कभी कभी खुद को
एक समुद्री लहर- सा
पाती हूँ...
कई मनोभावों का एक
समग्र गठा हुआ रूप
जो किसी ठोस अडिग
चट्टान से टकरा जाने
को तत्पर है...
क्षितिज की अवलम्बन
रेखा से बहुत कुछ भरे हुए
खुद में,
लहराती बलखाती
तरंगित होती,एक लम्बा
सफर तय करती हुई
'मैं' चली आ रही हूँ..
मैं बही आ रही हूँ..
कई बार टूटी हूँ,
कई बार जुड़ी हूँ,
यह मेरा व्यक्तित्व
यूँ ही नहीं गढ़ गया,
असंख्य छोटी बड़ी लहरों में घुली हूँ
भंवर में खींची हूँ,
तब कहीं
अनुभवी हिंडोलों संग
तट तक पहुँचती,
देखो!
मैं चली आ रही हूँ..
मैं बही आ रही हूँ..
बहुत कुछ बर्फ के शिला
खंडों में जमा दिया मैंने
फिर भी बढ़ती रही शेष
के अवशेष को समेटे
किनारे पर धँसी हुई मेरी
चट्टान से टकराने को व्यग्र
मैं चली आ रही हूँ..
मैं बही आ रही हूँ..
एक गहन शोर है उल्लास का
एक जोश है आनंदानुभूति का
जो बहुत तेज़ है,शान्त किए दे
रहा है यह निनाद,
आसपास का सब कुछ,
एक वेग से टकरा कर छिटक जाने को..
जो भर कर लाई हूँ दूर से,
उसे असंख्य जलबिन्दुओं में फैला
कर छितरा देने को,देखो!
मैं चली आ रही हूँ..
मैं बही आ रही हूँ..
मुझे है दृढ़ विश्वास कि तुम
सह जाओगे मेरा वेग,
लेट जाओगे 'शिव' से शान्त
होकर धरा पर,'काली' के
प्रचण्ड,
रौद्र को सह लोगे
अपने वक्षस्थल पर,
और
कर दोगे सब शान्त,
देखो !
मैं चली आ रही हूँ
मैं बही आ रही हूँ
लौट जाऊँगीं फिर मैं एक
शांत 'गौरी' बनकर 'शंकर' की
पुनः नव निर्माण करने,
बस यही आस लिए,
तुमसे
मिलकर खुद को विखंडित कर
पुनः निर्मित करने,
देखो !मैं चली आ रही हूँ
मैं बही आ रही हूँ
1 comment:
बहुत सुन्दर कविता, हार्दिक शुभकामनाएँ ।
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