‘‘हूँ?.....खूब बक्से भरे हैं न साड़ियों से?.....ले-देकर वही तो
एक साड़ी है, उसे भी बिगाड़ दूँ, तुम्हें
तो लाज-सरम नहीं......पर मुझे तो घर की इज्जत....’’
‘‘एक ही साड़ी?
वह मूँगिया चैक वाली? गोटे की नीली जापानी?
शादी की गुलाबी वाली?’’
‘‘और....सुना दो,
सौ-दो सौ नाम? मैं कब मना कर रही हूँ? तुम तो बाबा हर दिन नई साड़ी लाते हो! हर रोज नया गहना गढ़वाते हो! करम फूटी
तो मैं ही हूँ.....जो तुम्हारे पल्ले पड़ गई हूँ! तुम तो औरत का इत्ता खयाल रखते हो
कि बस्स.....!!’’
‘‘सारी बात सिर्फ बदलने की थी.....उसमें कितनी बकबक......?’’
‘‘पागल कुत्ती हूँ न?
तभी तो इतनी बकबक करती हूँ! पर तुम तो कवि नहीं, एक अफसर हो अफसर ! पाँच-सात हजार महीना कमाते हो, और
आँख मूँद......सीधे मेरी हथेली पर धर देते हो? हुँह!....अगर
दो दिन भी घर चलाना पड़े तो सारा कविपणा ठिकाणे आ जाए! भाग तो मेरे ही फूटणे थे जो
तुम्हारे पल्ले....’’
और उसका सुबकना चालू हो गया।
‘‘अच्छा बाबा,
माने लेता हूँ कि तुम्हारे पास एक भी साड़ी नहीं है...यहाँ तक कि यह
जो पहन रखी है....वह भी नहीं। अब जाओ....नीचे औरतें आवाजें दे रही
हैं!.....पर.....यह बता जाओ कि खाना कहाँ पर रखा है?’’
‘‘चूल्हे में।’’
और सावित्री आँसू पोंछती,
उसी साड़ी में, चिरसुहाग का वर देने वाले
ईसर-गणगौर के व्रत-पूजन को चल दी।
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