एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी की पत्नी होने के नाते मुझ पर बहुत से
दायित्व थे। युद्धरत सैनिकों के परिवारों का मनोबल बनाये रखने के लिए विभिन्न
कार्यक्रमों का आयोजन करना, कम पढ़ी -लिखी सैनिक पत्नियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए
प्रेरित,करना, सैनिक परिवार कल्याण
केन्द्रों में उनके लिए घरेलू लघु उद्योग के संसाधन जुटाना आदि-आदि। सैनिक परिवार
समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है, चाहे इन
परिवारों को शहरों से थोड़ा दूर सैनिक छावनियों में रहना पड़ता है। जिस प्रकार एक
सैनिक अपने देश की रक्षा के लिए सदैव
तत्पर रहता है, वैसे ही हर सैनिक पत्नी का भी अपने देश और
समाज के प्रति उतना ही उत्तरदायित्व होता
है। जिसे वह बड़ी सहजता से निभाती हैं।
वर्ष 1997 से लेकर वर्ष 1999 तक मैं अपने सैनिक परिवार के साथ
पंजाब राज्य में स्थित फिरोजपुर छावनी में रहती थी। भारत-पाक सीमा से सटे हुए इस
छोटे से ऐतिहासिक नगर के कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों द्वारा वर्षों से स्थापित अनाथालय, अंध विद्यालय,
और कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए बने ‘आनन्द धाम’ में सेवाएँ दी जा
रही थी। नगर से कुछ ही दूर एक गाँव में मदर टेरेसा द्वारा स्थापित संस्था ‘निर्मल
ह्रदय’ में भी स्वयं सेवकों द्वारा सेवा- सुश्रूषा का कार्य किया जाता था। छावनी
के सैनिक परिवार कल्याण केंद्र द्वारा भी समय-समय पर इन केन्द्रों में यथा योग्य
सहायता-सेवा की जाती थी। छावनी के प्रमुख अधिकारी की पत्नी होने के नाते मैंने भी
अन्य सैनिक अधिकारियों की पत्नियों के साथ इन सेवा केन्द्रों में अपनी सेवाएँ देने
का मन बना लिया।
सच कहूँ तो उस दिन से पहले मैंने हरिद्वार में कुष्ठरोगियों को मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे हुए भिक्षा माँगते हुए ही देखा था और वह भी बचपन में। उनके हाथों-पैरों में पट्टियाँ बँधी देखकर नन्हा- सा मन पसीज गया था। माँ सुनाती है कि मैंने अपने खिलौनों के लिए बचाए हुए सारे पैसे उन लोगों में ही बाँट दिए थे। उसके बाद शायद कभी किसी रेलवे स्टेशन पर ही कुष्ठ रोगियों को देखा होगा। आम मेले-बाज़ारों में कभी नहीं। जाने का निर्णय लेने के बाद कई प्रकार के भाव-अनुभाव मेरे मन में उमड़ रहे थे।
हम सब सैनिक पत्नियों ने तय किया कि हम दिवाली की सुबह ‘आनन्द धाम’के निवासियों के साथ बिताएँगे। हमने खूब सा स्वादिष्ट भोजन तैयार करवाया, बहुत से मौसमी फल, मेवे आदि टोकरियों में सजाए। भोजन और फलों के साथ उपहारों का होना भी ज़रूरी था। हमने कुछ सूती साड़ियाँ, ऊनी शाल और कमीजें और बच्चों के लिए खिलौने भी उपहारों के डिब्बों में बंद करवा लिये।
उस दिन आनन्द धाम में रहने वाले परिवारों से मिलने की उत्सुकता
भी थी और अन्दर से एक भय भी सता रहा था कि न जाने उन्हें किस परिस्थिति में देखेंगे? क्या हम उन्हें छू
पाएँगे? क्या हम उनके साथ मिलकर भोजन कर पायेंगे? जल्दी ही हमारे साथ जाने वाले स्वास्थ्य कर्मियों ने हमारे भय और आशंका को
दूर कर दिया। उन्होंने हमें बताया कि कुष्ठरोग संक्रामक रोग नहीं है और न ही यह
ईश्वरीय प्रकोप है। इन लोगों से हम पूरे
खुले दिल से जैसा चाहे सम्पर्क कर सकते हैं। सुनकर हमारी बचपन की भ्रांतियाँ दूर
हो गईं थी।
आनन्द धाम को दिवाली के शुभ अवसर पर सजाया गया था। एक खुले पंडाल में वहाँ के निवासी अपने परिवार
सहित बैठे हुए थे। जैसे ही मैंने वहाँ प्रवेश किया, दो प्यारे
से बच्चों ने पुष्पगुच्छ से हमारा स्वागत किया। पंडाल में सभी लोग ज़मीन पर बिछी
दरियों पर बैठे हुए थे। बहुत सी महिलाओं और पुरुषों के पैरों और हाथों की अँगुलियों पर पट्टियाँ
बँधी हुई थीं। एक-दो वृद्ध लोगों की आँख पर भी पट्टी थी। लेकिन उनकी स्थिति इतनी दयनीय
नहीं लग रही थी, जितनी मुझे आशंका थी। उनका इलाज चल रहा था,
इसलिए वह किसी दर्द या पीड़ा से कराह नहीं रहे थे।
हमने उन्हें अपने लाये हुए उपहार भेंट किये। बच्चे तो उसी समय अपने खिलौने देख कर उनसे खेलने लगे। महिलायों ने खुशी से नये शाल ओढ़ लिये। मैंने हर पंक्ति में जाकर उनसे बातचीत करनी शुरू की। खुशी हुई यह जान कर कि इनका इलाज सुचारू रूप से चल रहा था और स्थानीय स्वास्थ्य विभाग इनकी देख भाल कर रहा था ।सब से बड़ी आश्वासन की बात यह थी कि इनके बच्चे इस रोग से संक्रमित नहीं थे और न ही होंगे।
आनन्द धाम में बैठे हों और कुछ आनन्द का वातावरण न हो, यह कैसे हो सकता था।
हमने उनसे ही पूछा कि उनमें से कौन गा सकता है, कौन- सा
बच्चा नृत्य कर सकता है। हॉल में बैठे बहुत से लोगों के पट्टियाँ बँधे ऊँचे हाथ
देख -देखकर बहुत सांत्वना हुई कि यह सब
आमोद-प्रमोद के लिए पूरी तरह से तैयार थे। और फिर शुरू हो गया गाने-बजाने का
सिलसिला। आनन-फानन में ढोलक आ गई, मंजीरे बजने लगे और सारा पंडाल भजनों के पावन स्वरों से
गूँज उठा। कुछ कुशल गायकों ने महात्मा
गांधी का प्रिय भजन ‘ वैष्णव जन तो तैने कहिये जो पीर पराई जाने रे’ इतने मधुर
स्वरों में गाया कि पूरा वातावरण भक्तिरस में डूब गया। आनन्द से गाते-बजाते इन
रोगियों को देख कर मैंने महसूस किया कि रोग तो इनके शरीर के बाह्य अंगों में है,
इन्हें शायद पीड़ा भी है। किन्तु इनके मन तो पूर्णतया स्वस्थ हैं। ये
लोग जीवन को अपने ढंग से जीने और परिस्थितियों से जूझने की कला में पारंगत हैं। ये
तो हमारे जैसे हैं और शायद हम से अधिक साहस और हिम्मत वाले। ये दया नहीं चाहते हैं
केवल उपचार चाहते हैं और समाज में उचित स्थान।
मैंने उनके साथ मिल कर बहुत से भजन गाये। हँसी-मज़ाक के दौर में
मैंने लाल चूड़ियाँ पहने हुए एक युवा लड़की से पूछा कि क्या
उसका विवाह हो गया है? तो उसने बहुत शरमाते हुए सर हिला दिया। उसके आस -पास बैठी स्त्रियों ने
मुझे उसके युवा पति से भी परिचित कराया। मेरे मन के उस प्रश्न का उत्तर भी मुझे मिल गया कि कुष्ठरोगी
भी सामान्य जीवन बिता सकते हैं।
अब हमारी बारी थी बच्चों के साथ समय बिताने की। हमने उनसे कुछ
बाल गीत सुने, कुछ
चित्रकारी की । दो बच्चों ने रावण और हनुमान बन कर रामलीला का एक अंश भी मंचन करके
दिखाया। उन बच्चों की प्रतिभा को देखकर मैंने उसी समय निर्णय लिया कि स्थानीय
लोगों से मिलकर इनके लिए शिक्षा की अधिक से अधिक सुविधाएँ उपलब्ध कराने के क्षेत्र
में हमें बहुत लग्न से काम करने की आवश्यकता है।
हमारे साथ आये सेवा
कर्मियों ने तब तक भोजन का बंदोबस्त कर दिया थ। साथ ही बगीचे में लगे शामियाने में
लगी मेजों पर रखे गए भोजन को हम सबने मिलकर खाया। उस दिन हम मिठाइयाँ तो नहीं बाँट
पाए; क्योंकि स्वास्थ्य और
चिकित्सा को ध्यान में रखते हुए ‘आनन्द
धाम’ में मिठाइयाँ ले जाना वर्जित था। अच्छा
ही हुआ ; क्योंकि
हम सब ने मौसमी फलों का जी भर आनन्द उठाया। भी। उस दिन घर लौटते समय
आत्मग्लानि के भाव ने मुझे अन्दर से घेर लिया था कि मैं इससे पहले इनसे मिलने ;
क्यों नहीं आई । शायद मेरे बचपन का भय अभी तक मेरे साथ था। दुःख की बात यह थी कि मेरी तरह बहुत से लोगों
को शायद इस बात का ज्ञान ही नहीं होगा कि कुष्ठ रोग संक्रामक नहीं है और इसका
उपचार हो सकता है ।
इसके बाद तो आनन्द धाम में जाने का सिलसिला चलता रहा| कोई भी दिन त्योहार
हो या वैसे भी कभी स्वास्थ्य कर्मियों के साथ उनकी सेवा सुश्रूषा के लिए चली जाती
थी| वे सब भी अपने सुख-दुःख मेरे साथ बाँटने में झिझकते नहीं
थे| लेकिन दो वर्ष के बाद सेना के नियमों के अनुसार मेरे पति
का भी स्थानान्तरण हो गया| फिरोजपुर छोड़ने से कुछ दिन पहले
मैं एक बार पुन: आनन्द धाम गई|
विदा के पल सदैव ही भावुक करने वाले होते हैं। मैं हैरान थी कि
मैंने आनन्द धाम के वासियों के साथ कुछ दिन ही तो बिताए थे। लेकिन जाते समय जितना
वो लोग रो रहे थे, उतना ही मैं भी। मैं कार में बैठ
रही थी तो आनन्द धाम का प्रांगण ‘भारत माता की जय’,’ महात्मा
गांधी की जय’ के नारों से गूँज उठा। भावुक
होकर बहुत से बच्चों और महिलाओं ने हमारी गाड़ी को रोककर रखा। वे मुझे जाने ही नहीं दे रहे थे। शायद उन्हें इस बात का पता
चल गया था कि मेरे पति का स्थानान्तरण हो गया था
और यह हमारी आखिरी मुलाक़ात थी| उनके पट्टियाँ बंधे
हाथ नमस्कार की मुद्रा में मुझे विदा कर रहे थे। ‘भारत माता की जय’ के नारों के
बीच अब ‘शशि माँ की जय’ जैसे स्नेह और
अपनत्व के उद्गार भी जुड़ गे। उनके स्नेह ने मुझे भीतर तक भिगो दिया। मैंने अपनी भावनाओं
को आँखों के कोरों में बाँध दिया, बहने नहीं दिया।
मैं इनकी जिजीविषा की उदात्त भावना के आगे नतमस्तक थी। अंतिम
बार आनन्द धाम के प्रवेश द्वार से निकलते हुए मैंने उस अदृश्य, सर्वशक्तिमान प्रभु
से मन ही मन प्रार्थना की-
हे प्रभु! सारा संसार इस रोग से मुक्त हो जाये और जिनसे मैं
मिल कर आई हूँ, वे
सब पूर्णतया स्वस्थ हो जाएँ।
मैं जानती थी कि प्रार्थनाओं में बहुत बल होता है।
Email: shashipadha@gmail.com, Add: 10804, Sunset Hills, Reston, VA, 20190, USA
2 comments:
आपका सेवा के प्रति समर्पण एवं योगदान अद्भुत है। हार्दिक बधाई सहित सादर
स्नेहसिक्त एवं भावुक करने वाला संस्मरण।सैनिकों का परिवार भी देश सेवा में तत्पर रहता है, यह शेष समाज को जानना आवश्यक है।
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