“कोई नहीं सुनेगा। ये बुढ़ापा भी, तन को ही नहीं, आवाज की
हनक को भी कमजोर कर देता है।” धीरे से बुदबुदाई वीणा।
“अरी, ओ बहू! बेटा आयुष!” हारकर वह पंखे की घर्रर्र- घर्रर्र करती ध्वनि को
सुनती हुई स्वयं को बहलाती रही। “कोई है घर में?”... “बहू..
बहू..!” थोड़ी- थोड़ी देर रूक- रुककर कई- कई बार बच्चों को हाँक लगा चुकी थी वीणा।
“देख रहे हो! कोई सुन ही नहीं रहा है। सब के सब कानों में जैसे
रुई डाले बैठे हैं। मेरी पुकार उन तक पहुँच ही नहीं रही है। मेरी इस स्थिति पर तुम
भी बैठे- बैठे मुस्कुरा रहे हो न! आखिर तुम मुझ पर मुस्कुरा ही तो सकते हो और कर
भी क्या सकते हो। ऐसा तो है नहीं कि तुम होते तो मेरी एक आवाज पर दौड़े चले आते।”
बकबकाती हुई वीणा सामने की दीवार पर लगी तस्वीर को एकटक देखे
जा रही थी। अचानक न जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि तस्वीर की आँखों में आँसू भर आए
हैं। प्यार भरी तस्वीर का बेचैन हुआ चेहरा बेबस हो जैसे निहार रहा था उसको। वीणा
ने महसूस किया कि उसके पति का चित्र उससे अभी ही कुछ बातें करना चाह रहा था।
दीवारों के कान होते हैं लेकिन यहाँ तो उसके पति की तस्वीर में उसे कान, नाक और आँखें सब दिख
रही थीं, जिनसे उसका पति उसके हर दुख- दर्द को सुन- समझ और
देख सकता है। पति की दी हुई घुड़की भी अब उसे जैसे सुनाई पड़ रही थी। अचानक उसे लगा
कि उसका पति उसे असहाय देखकर दुखी हो गया है। उसकी बेबसी को महसूस करके वह रो
पड़ी।
“मैं भी न!” अपने सिर पर अपने हाथ से मारती हुई कहती है, “मैं भी तुम्हें
क्या- क्या सुना दे रही हूँ। मैं जानती हूँ, तुम यदि होते
यहाँ तो मेरे एक शब्द पर अवश्य ही दौड़े आते। जैसे विष्णु भगवान नदी में मगरमच्छ
के द्वारा पकड़े गए हाथी की गुहार पर भागे आए थे और उस हाथी को मगरमच्छ का शिकार
होने से बचा लिया था उन्होंने।”
करवट लेकर पुनः बोली वीणा,
“सुनो! मैं भूली नहीं हूँ वह दिन, जब मेरी
बच्चेदानी को मेरे शरीर से अलग कर देने के लिए ऑपरेशन हुआ था। मैं अस्पताल के
बिस्तर पर दस दिन तक असहाय- सी पड़ी हुई थी। रात- दिन तुम ही तो थे, जो मेरी सेवा में लगे हुए थे। एक औरत के लिए डॉक्टरों द्वारा उसकी
बच्चेदानी को निकाल बाहर करना बहुत दुखद स्थिति होती है। तन-मन सब घायल हो जाते
हैं, ऐसा लगता है जैसे स्त्री को स्त्री का दर्जा दिलाने
वाला अंग ही शरीर से विलग करके, स्त्रीत्व विहीन कर दिया गया
हो। मन से टूट चुकी थी मैं भी। लग रहा था अचानक हरे- भरे पेड़ से उसकी सारी
पत्तियाँ बेरहम मौसम के द्वारा छीन ली गई हों, परन्तु
तुम्हारे प्यार और सहयोग ने मेरी जिंदगी में फिर से बहार ला दी थी। पतझड़ के बाद
जैसे बसंत-बहार आ जाती है, वैसे ही उस दुखद स्थिति में तुम
मेरा बसंत बनकर मेरे साथ खड़े थे। अपनी सेवा के लिए मुझे कहाँ जरूरत थी बेटा- बेटी
या फिर किसी रिश्तेदार की। तुम ही मेरा सहारा थे। तुम ही मेरे नाविक, तुम ही मेरी पतवार। मैंने तो उन दुखद चंद महीनों को पलक झपकते ही बिता
दिया था। हाँ.., हाँ मालूम है, तुम
उलाहना दे रहे हो मुझे।” घर्र...घर्रर्र...करता हुआ पंखा भी जैसे कि उलाहना- सा दे
रहा था।
कमरे में थोड़ी देर को शांति पसर गई थी। वीणा अपने अंतर्मन के न
जाने किस कोने की थाह लेने चली गई थी। छोटा- सा वह कमरा ज्यादा देर शांत नहीं रह
पाया था। कमरे के दरवाज़े की ओर मुँह करके वीणा ने फिर से तेज स्वर में टेर लगाई-“बहू..!
.... बेटा..!..... अरे ओ नेहा..!” हाँक के बाद कमरे में फिर शांति व्याप्त हो गई।
पंखे की वही चिरपरिचित घर्र- घर्र की ध्वनि चुप्पी की साँकलें तोड़ती रही थी।
“देख रहे हो बहू- बेटा- बेटी कोई नहीं सुन रहा है। न जाने किस
कोपभवन में बैठे हैं सब। बहू तो अपने कमरे में धारावाहिक देख रही होगी। सास को
सताती हुई बहुओं वाले नाटक उसे बहुत भाते हैं। और नेहा..! वह गाने सुन रही है। न
सुर, न ताल आजकल के इन
गानों में, लेकिन इस युग के बच्चे उन्हें ऐसे सुनते हैं जैसे
कि कोई शास्त्रीय संगीत सुन रहे हों। देखो तो स्पीकर की आवाज कितनी तेज कर रखी है
उसने, यहाँ तक सुनाई पड़ रही है।” पति की तस्वीर से शिकायत
करते हुए उसका मुँह उस समय किसी बच्चे द्वारा बेली गई रोटी- सा हो गया था, बिलकुल टेढ़ा- मेढ़ा।
“तुमने सच ही कहा था, अभी मुझे लकवा मारे दस दिन भी नहीं बीता है, बच्चों के रंग- ढंग दिखने लगे हैं। अभी तक तो मैं अस्पताल में थी, इसलिए ज्यादा एहसास नहीं कर पाई थी। कल जब से आई हूँ घर पर, लगता है सच में बेटे- बहू मुझे कोने में धकेलकर चैन की साँस ले रहे हैं।” वीणा की आँखों से फिर से दो बूँद आँसू ढुलक गए। ‘तुम भूल रही हो, उन लोगों ने तुम्हें नहीं धकेला। तुम खुद..!’ तस्वीर के बोलते ही वीणा चीखी- सी थी, “हाँ, हाँ मानती हूँ मैं। बच्चों के प्यार में अंधे होकर जीवन में ऐसे कई निर्णय होते हैं, जो माँ- बाप लेने में गलती कर देते हैं। मैंने भी किया, लेकिन... छोड़ो, तुम नहीं समझोगे..!” घर्र- घर्र का चिरपरिचित स्वर सन्नाटे को बाधित करने के लिए जैसे प्रतिबद्ध था।
पति की तस्वीर जैसे कि पास आकर खड़ी हो गई थी। तस्वीर बोल रही
थी- ‘मेरे गुस्से को तो सिलसिलेवार याद कर लिया, जरा मेरा प्यार भी याद कर लो बुढ़िया!’
“हाँ, हाँ क्यों नहीं,
क्यों नहीं, याद करके बताऊँगी उसे भी, क्यों अधीर हुए जाते हो। पता है मुझे, मेरे मुख से
तुम अपनी प्रशंसा मात्र सुनना चाहते हो। तुम्हारे प्यार को तो मेरा रोम- रोम याद
करता है। ऐसा कोई पल बीता क्या, जिसमें मैंने तुम्हें याद न
किया हो, भला बताओ तो जरा! वहाँ खाली बैठे- बैठे मुझपर ही तो
तुम्हारे मन की नजरें टिकी होंगी! या खुली आँखों से किसी और को ताड़ते रहते हो,
बताओ तो!” कहकर हँसने लगी वीणा।
जीवन में जो छोटे- मोटे दुख आते हैं वह आपको दुखी करने नहीं, बल्कि रिश्तों के
रेनोवेशन करने के लिए आते हैं। जैसे खूबसूरत से खूबसूरत घर को एक समय बाद लिपाई-
पुताई चाहिए होता है उसे और बेहतर बनाने के लिए, उसी तरह
रिश्तों को ताजातरीन करने के लिए उसे पॉलिश चाहिए होता है, जो
एक दूसरे के आत्मीय लगाव के कारण ही हो पाता है। सुखमय जीवन में क्षणिक दुख आकर बस
यही पॉलिश का काम करता है। जिससे रिश्तों में नया निखार आ जाता है। वीणा को भी बस
उसी पॉलिश का इन्तजार था।
उसे फिर से बाथरूम जाने की जरूरत तेजी से महसूस हुई। बोझिल दुखी मन लिए वह फिर से बेटी- बहू को पुकारने लगी। आवाज़ उसके कमरे से तो जा रही थी, परन्तु उन दोनों के स्वर के साथ वापस नहीं हो रही थी। उसकी निगाहें फिर तस्वीर पर टिक (स्थिर दृष्टि, अनिमेष दृष्टि) गईं। “जानती हूँ तुम कह रहे हो कि ‘शेरनी की तरह दहाड़ती थी। सब तुम्हारे डर के कारण एक आवाज में ही हाथ बाँधे खड़े हो जाते थे तुम्हारे सामने।’ समय कितना जल्दी बदल जाता है। आदमी को उसके जीवनकाल में ही उसके जीवन के कई रूप- रंग दिखाई पड़ जाते हैं।” घर्र... घर्रर्र... थोड़ी देर तक सन्नाटे में खलल डाल रहे पंखे को वीणा अपलक निहारती रही।
“शादी के बाद प्रीतिभोज के दिन जाने से पहले शैंपू निकालकर मैं
बाथरूम की ओर बढ़ी ही थी कि तुम प्यार से डपटकर बोले थे ‘नीचे नहीं बैठना। रुको मैं
आता हूँ!’ कहकर आ गए थे बाथरूम में। बच्चे की तरह तुमने नहलाया था मुझे। उस समय
मुझे तुममें अपना पति नहीं, पिता दिखाई दे रहा था। मेरी देखभाल उन दिनों ऐसे कर रहे थे, जैसे कोई पंसारी पान के पत्ते की करता है। फिर से मुस्कुरा रहे हो ना! सोच
रहे हो कि इतने सालों बाद आज भी कैसे याद है सब! क्यों न याद रहे भला! जब तुम्हारी
डाँट याद है तो फिर प्यार क्योंकर नहीं याद रहे। वैसे भी तुम जानते ही हो, औरतों की याददाश्त इन मामलों में बेहद तीक्ष्ण होती है।” खिलती कली-सी
मुस्कान की गमक कमरे को भर गई थी।
वीणा को लगा,
उसके साथ उसके पति श्याम की तस्वीर भी भावुकता से भर उठी है। वह
तस्वीर को निहारते हुए बोली, “इस तस्वीर में कितना गाल फुला
लिये हो! ऐसा लग रहा है, जैसे किसी पर गुस्सा होने के बाद
फोटो खिंचवाने बैठ गए थे। थोड़ा हँस भी लिया करो या फिर तुम्हें सिर्फ मुझ पर ही
हँसना आता है” अतीत के गलियारों में घूमते हुए उसे अचानक फिर याद आया कि उसे
बाथरूम जाना था। उसने बेटी को फिर से पुकारा- “नेहा..! अरी ओ नेहा...!”
थोड़ी देर चुप्पी ओढ़कर कमरे का जायजा लेते हुए नेहा द्वारा बनाई
गई पेंटिंग पर जाकर निगाह ठहर गई। चुप्पी तोड़ते हुए कहने लगी, “कितनी मन्नतें माँगी
थीं न मैंने कि बेटी हो। शोभित के बार ही चाहा था कि बेटी हो जाए लेकिन...। ‘लड़का
हुआ है’ कहकर जब हर्षातिरेक में नर्स ने आकर मुझसे इनाम में हजार रुपये की माँग की
थी तो लड़का सुनकर ही मेरा चेहरा लटक गया था। बस रोई ही भर नहीं थी लेकिन दुख रोने
जितना ही हुआ था। जबकि अम्मा कितनी खुश थीं कि उनकी तीसरी पीढ़ी में पहली बार पहली
सन्तान रूप में बेटा हुआ है। अस्पताल में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं बचा था, जिसे उन्होंने मिठाई नहीं खिलाई हो, यह कहकर कि आज
मैं दादी बनी हूँ वह भी पोते की। तुम भी तो कितने खुश थे न उस दिन। लग रहा था,
जैसे तुम्हारी भी कोई दबी हुई इच्छा पूरी हो गई हो। बाबूजी ने पंडित
बुलाकर मुहूर्त्त जानना चाहा था। मूल नक्षत्र में जन्म पता चलते ही मायूस हुए थे
सब। तुम्हें बच्चे को देखने की अट्ठाईस दिनों की मनाही हो गई थी। कितनी शिद्दत से
उस नियम का पालन किया था तुमने, याद है ना! दस दिन बीतने पर
जब तुम कमरे में आए थे तो उस समय मैं शोभित का चेहरा ढक नहीं पाई थी, कितना नाराज हुए थे। तभी जाना था मैंने कि तुम रीति- रिवाजों के सख्त
अनुयायी हो। गलती से भी मेरी ऐसी कोई गलती कभी कहाँ माफ करते थे तुम। समय का चक्र
देखो, जब आयुष का जन्म होने वाला हुआ तो भगवान ने मेरी गोद
से शोभित को छीन लिया। पंखा घर्र- घर्र करता हुआ उसके दुःख में सहभागी हो लिया था।
आयुष के जन्म का बड़ी बेसब्री से इन्तजार था तुम्हारे अम्मा-
बाबू को। आयुष के जन्म लेने पर सब खुश थे। खुशी को किसी की नजर न लग जाए, इस डर से इस बार
अस्पताल में मिठाइयाँ बाँटने से तुम्हारी बहन को मना करवा दिया था उन्होंने और खुद
अम्मा ने भी गाँव में मिठाइयाँ नहीं बँटवाई थीं। उनकी खुशियों को उन्हीं की नजर न
लग जाए, इसके कारण वह शहर आई भी नहीं थीं उस दफा। अस्पताल से
छुट्टी मिली तो किराए के मकान में जहाँ रहते थे, उसी में आ
गए थे हम सब। डॉक्टरों ने खास सावधानी बरतने की हिदायत दी थी, इसलिए गाँव नहीं जा पाए थे।
आपकी बहन,
जो महीने भर से साथ ही रह रही थीं, महीने भर
के लिए और रुक गई थीं वह। छठे दिन काजल लगाने की रस्म और बारहवें दिन सौर से निकल
शुद्ध होने की रस्म वहीं बीती थी आयुष की।
रोज चार- पाँच बार मालिश करना। समय से नहलाना, दवा देना सब
जिम्मेदारी निभाती थी मैं। मेरा खुद का भी कोई अस्तित्व है यह तो भूल ही चुकी थी
मैं, बच्चे को पालने- पोसने में।
सुबह से शाम और शाम से सुबह सूरज- चाँद-सी क्रियाशील रहती थी।
अपने लिए नहीं, सिर्फ
और सिर्फ बच्चे की देखभाल के लिए। उसकी मालिश करके उसको जब फ्रॉक पहना देती थी,
तो तुम्हारी बहन मुझ पर खूब गुस्सा होती थी। ‘बेटा हो गया है न,
इसलिए बेटी का शौक पाल रही हो। बेटी हो जाती तो खून के आँसू रोती’।
‘न जिज्जी मैं तो नहीं रोती’ कहते ही भड़क जाती थीं, जैसे
सुलगती हुई लकड़ी में कोई पूरी साँस भरकर फूँक मार दिया हो। ‘जिनकी लड़की ही लड़की
हुई हैं, उनसे जाकर पूछो, फिर पता
चलेगा। उनकी कदर न घर में होती है, न पति की नजरों में।
भगवान का शुक्र मनाओ कि भगवान ने दूसरी बार भी गोद में बेटा डाल दिया’। प्रतिदिन
ही तुम्हारी बहन ऐसी दो- चार डोज मुझे दे ही देती थीं और मैं उनकी बातों को एक कान
से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती थी। आयुष को लड़कियों के
कपड़े पहनाकर इतराती रहती थी। कितना लाड़ से पाला था आयुष को सब घर वालों ने मिलकर।
चोट खाए दिल थे, इसलिए भी आयुष को क्षणभर भी रोने नहीं दिया
जाता था। कभी दादा, कभी दादी, कभी बुआ
तो कभी आपके हाथों के पालने में ही झूलता रहता था आयुष” खों... खों...! “मुझसे अब
तो ज्यादा देर तक बोला भी नहीं जाता।” वीणा ने बगल में रखे भरे गिलास से दो घूँट
पानी पीकर अपने गले को तर किया। घर्र...
घर्रर्र... करता पंखा अपनी अलग ही तान छेड़े हुए था।
“मेरी तो गोद में पहुँच ही नहीं पाता था आयुष, किन्तु जब तक एक बार
मैं उसे गले से लगाकर हीकभर प्यार नहीं कर लेती, चैन नहीं
पड़ता था मुझे। वह भी जब तक मेरे गले न लग ले, उसके दिन की
शुरुआत नहीं होती थी। जबकि समय के साथ बढ़ते- बढ़ते वह छब्बीस साल का हो चुका था
लेकिन उसकी यह आदत नहीं छूटी थी। तुम कैसे जब- तब उसको फटकार देते थे कि अब बड़े हो
गए हो, अब तो माँ की गोदी में सिर रखना छोड़ो। कल को तुम्हारी
शादी भी हो जाएगी, तब तक क्या ऐसे ही करते रहोगे। ‘पापा!
मेरी मम्मी, दुनिया की सबसे प्यारी मम्मी है। मेरी शादी भले
हो जाए पर मम्मी की अहमियत थोड़ी कम हो जाएगी’, लेकिन
आज...शादी के दो साल में ही..!” अनायास ही आँखों से आँसू पके महुवे- से टपकने लगे
थे। घर्र... घर्रर्र... की धुन निकालता हुआ पंखा भी कमरे में सरगर्मी बनाए हुए था।
पति के चित्र को देखती हुई वह पुनः बुदबुदाई- “बरही के दिन सौर
से निकलने की रस्म थी। दिसम्बर माह की कड़कती ठंड में आयुष को नहलाकर सूप में
लिटाने की रस्म! हाँ, हाँ! कैसे साँस भरकर रोया था वह। लग रहा था सूप में नहीं, बल्कि उसे किसी तालाब के कगार पर लिटा दिया गया हो। वह सूप से लुढ़क- लुढ़क
जा रहा था।” याद करते- करते वीणा पलंग से उतरने की कोशिश में जमीन पर गिर पड़ी।
उसका वॉकर थोड़ी दूर पर रखा था। घिसकते हुए वह उस तक पहुँचने की कोशिश करने लगी।
तभी दो चिर- परिचित हाथों ने उसे सहारा दिया। चेहरा देखते ही बच्चों- सी बिलख पड़ी।
घड़ी भर बाद सिसकते हुए वीणा ने रुँधे स्वर में कहा- “तुम ठीक कहते थे।”
सम्पर्कः फ़्लैट नंबर- 302,
हिल हॉउस, खंदारी अपार्टमेंट, खंदारी,आगरा- 282-002, मो.
09411418621, ईमेल- 2012.savita.mishra@gmail.com
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