नदियाँ बहती जा रही
थीं। लोगों के पाप धोते जा रही थीं। कोई कूड़ा-करकट फेंकता तब भी वह निश्छल भाव से
उसे स्वीकार करते जा रही थीं पर मन में एक बात उसे सालती जा रही थी कि वर्षों से
मानव जाति में दो बहनों के बीच आना-जाना,
एक-दूसरे से मिलना कितना स्वाभाविक है। काश! मैं भी अपनी नदी बहनों
से मिल पाती। पूछती, क्या वह मजे में तो है या फिर उसे उसकी
ही तरह मानव जाति का दंश झेलना पड़ रहा है। आखिर वह अपने मन का बोझ जो हल्का करना
चाहती थी।
क्यों ना चाहे ?
हर मानव एक-दूसरे से मिलने के लिए स्वच्छंद है। घूमने-फिरने की
आजादी जो मिली है। जब कभी भी उसका मन किया वह अपने दुख-दर्द अपने सगे भाई-बहनों से
मिलकर बांट आता है। पर मैं तो चाहकर भी पास या दूर बसी अपनी बहनों से मिल नहीं
पाती हूँ। मुझे चिकनी-चुपड़ी बनाने के लिए कानून भी आगे आ जाता है पर एक-दूसरे से
मिलने की बात हो तो अपनी ही जगह कैद रहो। आखिर कब तक? कोई
सोचे। देश आजाद है। पक्षी आजाद हैं। मैं भी आजाद हूँ पर जब कभी भी अपनी बहनों से
मिलने की सोचती हूं आगे बड़े-बड़े पहाड़़, ऊँची-ऊँची
भू-आकृतियाँ इसके आड़े आ जाती हैं। मैं चाहकर भी अपनी बहनों से और ना ही मेरी बहनें
चाहकर भी मुझसे मिल पाती है। तुम्ही बताओ, यह कैसा न्याय है?
भले मैं अपनी दूरदराज बहनों से न मिल पाऊँ मगर गुस्से में
तूफान खड़ा कर अगल-बगल में रह रही बहनों से तो जब चाहूँ मिल ही लेती हूँ। बस अफसोस
यही होता है कि मेरे तूफान खड़ा करने से अगल-बगल के सारे लोगों को कष्ट पहुँचता है।
उनका दोष न भी हो तो गुस्से में मैं अच्छे-बुरे लोगों में तब भेद नहीं कर पाती
हूँ। करूँ भी क्यों, अच्छे-बुरे सभी तो मेरी पनाह लेते हैं। तब भी तो मैं उनमें भेद नहीं करती
हूँ। भेद-विभेद तो सर्वदा मेरे साथ होते आया है। राजनेता भी संसद के सत्र वर्ष भर
में दो बार बुला ही लेते हैं, एक-दूसरे से मिलने के लिए। फिर
मैं क्यों एकांकी जीवन बिताऊँ? मानव जाति को तो देखो। एक
दूसरे से मिलने के लिए सारे पर्वों का सहारा ले लिया करते हैं-ईद मिलन, होली मिलन, रक्षा बंधन में भाई-बहन का मिलन
वगैरह-वगैरह। बरसात के समय में अगर दूरदराज में वर्षों से अकेली पड़ी नदी-बहन से
मिलना भी चाहूँ तो यह मानव जाति मेरे रास्ते को मेरी बहनों की तरफ मोड़ते नहीं
बल्कि सामने इतना बड़ा तटबंध बना देते हैं कि मैं बेबस हो जाती हूँ। बेबस होकर
धीरे-धीरे लाचार हो वापस लौट आती हूँ। फिर वही दिनचर्या।अब बहुत हो गया।अब तो
मैं ‘नदियों का संघ’ बना कर ही रहूँगी। संघ बनाना भी तो मैंने मानव जाति से ही
सीखा है। अपनी अपेक्षाएँ पूरी करनी हो तो वे सदा ही संघ का सहारा लेते हैं। संघ
में शक्ति है। सरकारी सेवकों को वेतन बढ़ाना हो, सुविधाएँ
बढ़वानी हों तो हड़़ताल पर चले जाते हैं। सारा कामकाज ठप्प कर देते हैं। सरकारी
मशीनरी इस तरह बैठ जाती है मानो डीजल तो है, पर मशीन चलाने
वाली पट्टी ही पटरी से उतर गई हो। अब तो वे कदम-कदम पर हड़ताल की धमकी और सही मायने
में हड़़ताल पर चले भी जाने लगे हैं। मैं उनकी रेस में हूँ; पर
उनसे आगे नहीं निकल पाई हूँ। वे तो हड़़ताल पर जाकर अपनी बात लगभग मनवा भी लेते हैं;
परंतु मैं हड़ताल पर जाती भी हूँ, कहने का मतलब
सूख भी जाती हूँ ,तो वे नदी-नाले खुदवाने के नाम पर योजनाओं
के आश्वासनों की बाढ़़ कर देते हैं। जीव-जन्तुओं की नाजुक हालत को देख मुझे ही दया
आने लगती है पुनः अच्छे सरकारी मुलाजिमों की तरह काम पर वापस आ जाती हूँ। चारों
तरफ मैं ही मैं लोगों को नजर आने लगती हूँ।
"जोड़ सके न वे
अब तक नदियों को नदियों से,
क्यों सुनती रहूँ निरा भाषण नेताओं के सदियों से"
वैसे मैं कुछ करने से पहले मानव जाति को अंतिम अवसर देना चाहती
हूँ। अभी भी वक्त है। एक बार वे जोड़कर तो देखें। एक बार तो मेरी बहनों से मिलाकर
तो देखें। फिर मैं दुबारा मिलने की जिद्द
नहीं करूँगी। फिर तो मैं जहाँ पहूँचूँगी वहीं रहूँगी। उन्हें यकीन हो या ना हो पर
मुझे तो पूरा यकीन है। एक बार मैं बहनों से मिल लूँ, तो मुझे वापस जाने नहीं कहेगी। सब एक साथ
मिलकर रहने लगूँगी। फिर न तो मेरी हड़ताल
देश में सूखा लाएगी, न ही कोई सूखा के चलते भूखा ही रहेगा।
धरती सूखी नहीं, सुखी होगी, वर्ना मुझे
भी जलजला पैदा करना आता है। मेरे थोड़े गुस्से से कैसे सब कुछ उलट-पुलट हो जाता है।
इतना होने पर भी दाद देनी होगी इस मानव जाति को। कितनी ढीठ है!
रचनाकार के बारे में- प्रकाशित पुस्तक - नक्सलियों को मुख्यधारा में जोड़ने को लेकर काव्य- संग्रह ‘पुकार’, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, सोच विचार, दृष्टिपात, प्रेरणा- अंशु आदि में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित। हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, सन्मार्ग, आवाज, इंडियन पंच, जनज्वार, जनमोर्चा, ककसाड़ आदि में आलेखों का प्रकाशन। सम्पर्कः सहायक सांख्यिकी पदाधिकारी, जिला सांख्यिकी कार्यालय, गिरिडीह, झारखंड -815301 मो नं 9113150917
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