सम्मोहन ऐसा फैलाता है कि सब लुटा देता है। फूल और रस वह लाल लाल आँखें लिये अट्ठहास करता चला जाता है? या वसन्त यह सब कुछ नहीं, निहायत नादान -सा शरारती छोकरा है, जिसे कोई विवेक नहीं,

किसी के सुख दुख की परवाह नहीं खेल-खेल में जाने कितने घर बन और कितने बन घर करता हुआ निकल जाता है। धूलि भरी आँधियों के बगूलों के बीच से किधर और कब कोई नहीं जानता?

या वसन्त कुछ नहीं विश्व की विश्व में आहुति जिस आग में पड़ती हैं, उसका ईंधन है सूखी लकड़ी है, तनिक भर में धधक उठती है, बस एक चिनगारी की लहक चाहिए, तनिक सी ऊष्मा कहीं से मिले, निर्धूम आग धधक उठती है, समष्टि की आकांक्षा को ग्रसने के लिए लपलपाती हुई। वसन्त केवल उपकरण है, उसमें कुछ अपना कर्तृत्व नहीं। मैं तब सोचता हूँ। शायद यह सब कुछ नहीं, केवल छलावा है मन का भ्रम है, कोई वास्तविकता नहीं। पत्तों के झरने से फूलों के खिलने से वसन्त का कोई सरोकार नहीं, ये सब पौधे के पेड़ के धर्म हैं वसन्त कोई ऋतु भी नहीं है, गीली है या सूखी। मौसम खुला है या बादलों से घिरा है। वसन्त यह कहाँ से आ गया? कवियों का वहम है और कुछ नहीं। यह वहम ही लोगों के दिमाग में इतनी सहस्त्राब्दियों से चढ़ गया कि इतना बड़ा झूठ सचाई बन गया है और हम वसन्त से खीझते हैं, पर उसकी प्रतीक्षा भी करते हैं। मानुष मन चैन के लिए मिला नहीं, अकारण किसी भी मधुर संगीत से, किसी भी आकर्षक दृश्य से खींचकर वह कहाँ से कहाँ चला जाता है, आधी रात कोयल की विह्वल पुकार पर वह सेज से उठ जाता है, अमराइयों में अदृश्य के साथ अभिसार के लिए निकल पड़ता है।

जाने संस्कृतियों ने कितने मोड़ बदले, मनुष्य जाने कहाँ से कहाँ पहुंचा, मन आदिम का आदिम रह गया, वह एक साथ फुलसुँघनी चिड़िया, बिजली की कौंध, तितली की फुरकन, गुलाब की चिटक, स्मृति की चुभन, दखिनैया की विरस बयार, कोयल की आकुल कुहक, सुबह की अलसाई सिहरन, दिन का चढ़ता ताप, नए पल्लवों की कोमल लाली, पलास की दहक, सेमल के ऊपर अटके हुए सुग्मों के नरौश्मय निर्गमन, यह सब है और इसके अलावा भी अनिर्वचनीय कुछ है। वह सदा किशोर रहता है, इसीलिए वह इतना अतर्क्य बना रहता है। यह वसन्त निगोड़ा उसी मन से कुछ साँठगाँठ किए हुए है। इसीलिए सारी परिस्थितियाँ एक तरफ और वसन्त का आगमन एक तरफ वसन्त से मेरा तात्पर्य एक दुर्निवार उत्कंठा से है। जो सब कुछ के बावजूद मनुष्य के मन में कहीं दुबकी रहती है, यकायक उदग्र हो उठती है, कहाँ से सन्देश आता है, कौन बुलाता है, कोई नहीं जानता। कौन बसन्त रास के लिए वेणु बजाता है, उसका भी कुछ पता नहीं।

सब कुछ तो अगम्य है। इस अगम्य अव्यक्त से यकायक एक दिन या ठीक कहें एक रात कोयल कुहक उठती है और मन सुधियों के जंगल में चला जाता है। इस जंगल में कितनी तो अव्यक्त इच्छाओं के नए उकसे पत्र कुड्मल हैं, कितने संकोच के कारण वचनों के सम्पुटित कर्ले हैं कितनी अकारण प्रतीक्षा के दूभर क्षणों की सहमी वातास है, कितनी भर आँख न देख पाने वाली अधखुली आँखों की लालसा की लाल डोरियाँ हैं और कितना सबकुछ देने की उन्मादी चाँदनी का लुटना है। हाँ, इस जंगल में अमराई का आधार भी है, जगह जगह मधुक्खियों की भिनभिनाहट भी हैं, बँसवारियों की छोर भी है, जाने कितने खुले एकान्त भी हैं। इस जंगल में निकल जाएँ तो फिर मन किसी को कहीं का नहीं रखता न घर का न वन का। यह मन केवल विराग का राग बन कर फैलना चाहता है, कभी फैल पाता है कभी नहीं।

यह मन चिन्ता नहीं करता कि हमें फल का रस मिलेगा या नहीं। वह फूल के रस का चाहक है। बाउल गीतों में मिलता है कि फल का रस लेकर हम क्या करेंगे। हमें मुक्ति नहीं चाहिए। हमें रसिकता चाहिए। रस दूसरों के लिए होता है न। हमें वह पराया अपना चाहिए। अपने का अपना होना क्यों होना है पराए का अपना होना, होना है। पराया भी कैसा जो परायों का भी पराया है, परात्पर है। उसका अपना होने के लिए सब निजत्व लुटा देना है, सब गन्ध, रूप, रस, गान लुटा न्योछावर कर देना है।

बसन्त आता है तो अनचाहे यह सब स्मरण आ जाता है और एक बार और बसन्त को कोसता हूँ। बन्धु तुम क्यों आए अब तो मुझे चैन से रहने दो घरूपन, अब क्यों अपनी तरह बनजारा बनाने के लिए आ जाते हो। अब मधुबन जाकर क्या करूँगा। मधुवन है ही कहाँ? क्यों रेतीले ढूहों में भटकने के लिए उन्मन करते हो? मैं क्या इतना अभिशप्त हूँ कि वसन्त मेरे दरवाजे पर दस्तक दे देता है। मुझे उसकी प्रतीक्षा भी तो नहीं, यह सोचता हूँ तो लगता है यह मेरे उन संस्कारों का अभिशाप है, जो विनाशलीला के बीच अँधियारे सागर में बिना सूर्य के निकले सृष्टि का एक कमल नाल उकसा देता है। उसमें से स्रष्टा निकल पड़ते हैं। वसन्त स्वयं भी संहार में सृष्टि है। निहंगपन में समृद्धि का आगमन है, अनमनेपन में राग का अंकुरण है, जड़ता में ऊष्मा का संचार है। इसी से उसके दो रूप हैं-मधु और माधव। फागुन मधु है, मधु तो क्या, मधु के आस्वाद की लालसा है और माधव लालसाओं का उतार है।

चैत पूरा का पूरा ऐसे माधव की बिरह व्यथा है जो माधव को मथुरा में चैन से नहीं रहने देती है। माधव व्यग्र हैं, राधा माधव के लिए व्यग्र नहीं है। राधा माधव हो गई है, माधव से भी अधिक माधव की चाह हो गई है। उन्हें माधव की अपेक्षा नहीं रही। यह वसन्त राधा माधव के बीच ही ऐसा नहीं करता। समूची सृष्टि में, जो स्त्री तत्व और पुंस्तत्व से बनी है, ऐसे ही कौतुक करता है। एक सनातन आकुलता और एक सनातन चाह में मनुष्य के मन को बाँट कर फिर उन्हें मथता रहता है। मनुष्य के भीतर का मनुष्य नवनीत बन कर, नवनीत पिंड बन कर, नवनीत पिंड का चन्द्रमय रूपान्तर बनकर अँधेरी रातों को कुछ प्रकाश के भ्रम में बिहँसित करता रहता है। वसन्त और कुछ नहीं करता, बस कुछ को न-कुछ और न-कुछ को कुछ करता रहता है। बार बार बरजने पर भी मानता नहीं। वसन्त की ढिठाई तो वानर की ढिठाई भी पार कर जाती है। कोई हितु है जो इसे रोक सके? मैं जानता हूँ कोई नहीं होगा, क्योंकि दिन में तो हवा की सवारी करता है। रात में चाँद की सवारी करता है। वह कहाँ रोके रुकेगा।

तो फिर आ जाओ अनचाहे पाहुन, आओ भीतर कुछ क्षण आ जाओ, इन कागदों के पत्रों के बीच आ जाओ, इन्हें ही कुछ रंग दो, सुरभि दो, गरमाहट का स्पर्श दो, स्वर दो ये पत्ते प्राणवन्त हो जाएँ भले ही अपने को गला दें, जला दें कुछ नए बीजों को अँखुआने की ऊष्मा तो दे दें।

२५ मार्च २०१३

संस्मरणः आनन्द धाम में आनन्द के पल

 - शशि पाधा

एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी की पत्नी होने के नाते मुझ पर बहुत से दायित्व थे। युद्धरत सैनिकों के परिवारों का मनोबल बनाये रखने के लिए विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करना, कम पढ़ी -लिखी  सैनिक  पत्नियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित,करना, सैनिक परिवार कल्याण केन्द्रों में उनके लिए घरेलू लघु उद्योग के संसाधन जुटाना आदि-आदि। सैनिक परिवार समाज की  एक महत्त्वपूर्ण  इकाई है, चाहे इन परिवारों को शहरों से थोड़ा दूर सैनिक छावनियों में रहना पड़ता है। जिस प्रकार एक सैनिक अपने देश की रक्षा  के लिए सदैव तत्पर रहता है, वैसे ही हर सैनिक पत्नी का भी अपने देश और समाज के प्रति  उतना ही उत्तरदायित्व होता है। जिसे वह बड़ी सहजता से निभाती हैं।

वर्ष 1997 से लेकर वर्ष 1999 तक मैं अपने सैनिक परिवार के साथ पंजाब राज्य में स्थित फिरोजपुर छावनी में रहती थी। भारत-पाक सीमा से सटे हुए इस छोटे से ऐतिहासिक नगर के कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों द्वारा वर्षों से स्थापित अनाथालय, अंध विद्यालय, और कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए बने ‘आनन्द धाम’ में सेवाएँ दी जा रही थी। नगर से कुछ ही दूर एक गाँव में मदर टेरेसा द्वारा स्थापित संस्था ‘निर्मल ह्रदय’ में भी स्वयं सेवकों द्वारा सेवा- सुश्रूषा का कार्य किया जाता था। छावनी के सैनिक परिवार कल्याण केंद्र द्वारा भी समय-समय पर इन केन्द्रों में यथा योग्य सहायता-सेवा की जाती थी। छावनी के प्रमुख अधिकारी की पत्नी होने के नाते मैंने भी अन्य सैनिक अधिकारियों की पत्नियों के साथ इन सेवा केन्द्रों में अपनी सेवाएँ देने का मन बना लिया।

भारत में अक्टूबर -नवम्बर के महीने में बहुत से त्योहार मनाये जाते हैं, जिनमें से दिवाली प्रमुख है । यह त्योहार खुशियाँ बाँटने,अपनों को  गले लगाने का त्योहार है। हमने भी आनन्द बाँटने वाले इस सांस्कृतिक पर्व को नगर में स्थित ‘आनन्द धाम’ के निवासियों के साथ बिताने का निर्णय लिया। मुझे बताया गया कि इस धाम में कुष्ठ रोगियों के परिवार रहते हैं।

सच कहूँ तो उस दिन से पहले मैंने हरिद्वार में  कुष्ठरोगियों को मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे हुए भिक्षा माँगते हुए ही देखा था और वह भी बचपन में। उनके हाथों-पैरों में पट्टियाँ बँधी देखकर नन्हा- सा मन पसीज गया था। माँ सुनाती है कि मैंने अपने खिलौनों के लिए बचाए हुए सारे पैसे उन लोगों में ही बाँट दिए थे। उसके बाद शायद कभी किसी रेलवे स्टेशन पर ही कुष्ठ रोगियों को देखा होगा। आम मेले-बाज़ारों में कभी नहीं। जाने का निर्णय लेने के बाद कई प्रकार के भाव-अनुभाव मेरे मन में उमड़ रहे थे।

 हम सब सैनिक पत्नियों ने तय किया कि हम दिवाली की सुबह ‘आनन्द धाम’के निवासियों के साथ बिताएँगे। हमने खूब सा स्वादिष्ट भोजन तैयार करवाया, बहुत से मौसमी फल, मेवे आदि टोकरियों में सजाए। भोजन और फलों के साथ उपहारों का होना भी  ज़रूरी था। हमने कुछ सूती साड़ियाँ, ऊनी शाल और कमीजें और बच्चों के लिए खिलौने भी उपहारों के डिब्बों में बंद करवा लिये।

उस दिन आनन्द धाम में रहने वाले परिवारों से मिलने की उत्सुकता भी थी और अन्दर से एक भय भी सता रहा था कि न जाने उन्हें किस  परिस्थिति में देखेंगे? क्या हम उन्हें छू पाएँगे? क्या हम उनके साथ मिलकर भोजन कर पायेंगे? जल्दी ही हमारे साथ जाने वाले स्वास्थ्य कर्मियों ने हमारे भय और आशंका को दूर कर दिया। उन्होंने हमें बताया कि कुष्ठरोग संक्रामक रोग नहीं है और न ही यह ईश्वरीय प्रकोप है।  इन लोगों से हम पूरे खुले दिल से जैसा चाहे सम्पर्क कर सकते हैं। सुनकर हमारी बचपन की भ्रांतियाँ दूर हो गईं थी।

आनन्द धाम को दिवाली के शुभ अवसर पर सजाया गया था।  एक खुले पंडाल में वहाँ के निवासी अपने परिवार सहित बैठे हुए थे। जैसे ही मैंने वहाँ प्रवेश किया,  दो प्यारे से बच्चों ने पुष्पगुच्छ से हमारा स्वागत किया। पंडाल में सभी लोग ज़मीन पर बिछी दरियों पर बैठे हुए थे। बहुत सी महिलाओं और पुरुषों  के पैरों और हाथों की अँगुलियों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। एक-दो वृद्ध लोगों की आँख पर भी पट्टी थी। लेकिन उनकी स्थिति इतनी दयनीय नहीं लग रही थी, जितनी मुझे आशंका थी। उनका इलाज चल रहा था, इसलिए वह किसी दर्द या पीड़ा से कराह नहीं रहे थे।

हमने उन्हें अपने लाये हुए उपहार भेंट किये। बच्चे तो उसी समय अपने खिलौने देख कर उनसे खेलने लगे। महिलायों ने खुशी से नये शाल ओढ़ लिये। मैंने हर पंक्ति में जाकर उनसे बातचीत करनी शुरू की। खुशी हुई यह जान कर कि इनका इलाज सुचारू रूप से चल रहा था और स्थानीय स्वास्थ्य विभाग इनकी देख भाल कर रहा था ।सब से बड़ी आश्वासन की बात यह थी कि  इनके बच्चे इस रोग से संक्रमित नहीं थे और न ही होंगे।

आनन्द धाम में बैठे हों और कुछ आनन्द का वातावरण न हो, यह कैसे हो सकता था। हमने उनसे ही पूछा कि उनमें से कौन गा सकता है, कौन- सा बच्चा नृत्य कर सकता है। हॉल में बैठे बहुत से लोगों के पट्टियाँ बँधे ऊँचे हाथ देख -देखकर बहुत सांत्वना  हुई कि यह सब आमोद-प्रमोद के लिए पूरी तरह से तैयार थे। और फिर शुरू हो गया गाने-बजाने का सिलसिला। आनन-फानन में ढोलक आ गई, मंजीरे बजने  लगे और सारा पंडाल भजनों के पावन स्वरों से गूँज उठा।  कुछ कुशल गायकों ने महात्मा गांधी का प्रिय भजन ‘ वैष्णव जन तो तैने कहिये जो पीर पराई जाने रे’ इतने मधुर स्वरों में गाया कि पूरा वातावरण भक्तिरस में डूब गया। आनन्द से गाते-बजाते इन रोगियों को देख कर मैंने महसूस किया कि रोग तो इनके शरीर के बाह्य अंगों में है, इन्हें शायद पीड़ा भी है। किन्तु इनके मन तो पूर्णतया स्वस्थ हैं। ये लोग जीवन को अपने ढंग से जीने और परिस्थितियों से जूझने की कला में पारंगत हैं। ये तो हमारे जैसे हैं और शायद हम से अधिक साहस और हिम्मत वाले। ये दया नहीं चाहते हैं केवल उपचार चाहते हैं और समाज में उचित स्थान।

मैंने उनके साथ मिल कर बहुत से भजन गाये। हँसी-मज़ाक के दौर में मैंने  लाल  चूड़ियाँ पहने हुए एक युवा लड़की से पूछा कि क्या उसका विवाह हो गया है? तो उसने बहुत शरमाते हुए सर हिला दिया। उसके आस -पास बैठी स्त्रियों ने मुझे उसके युवा पति से भी परिचित कराया। मेरे मन के उस  प्रश्न का उत्तर भी मुझे मिल गया कि कुष्ठरोगी भी सामान्य जीवन बिता सकते हैं।

अब हमारी बारी थी बच्चों के साथ समय बिताने की। हमने उनसे कुछ बाल गीत सुने, कुछ चित्रकारी की । दो बच्चों ने रावण और हनुमान बन कर रामलीला का एक अंश भी मंचन करके दिखाया। उन बच्चों की प्रतिभा को देखकर मैंने उसी समय निर्णय लिया कि स्थानीय लोगों से मिलकर इनके लिए शिक्षा की अधिक से अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराने के क्षेत्र में हमें बहुत लग्न से काम करने की आवश्यकता है।

 हमारे साथ आये सेवा कर्मियों ने तब तक भोजन का बंदोबस्त कर दिया थ। साथ ही बगीचे में लगे शामियाने में लगी मेजों पर रखे गए भोजन को हम सबने मिलकर खाया। उस दिन हम मिठाइयाँ तो नहीं बाँट पाए; क्योंकि स्वास्थ्य और चिकित्सा को ध्यान  में रखते हुए ‘आनन्द धाम’ में मिठाइयाँ ले जाना वर्जित था। अच्छा  ही हुआ ; क्योंकि  हम सब ने मौसमी फलों का जी भर आनन्द उठाया। भी। उस दिन घर लौटते समय आत्मग्लानि के भाव ने मुझे अन्दर से घेर लिया था कि मैं इससे पहले इनसे मिलने ; क्यों नहीं आई । शायद मेरे बचपन का भय अभी तक मेरे साथ था।  दुःख की बात यह थी कि मेरी तरह बहुत से लोगों को शायद इस बात का ज्ञान ही नहीं होगा कि कुष्ठ रोग संक्रामक नहीं है और इसका उपचार हो सकता है ।

इसके बाद तो आनन्द धाम में जाने का सिलसिला चलता रहा| कोई भी दिन त्योहार हो या वैसे भी कभी स्वास्थ्य कर्मियों के साथ उनकी सेवा सुश्रूषा के लिए चली जाती थी| वे सब भी अपने सुख-दुःख मेरे साथ बाँटने में झिझकते नहीं थे| लेकिन दो वर्ष के बाद सेना के नियमों के अनुसार मेरे पति का भी स्थानान्तरण हो गया| फिरोजपुर छोड़ने से कुछ दिन पहले मैं एक बार पुन: आनन्द धाम गई|

विदा के पल सदैव ही भावुक करने वाले होते हैं। मैं हैरान थी कि मैंने आनन्द धाम के वासियों के साथ कुछ दिन ही तो बिताए थे। लेकिन जाते समय जितना वो लोग रो रहे थे, उतना ही मैं भी।  मैं कार में बैठ रही थी तो आनन्द धाम का प्रांगण ‘भारत माता की जय’,’ महात्मा गांधी की जय’ के नारों से गूँज उठा।  भावुक होकर बहुत से बच्चों और महिलाओं ने हमारी गाड़ी को रोककर रखा। वे मुझे जाने  ही नहीं दे रहे थे। शायद उन्हें इस बात का पता चल गया था कि मेरे पति का स्थानान्तरण हो गया था  और यह हमारी आखिरी मुलाक़ात थी| उनके पट्टियाँ बंधे हाथ नमस्कार की मुद्रा में मुझे विदा कर रहे थे। ‘भारत माता की जय’ के नारों के बीच  अब ‘शशि माँ की जय’ जैसे स्नेह और अपनत्व के उद्गार भी जुड़ गे। उनके स्नेह ने मुझे भीतर तक भिगो दिया। मैंने अपनी भावनाओं को आँखों के कोरों में बाँध दिया, बहने नहीं दिया।

मैं इनकी जिजीविषा की उदात्त भावना के आगे नतमस्तक थी। अंतिम बार आनन्द धाम के प्रवेश द्वार से निकलते हुए मैंने उस अदृश्य, सर्वशक्तिमान प्रभु से मन ही मन प्रार्थना की-

हे प्रभु! सारा संसार इस रोग से मुक्त हो जाये और जिनसे मैं मिल कर आई हूँ, वे सब पूर्णतया स्वस्थ हो जाएँ।

 मैं जानती थी कि प्रार्थनाओं में बहुत बल होता है।

Email: shashipadha@gmail.com, Add: 10804, Sunset Hills, Reston, VA, 20190, USA

नदी की व्यथाः ...काश मैं भी अपनी नदी बहनों से मिल पाती

 - राजेश पाठक

 नदियाँ बहती जा रही थीं। लोगों के पाप धोते जा रही थीं। कोई कूड़ा-करकट फेंकता तब भी वह निश्छल भाव से उसे स्वीकार करते जा रही थीं पर मन में एक बात उसे सालती जा रही थी कि वर्षों से मानव जाति में दो बहनों के बीच आना-जाना, एक-दूसरे से मिलना कितना स्वाभाविक है। काश! मैं भी अपनी नदी बहनों से मिल पाती। पूछती, क्या वह मजे में तो है या फिर उसे उसकी ही तरह मानव जाति का दंश झेलना पड़ रहा है। आखिर वह अपने मन का बोझ जो हल्का करना चाहती थी।

क्यों ना चाहे ? हर मानव एक-दूसरे से मिलने के लिए स्वच्छंद है। घूमने-फिरने की आजादी जो मिली है। जब कभी भी उसका मन किया वह अपने दुख-दर्द अपने सगे भाई-बहनों से मिलकर बांट आता है। पर मैं तो चाहकर भी पास या दूर बसी अपनी बहनों से मिल नहीं पाती हूँ। मुझे चिकनी-चुपड़ी बनाने के लिए कानून भी आगे आ जाता है पर एक-दूसरे से मिलने की बात हो तो अपनी ही जगह कैद रहो। आखिर कब तक? कोई सोचे। देश आजाद है। पक्षी आजाद हैं। मैं भी आजाद हूँ पर जब कभी भी अपनी बहनों से मिलने की सोचती हूं आगे बड़े-बड़े पहाड़़, ऊँची-ऊँची भू-आकृतियाँ इसके आड़े आ जाती हैं। मैं चाहकर भी अपनी बहनों से और ना ही मेरी बहनें चाहकर भी मुझसे मिल पाती है। तुम्ही बताओ, यह कैसा न्याय है?

अपने निकट के लोगों को सुविधा भी प्रदान करती हूँ, खेतों को सींचती भी हूँ, खाने-पीने के लिए जल भी मुहैया कराती हूँ, बदले में कुछ माँगती भी नहीं हूँ, पर वर्षों से जब मैं अपनी नदी-बहनों से मिलने की माँग कर रही हूँ तो कोई मेरी सुनता ही नहीं है। खैर! मत भूलो, वक्त मेरा भी आएगा। आखिर मेरी भी तो कुछ तमन्नाएँ हैं। अरमान हैं। पर मैं मानव जाति की तरह नहीं कि जब उनके अभिभावक मना करें, तो बात काटकर अपनों से मिलने चली जाऊँ। उन्हें अपनी बहनों से मिलने से रोक दो, तो वे तूफान खड़ा कर देते हैं। हाँ, मुझमें से भी कुछ ऐसी हैं पर कुछ ही ऐसी हैं। आखिर करें भी तो क्या करें। सब्र की भी सीमा होती है।

भले मैं अपनी दूरदराज बहनों से न मिल पाऊँ मगर गुस्से में तूफान खड़ा कर अगल-बगल में रह रही बहनों से तो जब चाहूँ मिल ही लेती हूँ। बस अफसोस यही होता है कि मेरे तूफान खड़ा करने से अगल-बगल के सारे लोगों को कष्ट पहुँचता है। उनका दोष न भी हो तो गुस्से में मैं अच्छे-बुरे लोगों में तब भेद नहीं कर पाती हूँ। करूँ भी क्यों, अच्छे-बुरे सभी तो मेरी पनाह लेते हैं। तब भी तो मैं उनमें भेद नहीं करती हूँ। भेद-विभेद तो सर्वदा मेरे साथ होते आया है। राजनेता भी संसद के सत्र वर्ष भर में दो बार बुला ही लेते हैं, एक-दूसरे से मिलने के लिए। फिर मैं क्यों एकांकी जीवन बिताऊँ? मानव जाति को तो देखो। एक दूसरे से मिलने के लिए सारे पर्वों का सहारा ले लिया करते हैं-ईद मिलन, होली मिलन, रक्षा बंधन में भाई-बहन का मिलन वगैरह-वगैरह। बरसात के समय में अगर दूरदराज में वर्षों से अकेली पड़ी नदी-बहन से मिलना भी चाहूँ तो यह मानव जाति मेरे रास्ते को मेरी बहनों की तरफ मोड़ते नहीं बल्कि सामने इतना बड़ा तटबंध बना देते हैं कि मैं बेबस हो जाती हूँ। बेबस होकर धीरे-धीरे लाचार हो वापस लौट आती हूँ। फिर वही दिनचर्या।अब बहुत हो गया।अब तो मैं ‘नदियों का संघ’ बना कर ही रहूँगी। संघ बनाना भी तो मैंने मानव जाति से ही सीखा है। अपनी अपेक्षाएँ पूरी करनी हो तो वे सदा ही संघ का सहारा लेते हैं। संघ में शक्ति है। सरकारी सेवकों को वेतन बढ़ाना हो, सुविधाएँ बढ़वानी हों तो हड़़ताल पर चले जाते हैं। सारा कामकाज ठप्प कर देते हैं। सरकारी मशीनरी इस तरह बैठ जाती है मानो डीजल तो है, पर मशीन चलाने वाली पट्टी ही पटरी से उतर गई हो। अब तो वे कदम-कदम पर हड़ताल की धमकी और सही मायने में हड़़ताल पर चले भी जाने लगे हैं। मैं उनकी रेस में हूँ; पर उनसे आगे नहीं निकल पाई हूँ। वे तो हड़़ताल पर जाकर अपनी बात लगभग मनवा भी लेते हैं; परंतु मैं हड़ताल पर जाती भी हूँ, कहने का मतलब सूख भी जाती हूँ ,तो वे नदी-नाले खुदवाने के नाम पर योजनाओं के आश्वासनों की बाढ़़ कर देते हैं। जीव-जन्तुओं की नाजुक हालत को देख मुझे ही दया आने लगती है पुनः अच्छे सरकारी मुलाजिमों की तरह काम पर वापस आ जाती हूँ। चारों तरफ मैं ही मैं लोगों को नजर आने लगती हूँ।

इतना होने पर भी लोग मुझे अपनी ही दूरदराज में रहने वाली बहनों से मिलने में रोके, भला इसे मैं कब तक बर्दाश्त करते रहूँगी। अब तो मैंने मन बना लिया है। लोग जो भी सोचें। मैं तो अपनी बहनों से मिलकर ही रहूँगी। बहुत हो गया। वर्षों से नेताओं द्वारा भी झूठी दिलासा मिलती आ रही है। अगले साल तक नदियों से नदियों को जोड़ दिया जाएगा। यह अगला साल कब आएगा आज तक न समझ सकी। अब तो मैं भी मानव जाति के पाप धोते-धोते उनकी ही तरह ‘स्लोगन’ के साथ विरोध करने पर विचार कर रही हूँ।

‘स्लोगन’ तैयार भी किया है-

 "जोड़ सके न वे अब तक नदियों को नदियों से,

क्यों सुनती रहूँ निरा भाषण नेताओं के सदियों से"                  

वैसे मैं कुछ करने से पहले मानव जाति को अंतिम अवसर देना चाहती हूँ। अभी भी वक्त है। एक बार वे जोड़कर तो देखें। एक बार तो मेरी बहनों से मिलाकर तो देखें। फिर मैं दुबारा मिलने की  जिद्द नहीं करूँगी। फिर तो मैं जहाँ पहूँचूँगी वहीं रहूँगी। उन्हें यकीन हो या ना हो पर मुझे तो पूरा यकीन है। एक बार मैं बहनों से मिल लूँ, तो मुझे वापस जाने नहीं कहेगी। सब एक साथ मिलकर  रहने लगूँगी। फिर न तो मेरी हड़ताल देश में सूखा लाएगी, न ही कोई सूखा के चलते भूखा ही रहेगा। धरती सूखी नहीं, सुखी होगी, वर्ना मुझे भी जलजला पैदा करना आता है। मेरे थोड़े गुस्से से कैसे सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है। इतना होने पर भी दाद देनी होगी इस मानव जाति को। कितनी ढीठ है!


रचनाकार के बारे में-
प्रकाशित पुस्तक - नक्सलियों को मुख्यधारा में जोड़ने को लेकर काव्य- संग्रह ‘पुकार’
, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, सोच विचार, दृष्टिपात, प्रेरणा- अंशु आदि में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित। हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, सन्मार्ग, आवाज, इंडियन पंच, जनज्वार, जनमोर्चा, ककसाड़ आदि में आलेखों का प्रकाशन। सम्पर्कः सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी, जिला सांख्यिकी कार्यालय, गिरिडीह, झारखंड -815301 मो नं 9113150917

आलेखः जोशीमठ- सुरंगों से हुई तबाही का नतीजा

 - प्रमोद भार्गव

समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से जल विद्युत संयंत्रों और रेल परियोजनाओं की बाढ़ आई हुई है। इन योजनाओं के तहत हिमालय क्षेत्र में रेल यातायात और कई छोटी हिमालयी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस अनियोजित आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय दरकने लगा है जहाँ मानव बसाहटें जीवन-यापन करने के साथ हिमालय और वहाँ रहने वाले अन्य जीव-जगत की भी रक्षा करती चली आ रही थीं। हमने कथित भौतिक सुविधाओं के लिए अपने आधार को ही नष्ट किया और उसे विकास का नाम दे दिया। जोशीमठ संकट इसी ‘विकास' का नतीजा है।

उत्तराखंड के चमोली ज़िले में स्थित जोशीमठ शहर ने कई अप्रिय कारणों से नीति-नियंताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों ने जोशीमठ के बारह दिनों में 5.4 सेंटीमीटर धँस जाने की जानकारी दी है।  धँसती धरती की इस सच्चाई को छिपाने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और उत्तराखंड सरकार ने इसरो समेत कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें। नतीजतन इसरो की बेवसाइट से ये चित्र हटा दिए गए हैं। सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने की बजाय उन पर धूल डालने जैसा है।

भारत सरकार और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के प्रतिकूल जिन विकास योजनाओं को चुना है, उनके चलते यदि लोग अपने गाँव और आजीविका के साधनों से हाथ धो रहे हैं, तो सवाल है कि ये परियोजनाएँ  किसलिए और किसके लिए हैं?

नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन  तथा रेल और बिजली के विकास से जुड़ी तमाम कंपनियों का दावा है कि धरती धँसने में निर्माणाधीन परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है।

उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहायक नदियों पर एक लाख तीस हज़ार करोड़ की जल विद्युत परियोजनाएँ निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बाँध- निर्माण के लिए नींव हेतु गहरे गड्ढे खोदकर खंभे व दीवारें खड़े किए जा रहे हैं। कई जगह सुरंगें बनाकर पानी की धार को संयंत्र के टर्बाइन पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों की दरारों को खाली कर देता है और पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुँथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज़ बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएँ पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ रही हैं। यही नहीं, कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए किए जा रहे भीषण विस्फोट भी हिमालय को थर्रा रहे हैं।

हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएँ भी निर्माणाधीन हैं। सबसे बड़ी रेल परियोजना के कारण उत्तराखंड के चार ज़िलों (टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज़्यादा गाँवों को विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। छह हज़ार परिवार विस्थापन की चपेट में आ गए हैं। रुद्रप्रयाग ज़िले के मरोड़ा गाँव के सभी घर दरक गए हैं। रेल विभाग ने इनके विस्थापन की तैयारी कर ली है। यदि ये विकास इसी तरह जारी रहते हैं तो बर्बादी का नक्शा बहुत विस्तृत होगा। दरअसल ऋषिकेश से कर्णप्रयाग रेल परियोजना 125 किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरंग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 कि.मी. लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी 15 सुरंगों में ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं। इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ की बजाय अब पीपलकोठी तक होगा। भू-गर्भीय सर्वेक्षण के बाद रेल विकास निगम ने जोशीमठ क्षेत्र की भौगोलिक संरचना को परियोजना के अनुकूल नहीं पाया था। अच्छी बात है कि अब इस परियोजना का अंतिम पड़ाव पीपलकोठी कर दिया है। हिमालय की ठोस व कठोर अंदरूनी सतहों में ये विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की जड़ें भी हिला रहे हैं। कई अन्य ज़िलों के गाँवों के नीचे से सुरंगें निकाली जा रही हैं। इनके धमाकों से घरों में दरारें आ गई हैं। वैसे भी पहाड़ी राज्यों में घर ढलानयुक्त ज़मीन पर  ऊँची नींव देकर बनाए जाते हैं जो निर्माण के लिहाज से ही कमज़ोर होते हैं। ऐसे में विस्फोट इन घरों को और कमज़ोर कर रहे हैं। हिमालय की अलकनंदा नदी घाटी ज़्यादा संवेदनशील है। रेल परियोजनाएँ इसी नदी से सटे पहाड़ों के नीचे और ऊपर निर्माणाधीन हैं। 

दरअसल उत्तराखंड का भूगोल बीते डेढ़ दशक में तेज़ी से बदला है। चौबीस हज़ार करोड़ रुपए की ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना ने विकास और बदलाव की ऊँची छलांग तो लगाई है, लेकिन इन योजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोल दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़े पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। नतीजतन धमाकों के चलते 150 से ज़्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और डेवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी है।

रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हज़ार करोड़ रुपए की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी कहीं सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मज़बूत आधार स्तंभ बनाए जा रहे हैं।

उत्तराखंड में देश की पहली ऐसी परियोजना पर काम शुरू हो गया है, जिसमें हिमनद (ग्लेशियर) की एक धारा को मोड़कर बरसाती नदी में पहुंचाने का प्रयास हो रहा है। यदि यह परियोजना सफल हो जाती है तो पहली बार ऐसा होगा कि किसी बरसाती नदी में सीधे हिमालय का बर्फीला पानी बहेगा। हिमालय की अधिकतम ऊंचाई पर नदी जोड़ने की इस महापरियोजना का सर्वेक्षण शुरू हो गया है। इस परियोजना की विशेषता है कि पहली बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की एक नदी को कुमाऊँ मंडल की नदी से जोड़कर बड़ी आबादी को पानी उपलब्ध कराया जाएगा। यही नहीं, एक बड़े भू-भाग को सिंचाई के लिए भी पानी मिलेगा। ‘जल जीवन मिशन‘ के अंतर्गत इस परियोजना पर काम किया जा रहा है। लेकिन इस परियोजना के क्रियान्वयन के लिए जिस सुरंग से होकर पानी नीचे लाया जाएगा
, उसके निर्माण में हिमालय के शिखर-पहाड़ों को खोदकर सुरंगों एवं नालों का निर्माण किया जाएगा, उनके लिए ड्रिल मशीनों से पहाड़ों को छेदा जाएगा और विस्फोट से पहाड़ों को शिथिल किया जाएगा। यह स्थिति हिमालयी पहाड़ों के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नया बड़ा खतरा साबित हो सकती है। बाँधों के निर्माण हिमालय के लिए पहले से ही खतरा बनकर कई मर्तबा बाढ़, भू-स्खलन और केदारनाथ जैसी प्रलय की आपदा का कारण बन चुके हैं।

उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक ज़ोन-5 में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी ज़िलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएँ निरंतर सामने आ रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। उत्तराखंड और हिमाचल में बीते सात सालों में 130 से ज़्यादा छोटे भूकंप आए हैं। हिमाचल और उत्तराखंड में जल विद्युत और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुँचाया है। टिहरी पर बने बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक भी हिदायतें देते रहे हैं कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी। अतएव जोशीमठ का जो भयावह मानचित्र आज दिखाई दे रहा है, वह और-और विस्तृत होता चला जाएगा।

कविताः गौरा का मैका



 ( जोशीमठ पर  विशेष ) 

- डॉ. कविता भट्ट 'शैलपुत्री'

अहे! किसने हिम मुकुटा फेंका,

रो-सिसक रहा गौरा का मैका।

 

रोया पर्वत, चीखी जब घाटी,

स्वर्ण - रजत हुआ सब माटी।

 

नद शिखर झरने स्तब्ध खड़े हैं,

देखो बुग्याल लहूलुहान पड़े हैं।

 

वो रक्तिम सूरज उगा हिचका- सा,

मौन पहाड़ी पर चंदा ठिठका- सा।

 

संक्रान्ति हुई है ये क्रूर मकर -सी,

हर पगडंडी यमपुरी की डगर- सी।

 

पग - पग पर देखो झूली माया,

यों शंकर नगरी - रुदन है छाया।

 

नहीं क्षुधा-पिपासा शांत हुई तो,

अब अलकापुरी आक्रांत हुई वो।

 

ये आँसू खारे अब पी नहीं सकते,

आघात है गहरा- सी नहीं सकते।

 

मान बैठे स्वयं को मायापति तुम,

अरे मनुज कहाते- हे दुर्मति तुम।

 

निज भाग-विधाता कुछ तो बोलो,

ये मौन त्याग तुम मुख को खोलो।

 

निज हेतु षड्यंत्र स्वयं कर डाला,

निन्यानबे फेरी नित-नित माला।

 

अहंकार में जो दिन रात हँसे हो,

निज काले कर्मों में स्वयं फँसे हो।

 

अब भी समय है तो संभलो थोड़ा,

सरपट दौड़ रहा- काल का घोड़ा।

 

सुरसा मुख असीम इच्छाएँ फैली,

कुचल डालो तुम ये मैली - मैली ।

 

नहीं चेते तो पश्चाताप से क्या हो,

त्रासदी - आँसू संताप में क्या हो।

 

विष बुझे बाण से ये प्रश्न बड़े हैं,

उत्तर दो शिखर विकल खड़े हैं।

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