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Nov 3, 2020

जीवन दर्शन- लक्ष्मी: क्यों न चंचला होय

- विजय जोशी

(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल , भोपाल)

शास्त्रों के अनुसार  धर्म की परिभाषा है- धारयति इति धर्मं अर्थात् जीवन में जो भी धारण करने योग्य है वही धर्म है। हम सब ने बाल्यकाल से यही तो सुना है कि सत्यं वद यानी सदा सच बोलना, प्राणिमात्र पर दया करना, किसी को धोखा न देना इत्यादि इत्यादि हमारा धर्म है। लेकिन धर्म रूपी इस साफ्टवेयर का परित्याग कर लोगों ने उसे हार्डवेयर अर्थात अनुष्ठानों, परपम्पराओं व संकीर्ण सोच के दायरे में सिमटा दिया। वस्तुत: धर्म तो एक जीवन संहिता है। सुचारु, स्वस्थ तथा सामयिक जीवन जीने की यात्रा का अचूक मंत्र। यह तो हुई एक बात।

     दूसरी यह कि धर्म कोई भी हो सब में संदेश एक ही है। सार्थक परहितकारी जीवन जीते हुए अंतत: परमात्मा से मिलन, जो एक है और परम पिता  कहलाता है। याद रखि ईश्वर एक और केवल एक है एवं जीवन यात्रा का अंतिम सोपान है। उपासना, पूजा, आराधना कैसी भी हो सकती है साकार, निराकार या अन्य कुछ पर उद्देश्य एक ही है। जहाँ अन्य धर्मों में ईश्वर की परिकल्पना हेतु सख़्त आदेश या नियमावली है, वहीं हिन्दू धर्म में इसे लचीला रखते हुए बकलम संत डोंगरेजी जीव की भिन्न भिन्न अभिरुचि के दृष्टिगत परमात्मा  अनेक स्वरूपों में प्रकट है, किन्तु जिस तरह हर प्रवाहमान नदी का गंतव्य समुद्र ही है, उसी तर्ज पर इसमें भी एको ब्रह्मो द्वितीयो नास्ति का उद्घोष किया गया है।

        तीसरी बात भारतीय दर्शन में स्त्री पुरुष के सम्मिलित स्वरूप को एक इकाई माना गया है और इस तरह प्रकृति में निरंतरता या सृजन के क्रम को सुनिश्चित किया गया है। वस्तुत: नारी प्रथम पूज्या है,  फिर भले ही वह मृत्युलोक हो या देवलोक। यही कारण है कि ज्ञान की देवी सरस्वती तो संपत्ति और अर्जन की देवी  लक्ष्मी की पूजा का प्रावधान किया गया है क्रमशः बसंत पंचमी तथा दिवाली पर।

       और अब हम आते हैं लक्ष्मी को चंचल कहे जाने की प्रथा पर, जिसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि वे विष्णुप्रिया यानी सुखकर्ता दुखहर्ता सर्व लौकेक एक नाथ विष्णु की पत्नी हैं, जिन्हें आरंभ तथा अंत अर्थात् सृजन एवं संहार  के मध्य  प्रजापालक भी कहा गया है। किन्तु देखि होता क्या है युगल यानी पति पत्नी दोनों को एक साथ आमंत्रित करने के बजाय लोग केवल लक्ष्मीजी का आह्वान कर पूजते हैं। आदि देव भगवान विष्णु को पूछते भी नहीं। सब चाहते हैं लक्ष्मी का उनके घर में स्थायी निवास हो, ताकि वे अनंत काल तक पीढ़ी- दर- पीढ़ी सम्पन्न  बने रहने की कामना की पूर्ति  कर सकें और कुछ न साझा करना पड़े। पर यह करते समय वे भूल जाते हैं कि हिन्दू मान्यताओं के अनुसार पत्नी कभी पति से विलग नहीं होती और कितनी भी श्रद्धा या समर्पण से पूजा की जाए, वे वापिस जाती हैं अपने धाम। इसका  एक कारण संभवतया कलियुग में यह भी हो सकता है कि लोगों में संग्रह का भाव प्रबल होता है और वे विष्णु को आमंत्रित कर संपत्ति की गरीब, निर्धन, असहाय जनों के साथ साझेदारी  की मानसिकता से परे रहना चाहते हैं। व्यक्ति कितना भी संपन्न क्यों न हो; पर लेनेवाले (Taker) से देनेवाला (Giver) नहीं होना चाहता। सोचि यदि लक्ष्मी का वास स्थिर होता तो क्या होताधनी तो निरंतर धनी होता चला जाता परिश्रम को परे रखते हुए। धन पर एकाधिकार से उसके मानस में अहंकार उपज जाता। गरीब के जीवन में कष्टों का अम्बार लग जाता। सामाजिक संतुलन ध्वस्त हो जाता। उन्नति, प्रगति व विकास के लि आवश्यक धन तिजोरियों मे कैद होकर रह जाता। सब ओर त्राहि- त्राहि हो जाती। सर्वनाश। 

   सो इस पवन वेला में निवेदन है कि हम सब इस वर्ष दिवाली के अवसर पर संग्रह के भाव को परे रखते हुए उसे समाज हित में साझा करने तथा पुण्य प्राप्ति हेतु तथा इस लोक के साथ ही साथ परलोक सँवारने के लि माँ लक्ष्मी को भगवान विष्णु सहित पधारने का निमंत्रण दे, जीवन को सार्थक बनाने का उपक्रम पूरे मनोयोग से करें।

            चलते चलते : और अब अंत में एक छोटी सी बात निर्मल मनोरंजन हेतु। एक बार लक्ष्मीजी का वाहन उनसे नारा हो गया और आज्ञा लेकर बोला कि आप तो सब जगह पूजी जातीं हैं, लेकिन लोग मेरे नाम का उपहास करते हैं। मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। बात सही थी, सो लक्ष्मी को जमी भी और उन्होंने तुरंत वरदान दिया कि आज के बाद तुम्हारी पूजा सर्वप्रथम होगी तथा उसके बाद ही मैं पूजा स्वीकार करूँगी। मित्रों हम सबने देखा है कि दीपावली त्योहार हमेशा करवा चौथ के बाद ही आता है। है न मजेदार। यह बात समझ में तो आ ही गई होगी।

            यह तो हुई एक हल्की- फुल्की बात, किन्तु इसमें भी समाई है एक सीख समस्त पति समुदाय के लि। यह सर्वविदित तथ्य है कि हिन्दू दर्शन में स्त्री को गृह लक्ष्मी का दर्ज़ा दिया गया है, जो परिवार में माँ, पत्नी, बहन, बेटी सहित अनेक रूपों में सबकी सेवा सदैव पूरे समर्पण से कामनारहित होकर करती है। अत: इसके परिप्रेक्ष्य में पूरे स्नेह, दुलार और सम्मान की अधिकारी है। और हम सबका कर्तव्य है उसके मान सम्मान की गरिमा को कायम रखने का, उसमें निरंतर अभिवृद्धि का कृतज्ञता के भाव के साथ। भला कहिये भारत छोड़ पूरे संसार में और कहाँ स्त्री स्वरूपा मातृ रुपेण, शक्ति रूपेण माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों में आराधना, वर्ष में दो बार नौ दिनों तक वर्षों से निरंतर पूरी श्रद्धा एवं समर्पण के साथ की जाती रही है।

जग के मरुथल में जीवन की, 

नारी ज्वलंत अभिलाषा है। 

ममता की त्याग तपस्या की,

यह श्रद्धा की परिभाषा है।

सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641,                                       E-mail- v.joshi415@gmail.com

27 comments:

Sudershan Ratnakar said...

उपयोगी एवं रोचक आलेख

विजय जोशी said...

माननीय सुदर्शनजी, हार्दिक आभार।

V.k . Shukla. Bhopal said...

जोशी जी
साधुवाद।
ऐक स्पष्ट लेख. व उत्साःह वर्धक ।
अनुकरणीय जी
.......विनोद.शुक्ल



V.k . Shukla. Bhopal said...

जोशी जी
साधुवाद।
ऐक स्पष्ट लेख. व उत्साःह वर्धक ।
अनुकरणीय जी
.......विनोद.शुक्ल



विजय जोशी said...

विनोद भाई, जय हो. निर्मल निःस्वार्थ प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते देख लिया ना. आपका योगदान अमर रहेगा यहां सदा के लिये.लखनऊ की फिज़ां कैसी है इन दिनों. हार्दिक धन्यवाद

V.k . Shukla. Bhopal said...

Lucknow is sweet and vibrant and a place full of action and initiative.
Diwali kee Rounak gazab.
We are happy bhai jee

निशिकान्त एडकी said...

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः इसे चरितार्थ करता हुआ लेख। जोशी जी को साधुवाद।

मधुलिका शर्मा said...

अद्भुत आलेख
भारतीय जीवन दर्शन में धर्म की जीवन संहिता के समावेश की सुंदर व्याख्या
हार्दिक अभिनन्दन
मधुलिका शर्मा

जनार्दन सिंहल said...

सुंदर लेख। हमारी भारतीय संस्कृति का निचोड़ है यह। और संभवत यही कारण है कि हम भारतीय अत्यंत ही शांतिप्रिय एवं पसंद लोगों में आते हैं।

Unknown said...

बहुत सुंदर सूचनाप्रद और प्रेरक आलेख है।
आपको और परिजनों को हमारी हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

विजय जोशी said...

विनोद भाई, आपका स्नेह अद्भुत है। सादर

विजय जोशी said...

निशिकान्त जी, आप वास्तव में सच्चे आभार के अधिकारी हैं, जो इतने मनोयोग से पढ़ते हैं और हर आलेख पर सदा सद्भाव दर्शाया है। इस दौर में आप जैसे पाठक अत्यल्प हैं।
यह लेख नारी जगत को समर्पित है। हार्दिक आभार। सादर

विजय जोशी said...

बहन मधु, पुरुष केवल एक इकाई है, जबकि नारी परिवार को समर्पित एक संस्था और उन्हींको समर्पित विचार है यह आलेख। मेरा मनोबल बनाये रखने के लिए सादर साधुवाद।

विजय जोशी said...

आ. जनार्दनजी, अनेक संस्थाओं के प्रमुख का जनार्दन स्वरूप कर्तव्य निभाते हुए आप कोरोना काल में अनेकों की सहायता के साधक रहे हैं। यथा नाम तथा गुण। सो सादर धन्यवाद

विजय जोशी said...

माननीय, हार्दिक धन्यवाद। वैसे स्वयं का नाम भी साझा किया होता तो बहुत प्रसन्नता होती। सो कृपया अब साझा करने का कष्ट करें। सादर

NIMARI KAVITA "SURESH KUSHWAHA TANMAY" said...

दीपोत्सव प्रकाश पर्व पर लक्ष्मी पूजन से संदर्भित महत्वपूर्ण जानकारी, यह भी कि, भारतीय संस्कृति में कोई भी पूजा अनुष्ठान एक साथ पति-पत्नी के सफल नहीं माना जाता, इसके समर्थन में श्रीराम की रामेश्वर पूजा के समय माँ सीता का प्रतीकात्मक स्वरूप का दृष्टांत स्मरणीय है।
धनतेरस एवं दीप पर्व की आपको सपरिवार बधाई
आदरणीय अग्रज, प्रणाम

Unknown said...

आदरणीय भाई साहब,
आपकी रचनात्मक लेखनशैली और ज्ञान से ओतप्रोत व्याख्यान पर आपको साधुवाद, भगवान से प्रार्थना करता हूँ आप ऐसे ही हमारा ज्ञान हमेशा बढ़ाते रहे, आपका आशीर्वाद और स्नेह हमेशा हम सभी पर बना रहे, अंत मे बस इतना ही कहूंगा कि आप हमारे प्ररणा स्त्रोत हैं और आपके भाई होने पर हमें गर्व हैं। भगवान से आपकी दीर्घ आयु , स्वास्थ्य एवं मंगलकामनाओं की प्रार्थनाओ के साथ आपको अनेकानेक चरणस्पर्श एवं नमन।

विजय जोशी said...

भाई सुरेश, बहुत ही सुन्दर व्याख्या विष्णु लक्ष्मी की सामूहिक पूजन के सन्दर्भ में। यही तो धर्म की भावना है। आशा है सकुशल होंगे जबलपुर में। भोपाल प्रवास की सुचना अवश्य दें। हार्दिक धन्यवाद

विजय जोशी said...

प्रिय बंधु, अपनों का स्नेह जीवन में सर्वाधिक शक्ति का प्रायोजक बनता है। धन्यवाद बहुत ही छोटा शब्द है आभार के एहसास को उकेर पाने का। यही स्नेह सदा मेरा संबल बना रहे इसी कामना के साथ। सस्नेह

Unknown said...

सर,उत्कृष्ट लेखन की हार्दिक बधाई. मैंने श्री विष्णु भगवान की आराधना किया था लेकिन माता लक्ष्मी की ही आरती का गान किया.

Unknown said...

पुरुषोत्तम तिवारी भोपाल

विजय जोशी said...

माननीय पुरुषों में उत्तम तिवारीजी, चलो आपने श्री गणेश किया इस परंपरा का. हमारा आरती क्रम है लक्ष्मी जी, फिर जय जगदीश हरे तथा समापन जय शिव ओंकारा. हार्दिक धन्यवाद. सादर

Laxmi somkuwar said...

Nice sir laxmi kasturba

Laxmi somkuwar said...

Nice sir laxmi kasturba

विजय जोशी said...

Thanks very much Laxmi, You are a very nice girl. Ad i/c TMT Centre at kasturba hospital You are sincerely taking care of cardiac cases. So deserve the Best. Thanks again.

Mandwee Singh said...

सादर अभिवादन।देर से विचार अभिव्यक्ति के लिए क्षमा याचना।परन्तु सत्य तो यह है कि दीपावली से लेकर आज देव उठने की ग्यारस तक ये आलेख मेरे मानस पटल पर सदैव चित्रित रहा ।माँ लक्ष्मी और भगवान विष्णु की जोड़ी संग।पुरुष और प्रकृति को अलग कर कोई पूजा भला कैसे पूर्ण एवम चिरस्थायी हो सकती है।बहुत प्रासंगिक अनुकरणीय और सारगर्भित जानकारी प्रदान करने हेतु आपको कोटिशः साधुवाद।लक्ष्मी की कामना में हम सृष्टि
के सृजनकर्ता को भूल जाते हैं ।इस बात का तो कभी ख्याल ही नहीं आया। दीपावली हो या कुछ और उत्सव जीवन जीने का यथार्थ मार्गदर्शन आपके आलेखों की पहचान है।फलदार वृक्ष की तरह सदैव सरल एवं सामाजिक परोपकार में संलग्न आपके व्यक्तित्व की छाप आपके रोचक आलेखों में दृष्टिगोचर होता है।पुनः हार्दिक आभार।नए और उत्कृष्ट आलेखों के इंतजार में-----//
माण्डवी सिंह ,भोपाल ।

विजय जोशी said...

आदरणीया मांडवी जी,
आप सुधि पाठक हैं। आपके ईमानदारी पूर्ण पठन का मैं आरम्भ से कायल हूं। आपके उदार ह्रदय तथा सरलता ने सदा से मुझे लेखकीय जीवन को ज्वलंत रख पाने की प्रेरणा दी है। आप खुद भी तो प्रतिष्ठित लेखिका हैं। पूरी तरह परहितकारी, अपने शिक्षक जीवन तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए तमाम समय के संकट के बावजूद हम जैसों को न केवल पढ़ती हैं, बल्कि पढ़कर अपने विचार साझा करते हुए उत्साह में अभिवृद्धि भी करती हैं। यही भाव बना रहे। सादर