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Feb 12, 2019

दो लघुकथाएँ

तीन चीटियाँ 
ख़लील जिब्रान,  अनुवादसुकेश साहनी
एक व्यक्ति धूप में गहरी नींद में सो रहा था। तीन चीटियाँ उसकी नाक पर आकर इकट्ठी हुईं। तीनों ने अपने-अपने कबीले की रिवायत के अनुसार एक दूसरे का अभिवादन किया और फिर खड़ी होकर बातचीत करने लगीं। पहली चीटीं ने कहा, “मैंने इन पहाड़ों और मैदानों से अधिक बंजर जगह और कोई नहीं देखी।मैं सारा दिन यहाँ अन्न ढ़ूँढ़ती रही, किन्तु मुझे एक दाना तक नहीं मिला।दूसरी चीटीं ने कहा, मुझे भी कुछ नहीं मिला, हालांकि मैंने यहाँ का चप्पा-चप्पा छान मारा है। मुझे लगता है कि यही वह जगह है, जिसके बारे में लोग कहते हैं कि एक कोमल, खिसकती ज़मीन है जहाँ कुछ नहीं पैदा होता। तब तीसरी चीटीं ने अपना सिर उठाया और कहा, मेरे मित्रो! इस समय हम सबसे बड़ी चींटी की नाक पर बैठे हैं, जिसका शरीर इतना बड़ा है कि हम उसे पूरा देख तक नहीं सकते। इसकी छाया इतनी विस्तृत है कि हम उसका अनुमान नहीं लगा सकते। इसकी आवाज़ इतनी उँची है कि हमारे कान के पर्दे फट जाऐं। वह सर्वव्यापी है।जब तीसरी चीटीं ने यह बात कही, तो बाकी दोनों चीटियाँ एक-दूसरे को देखकर जोर से हँसने लगीं। उसी समय वह व्यक्ति नींद में हिला। उसने हाथ उठाकर उठाकर अपनी नाक को खुजलाया और तीनों चींटियाँ पिस गईं।
 परछाई 
जून के महीने का एक प्रभात था। घास अपने पड़ोसी बलूत वृक्ष की परछाई से बोली, ‘‘तुम दाएँ-बाएँ झूल-झूलकर हमारे सुख को नष्ट करती हो।’’ परछाई बोली, ‘‘अरे भाई, मैं नहीं, मैं नहीं ! जरा आकाश की ओर देख तो। एक बहुत बड़ा वृक्ष है जो वायु के झोकों के साथ पूर्व और पश्चिम की ओर सूर्य और भूमि के बीच झूलता रहता है।’’ घास ने ऊपर देखा तो पहली बार उसने वह वृक्ष देखा। उसने अपने दिल में कहा, ‘‘घास! यह मुझसे भी लम्बी और ऊंची-ऊंची घास ही तो है।’’ और घास चुप हो गई।

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