गीत
वसन्त की परी के प्रति
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी..
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी..
छबि-विभावरी;
बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निर्झरी..
छवि-विभावरी;
निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी..
छबि-विभावरी;
आई है फिर मेरी ‘बेला’ की वह बेला
‘जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी..
छवि-विभावरी;
ऋतुओं में न्यारा
वसंत
-
महादेवी वर्मा
स्वप्न से किसने जगाया?
मैं सुरभि हूँ।
छोड़ कोमल फूल का घर
ढूँढती हूँ कुंज निर्झर।
पूछती हूँ नभ धरा से-
क्या नहीं ऋतुराज आया?
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत
मैं अग-जग का प्यारा वसंत।
मेरी पगध्वनि सुन जग जागा
कण-कण ने छवि
मधुरस माँगा।
नव जीवन का संगीत बहा
पुलकों से भर आया दिगंत।
मेरी स्वप्नों की निधि अनंत
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत।
वसंत आ गया
- अज्ञेय
मलयज का झोंका बुला गया
खेलते से स्पर्श से
रोम-रोम को कंपा गया-
जागो-जागो
जागो सखि, वसंत
आ गया जागो
पीपल की सूखी खाल स्निग्ध हो चली
सिरिस ने रेशम से वेणी बाँध ली
नीम के भी बौर में मिठास देख
हँस उठी है कचनार की कली
टेसुओं की आरती सजा के
बन गई वधू वनस्थली
स्नेह भरे बादलों से
व्योम छा गया
जागो-जागो
जागो सखि, वसंत
आ गया जागो
चेत उठी ढीली देह में लहू की धार
बेंध गई मानस
को दूर की पुकार
गूँज उठा
दिग-दिगंत
चीन्ह के दुरंत वह स्वर बार
"सुनो
सखि! सुनो बंधु!
प्यार ही में यौवन है यौवन में प्यार."
आज मधुदूत निज
गीत गा गया
जागो-जागो
जागो सखि, वसंत
आ गया, जागो!
सीधी है भाषा वसंत की
-त्रिलोचन
सीधी है भाषा
वसंत की
कभी आँख ने
समझी
कभी कान ने पाई
कभी रोम-रोम से
प्राणों में भर आई
और है कहानी
दिगंत की
नीले आकाश में
नई ज्योति छा गई
कब से प्रतीक्षा थी
वही बात आ गई
एक लहर फैली
अनंत की
वसंत
- सुमित्रानंदन
पंत
चंचल पग दीपशिखा के धर
गृह मग वन में आया वसंत.
सुलगा फागुन का सूनापन
सौंदर्य शिखाओं में अनंत.
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसंत भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुंदरता का प्रवाह.
पल्लव पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल रंग खिला
आया नीली पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला.
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब से गाल लजा
आया पंखडिय़ों को काले -
पीले धब्बों से सहज सजा.
कलि के पलकों में मिलन स्वप्न
अलि के अंतर में प्रणय गान
लेकर आया प्रेमी वसंत-
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण.
1 comment:
वाह ! इन महान विभूतियों की कलम से निकली इन पंक्तियों ने मानो वसंत को आँखों के सामने साकार कर दिया...। जब हमारे आसपास उगे कंक्रीट के जंगलों ने वसंत हमसे छीन सा लिया है, ऐसे में इन कविताओं को पढ़ना बेहद सुखद लगा...।
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