- डॉ. रत्ना वर्मा
हम जैसे- जैसे आधुनिकता
की ओर बढ़ रहे हैं, तरक्की के रास्ते पर चल रहे हैं
वैसे- वैसे अपने संस्कार, अपनी धरोहर खोते चले जा रहे हैं।
अपने आस- पास के परिवेश को स्वच्छ रखने के संस्कार हमें बचपन से ही मिल जाते हैं।
पहले परिवार फिर स्कूल और उसके बाद अन्य सामाजिक क्षेत्र। बचपन से मिले संस्कार
हमारी वह धरोहर हैं, जो पीढ़ी -दर- पीढ़ी हमारे साथ चलती
रहती है; परंतु अफसोस इस धरोहर को हम सँजो नहीं पा रहे हैं।
इसके लिए जिम्मेदार
किसे मानें ? बदलाव प्रकृति का नियम है; पर बदलाव जब अच्छे के लिए होता है, तभी खुशी मिलती है। आज मनुष्य स्वार्थी होते चला जा रहा है। वह
अच्छे के लिए बदलना ही नहीं चाहता। वह अपने घर को तो साफ- सुथरा रखना चाहता है;
पर जैसे ही वह अपने घर से बाहर निकलता है, उसे
अपने आसपास की बिल्कुल परवाह नहीं होती। वह अपनी गली- मोहल्ले में और सड़कों पर
फैली गंदगी को देखकर गुस्सा तो होता है, पर सरकार को,
व्यवस्था को कोसते हुए यह कहते हुए आगे बढ़ जाता है कि लोगों ने
कितनी गंध मचा रखी है। इस गंदगी को कैसे दूर करना चाहिए या इस समस्या का निदान किस
तरह किया जा सकता है, इस पर विचार करने की जहमत कोई नहीं
उठाना चाहता। उलटे यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लेता है कि सड़क को साफ करना मेरी
जिम्मेदारी नहीं है, मेरी अपनी समस्याएँ कम हैं क्या कि मैं
दुनिया भर की मुसीबतों को पालूँ।
इस मामले में हमें
जापानियों से सीख लेनी चाहिए; क्योंकि जापानियों की साफ-सफाई और कई अच्छी आदतें उन्हें बाकी दुनिया से
अलग बनाती है। जापान के स्कूलों में स्वच्छता अन्य विषयों की तरह पाठ्यक्रम में
शामिल होता है। वहाँ प्राथमिक से लेकर हाई स्कूल तक 12 साल के स्कूली जीवन में
प्रतिदिन सफाई का समय शामिल होता है। पढ़ाई खत्म होते ही उन्हें पूरा स्कूल साफ
करके जाना होता है। सभी बच्चों को शिक्षक सफाई की जिम्मेदारी बाँटते हैं । जैसे-
पहली और दूसरी पंक्ति में बैठने वाले बच्चे कक्षा साफ करेंगे। तीसरी और चौथी
पंक्ति गलियारे और सीढ़ियाँ साफ करेंगे। पाँचवीं पंक्ति टॉयलेट साफ करेगी। इतना ही
नहीं, वहाँ के बच्चे
प्रति माह सामुदायिक सफाई के लिए भी निकलते हैं और अपने स्कूल के पास की
सड़कों से कूड़ा उठाते हैं।
जाहिर है स्कूली
पाठ्यक्रम में स्वच्छता को शामिल करने से बच्चों में जागरूकता और अपने परिवेश के
प्रति गर्व की भावना विकसित हो जाती है। आप ही सोचिए, जिस स्कूल को उन्होंने खुद साफ किया है, उसे भला कौन
गंदा करना चाहेगा? बचपन में मिली इसी शिक्षा का नतीजा है कि जब वे बड़े होते हैं, तो वे न सिर्फ अपने आसपास के परिवेश को स्वच्छ रखते हैं; बल्कि अपने शहर और अपने देश को
स्वच्छ रखना अपना कर्तव्य समझते हैं। ऐसे संस्कारी माहौल में जिन बच्चों की परवरिश
हुई हो, उनकी अवधारणा स्कूल से निकलकर पड़ोस, शहर और फिर पूरे देश तक फैल जाती है।
इसका प्रमाण वर्ल्ड कप
फुटबॉल प्रतियोगिताओं के दौरान देखने को मिला, जब उनकी
फुटबॉल टीम ने फीफा विश्व कप में जर्मनी पर शानदार जीत दर्ज की। वहीं जापानी
फुटबॉल प्रेमी, मैच खत्म होने के बाद स्टेडियम में फैला कचरा
उठाने के लिए रुक जाते थे, जिसे देखकर पूरी दुनिया चकित रह
गई थी। इसी तरह जापान के सबसे बड़े और पुराने फूजी रॉक फेस्टिवल में संगीत के
दीवाने अपने कचरे को तब तक अपने साथ रखते हैं, जब तक उन्हें
कहीं कूड़ेदान न मिल जाए। यही नहीं जापान
की गलियाँ, सड़कें व अन्य सार्वजनिक स्थल भी बिल्कुल साफ-
सुथरे इसलिए होते हैं; क्योंकि वहाँ का प्रत्येक व्यक्ति
चाहे वह दुकानदार हो या किसी ऑफिस का कर्मचारी, वह अपनी
दिनचर्या शुरू करने से पहले अपने काम की जगह के आसपास की सड़कों को पहले साफ करता
है, उसके बाद ही काम
शुरू करता है।
चलिए, हमें इसी बात पर खुशी मनाना चाहिए कि प्रतियोगिता के बहाने ही सही देश को
स्वच्छ बनाए रखने की दिशा में कुछ तो काम शुरू हुआ है। प्रश्न तो फिर भी वहीं है कि क्या हमारी बस
इतनी ही जिम्मेदारी है कि हम प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए सफाई अभियान में
शामिल हों? इसका जवाब तो ‘नहीं’ ही होगा। हमारी भी कुछ नैतिक जिम्मेदारी बनती है। यह काम
एक दिन झाड़ू लेकर सड़क की सफाई करने से नहीं होगा। इसके लिए सबको एक होकर प्रयास
करना होगा। जापानियों की तरह प्राइमरी स्तर से ही स्वच्छता के विषय को पाठ्यक्रम
में शामिल करना होगा। सरकारी स्तर पर भी सिर्फ कागजी अभियान चलाने के बजाय धरातल
पर काम करना होगा, क्योंकि हमारे देश में आबादी का एक बहुत
बड़ा हिस्सा झुग्गी झोपड़ियों में रहता है, जिनके घरों के
आस-पास गंदी बदबूदार नालियाँ बहती हैं, वहाँ के बच्चों और
वहाँ के नागरिकों को भी स्वच्छता के बारे में जागरूक करना बहुत बड़ी जिम्मेदारी
होगी, जो एक प्रतियोगिता आयोजित करने मात्र से नहीं निभाई जा
सकती।
इसमें कोई दो मत नहीं
कि आज भारत दुनिया में सबको पछाड़कर नंबर वन के पायदान की ओर तेजी से बढ़ रहा है, तो स्वच्छता के मामले में पीछे रहकर अपनी छीछालेदर क्यों करवाएँ। क्यों न
अपने संस्कारों पर गर्व करें और उन्हें भावी पीढ़ी को सौंपते हुए देश के जिम्मेदार
और जागरूक नागरिक बनकर दुनिया को यह बता दें कि हम भारतीय हैं।
6 comments:
आदरणीया,
बिल्कुल सही विषय को छुआ आपने। विदेशियों के सर्वथा विपरीत हम बात तो बड़ी करते हैं, पर आचरण घटिया। समस्या हमारे DNA में है।
जापानी न केवल अपनी आदतों, अपितु देश प्रेम, सादगी, शुचिता के विश्व में सर्वोत्तम उदाहरण हैं।
आपके बेबाक लेखन ने एक फिर आत्म अवलोकन हेतु प्रेरित किया। सो साधुवाद।
सादर : विजय जोशी 🙏🏽
अनकही में आपने संस्कार और स्वच्छता की बात बहुत ही अच्छे तरीके से रखी है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है की चाहते तो सभी स्वच्छ भारत बनाने की लेकिन अपने हिस्से की जिम्मेदारियों से मुंह चुराते हैं और सरकारी तंत्र को दोष देते हैं। यह भी सही है की घर की सफाई सभी करते हैं लेकिन घर का कचरा दूसरे के घर के सामने फेंकने में नहीं हिचकते।
निश्चित रूप से सही और सामयिक समस्या को आपने रेखांकित किया है। मेरा आपको साधुवाद
प्रो अश्विनी केसरवानी
आदरणीया,
आपकी चिंताएं और उदहारण सटीक हैं ।
स्वच्छ रखो अपना परिवेश, जिससे स्वच्छ रहेगा देश, जब करेंगे हम सफाई, तभी स्वच्छता दिखेगी भाई,
अपने घर में साफ़ सफाई रखो, आसपास अच्छा माहौल रखो ।
इन स्लोगनों को निजी ज़िन्दगी में उतारना बहुत ज़रूरी है जिससे ये दुनिया जीवन फलने-फूलने के लिए एक स्वच्छ, शुद्ध, और स्वस्थ जगह बन जायेगी।
डॉ . दीपेंद्र कमठान
कहीं से तो शुरुआत होनी है,भले ही देर से हुई।देर आयद दुरुस्त आयद....संस्कार बनने में समय तो लगेगा।
आदरणीया
लेख पढ़ते ही मन में दबी कूड़ा विरोधी मुहीम को जैसे चेतना मिल गई। जापान देश की स्वच्छता जैसे एक अपने घर से ही नहीं मोहल्ले, समुदाय,समाज और देश से जुड़ने की प्रेरणा देती है। पर हमारी अपनी अलग ही विडंबना है हम तो सड़क पर कूड़े के ढेर के सामने खाने-पीने में भी नहीं हिचकते। अशिक्षित, बेपरवाह और बढ़ती आबादी साथ ही में जगह जगह खोमचों, रेहड़ियों पर बिकती खाद्य सामग्री गंदगी का बहुत बड़ा कारण है।
मैं चाहती हूं इस तरह के लेख अवश्य हमारे हाथों और मुंह पर ऐसी लगाम लगांएगे तभी सौंदर्य बोध की समझसे हम समझदार बनेंगे।
शुक्रिया...ऐसी स्फ़ूर्ति और सजगता के लिए।
सटीक सामाजिक समस्या को आपने अपने प्रेरणादायी आलेख में उठाया है। लोगों में जागरूकता की आवश्यकता है। आपकी अनकही हमेशा बहुत कुछ कह जाती है। हार्दिक बधाई एवं आभार। सुदर्शन रत्नाकर
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