श्रमिक की मंज़िल
श्रमिक की मंज़िल
- अजय खजूरिया, जम्मू
राह तो मिल गई ,पर
मंज़िल की तलाश है
क्यों रुक रुक
कर चलना, तेज चल मंज़िल की तलाश है
सोया है अभी
सवेरा, रात भर चल क्योंकि मंज़िल की तलाश है
ख़ामोश है गलियाँ, बोल कुछ ,क्योंकि मंज़िल
की तलाश है
भूखा है तू, फिर भी चलता चल, क्योंकि मंज़िल की तलाश है
तू थक गया है, मत बैठ क्योंकि मंज़िल की तलाश है
मंज़िल तो
क्षणिक सुख है, चलता रह फिर भी
क्योंकि तू
श्रमिक है और तुझे मंज़िल की तलाश है
Labels: अजय खजूरिया, कविता
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