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Aug 1, 2021

लघुकथा- जापानी गुड़िया

-डॉ. महिमा श्रीवास्तव

बचपन में वह बहुत ही शर्मीली और सुंदर थी।

नाम पूछे जाने पर भाग जाती अतः पड़ोसियों ने उसको गुड़िया कह कर पुकारना प्रारंभ कर दिया।

कॉलेज में आई तो सहपाठियों ने जापानी गुड़िया का नाम दे डाला।

उन्हीं में से एक सुदर्शन भावुक लड़के को वह बहुत भा गई।

उसे अपनाने की वह ठान बैठा। उसने अपने मन की बात भोली- भाली गुड़िया को कह डाली।

सुबह की निर्मल ओस सा प्रेम उनकी मन की बगिया को सरसाने लगा। 

किन्तु शादी-ब्याह कोई गुड्डे- गुड़िया का खेल तो था नहीं। 

उनके भाग्य में वह नहीं था, सो ना हुआ । समय का अंधड़ दोनों को  पता नहीं, कहाँ अलग-थलग दिशाओं में ले उड़ा।

       गुड़िया को ऐसा घर-बार मिला कि उसकी कविता कहानी का चमन उजाड़ हो गया। चूल्हा फूँकते- फूँकते उसका सुनहला रंग धूसर हो गया। पति पक्का वणिक व व्यापारी था। देने से अधिक लेने का ही प्रयास किया निरीह सहचरी से।

कई बार सपने में उसे लगता कि वह बहुत प्यासी है।

फिर एक कलकल बहता झरना दिखता। पास पहुँचती तो वह झरना एक परिचित आकृति में बदल जाता।

वह जन्म- जन्मातर का परिचित अपने चौड़े हाथों की अंजुली में जल भर उसे पुकार रहा होता।

नींद खुलती तो एक सर्द आह और एक नाम उसके अधरों से फिसलता- फिसलता रह जाता।

    गुड़िया अब किसी की पुरानी ब्याहता हो चली थी। कमर तक झूलते घने, घुँघराले केश- गुच्छों में चाँदी चमकने लगी थी।

        पर गोल मुख की उदास मुस्कान अब भी भुवनमोहनी थी। पता नहीं कैसे एक दिन जब वह घर में अकेली थी, द्वार पर, साँझ ढले दस्तक हुई। चौखट पर खड़े लम्बी- चौड़ी कद- काठी के अतिथि को पच्चीस वर्ष बाद भी , वह तुरंत पहचान गई।

     थोड़ा- थोड़ा बुढ़ा गई गुड़िया की बड़ी- बड़ी आँखों ने अनकही शिकायतों का नीर झर-झर बहा दिया। 

 समय, उम्र, इतने वर्षों की दूरी मानों कहीं थी ही नहीं उन दोनों के बीच। 'टाइम- मशीन' में बैठ जैसे कई वर्ष पीछे लौट गये दोनों ।

        पुराने सखा ने अपनी गुड़िया का मुख दोनों हाथों में समेटना चाहाफिर छोड़ दिया। सिर पर हाथ फेर भर्राये कंठ से कठिनाई से दो शब्द फूटे- खुश रहो।

     पाहुना अब पक्का कुछ समय का ही पाहुना था। जोगिया वस्त्र शरीर पर ना थे, पर वैराग्य पथ पर वह अग्रसर हो चुका था अपनी पत्नी के देहावसान पश्चात।

           मोहमाया उसके लिए अब वृथा थी। फिर भी जापानी गुड़िया के असाध्य रोग के विषय में सुन उसकी आँखों के कोर भीग से गये।

    अनेक वर्षों पुरानी अधूरी मुलाकात की स्मृति  विद्युत की भाँति चमक उठी।

विदा होते- होते भी गुड़िया ने पहली और अंतिम मनुहार उससे कर ही ली कि उसके दिये की लौ बुझते समय वह अवश्य आयेगा।

  अमावस्या की स्याह रजनी के घनेरे अँधियारे में एक साया फिर से विलीन हो गया।

सम्पर्कः 34/1, Circular road, near mission compound, Opposite Jhammu hotel, Ajmer, Rajasthan, Mob.  8118805670

5 comments:

Anita Manda said...

ओह
मार्मिक

VEER DOT COM said...

लघुकथा कहूँ या लघु कथा. . . जो भी हो, बेहद सुंदर और भावनात्मक स्पर्श लिए रचना है। हार्दिक बधाई महिमा जी।

Dr.Mahima Shrivastava said...

आभार अनीता जी व वीर जी

शिवजी श्रीवास्तव said...

सपनो के टूटने के बाद भी मन का एक कोना सपनों में विचरण करता है,पर अवस्था बीतने के साथ बहुत कुछ बदल जाता है...मार्मिक लघुकथा हेतु डॉ. महिमा जी को बधाई।

Sudershan Ratnakar said...

मर्मस्पर्शी लघुकथा। हार्दिक बधाई