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May 16, 2014

बालकथा,

नन्हा गुरु

- प्रियंका गुप्ता

दिसम्बर की वह एक सर्द सुबह थी। दस वर्षीय शंकर सुबह से बड़ी बोरियत महसूस कर रहा था। उसकी जाड़े की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थी और मम्मी थी कि उसे खेलने ही नहीं जाने दे रही थी। उनका बस हमेशा की तरह एक ही बहाना थाइतनी सर्दी है...। मौसम देखा हैकैसा कोहरा हो रहा है...। अगर सर्दी-जुकाम हो गया तो बसफिर मना लेना छुट्टी...बुखार में...।
अब इसके बाद शंकर के पास कुछ भी नहीं बचता था कहने के लिए...। सच ही तो कहती थी मम्मी...उसे सर्दी-जुकाम बहुत जल्दी होता था। पर वह भी क्या करेअगर खेले न तो घर में रहकर करने के लिए बचता ही क्या थाअगर मम्मी उसे बाहर नहीं निकलने देती तो पापा भी उसके ज़्यादा टी.वी देखने या कम्प्यूटर को देर तक चलाने के सख़्त ख़िला थे। उन्हें तो बस किताबों से लगाव था। वे अक्सर शंकर को समझाया करतेबेटाअपनी कोर्स की किताबों के अलावा रोज़ाना कम-से-कम दस पन्ने किसी भी किताब के पढ़ा करो...जो भी तुम्हें रुचिकर लगें...। किताबें हमारा मन तो बहलाती ही हैंहमें सहीग़लत का फ़र्क भी सिखाती हैं...। वे हमारी सच्ची दोस्त होती हैं...।
शंकर पापा का विरोध करने की हिम्मत तो रखता नहीं थापर पापा की बातें न उसे समझ आती थीन पसन्द...। भला कोई किताबों के साथ दोस्ती कैसे कर सकता है। बस एक जगह चुपचाप बैठ जाओ और पढ़ो...। यह भी कोई बात हुई...शंकर का अगर वश चलता तो वह दुनिया भर की किताबों को एक कमरे में बंद करके चाभी समन्दर में फेंक देता...। यही नहींबल्कि वह तो सारे स्कूल भी बन्द करवा देता...। शंकर को स्कूल जाना और पढऩादोनो ही नापसन्द थे। उसे तो दोस्तों के साथ खेलनागप्पें मारना और घूमना पसन्द था। पर क्या करेदुनिया उसकी मर्ज़ी से थोड़े न चलती है...।
 शंकर बैठा अपनी छुट्टियों को मज़ेदार तरीके से बिताने के लिए योजना बना रहा था कि तभी दरवाज़े पर हुई दस्तक से उसका ध्यान भंग हुआ। मम्मी रसोई में व्यस्त थीसो उसे ही दरवाज़ा खोलने जाना पड़ा। दरवाज़ा खोलने पर जैसे वह पल भर को सन्न रह गया। उसके सामने लगभग उसकी ही उम्र का एक अधनंगा-सा बच्चा खड़ा था। उसे देख कर ही कोई बता सकता था जैसे उसने महीनों से कुछ न खाया हो...। उसे देख कर शंकर को आश्चर्य हो रहा थाइतनी सर्दी में कोई पूरे गर्म कपड़ों के बगैर कैसे रह सकता थावह ऐसे ही खड़ा रहता कि तभी उस बच्चे के खाना माँगने पर जैसे उसका ध्यान भंग हुआ। शंकर ने तेज़ी से भाग कर अपनी मम्मी को उस आए हुए बच्चे के बारे में बताया तो मम्मी भी सारे काम छोड़खाना और शंकर का एक पुराना कपड़ा और कोट लेकर ज़ल्दी से बाहर आ गई।
 जितनी देर वह बच्चा खाना खाता रहाशंकर मम्मी के पीछे छुपकर उसे अचरज़ के साथ निहारता ही रहा। गर्म कपड़े पहन कर और भरपेट खाना खाकर बच्चा बेहद सन्तुष्ट नज़र आ रहा था।
मम्मीक्या मैं थोड़ी देर इससे बात कर सकता हूँ...। शंकर को उस बच्चे के बारे में जानने की बहुत इच्छा हो रही थीसो उसने मम्मी से इजाज़त माँगी। मम्मी भी शायद उसका अकेलापन समझ गई थी; सो उन्होंने भी 'हाँकह दी। शंकर बहुत खुश हुआ...चलो कोई तो मिला उसे अपनी बोरियत मिटाने को...।
उस बच्चे से पूछने पर शंकर को मालूम हुआ कि उसका नाम छोटू था और वह पास ही की एक मलिन बस्ती में अपनी विधवा माँ और एक छोटी बहन के साथ रहता था। उसके पिता की दो साल पहले एक गंभीर बीमारी से मृत्यु हो चुकी थी तथा उसकी माँ आसपास के इलाके में बर्तन माँजकर उसका और उसकी बहन का पालन-पोषण कर रही थी। शंकर को यह जान कर और भी आश्चर्य हुआ कि गरीब होने के बावजूद छोटू पास के एक सरकारी स्कूल में पढ़ता भी था। शंकर समझ नहीं पा रहा था कि आखिर छोटू को पढऩे की क्या ज़रूरत थीजबकि वह तो बड़ी आसानी से अपनी गरीबी का बहाना लेकर स्कूल जाने से बच सकता था।
शंकर को छोटू ने यह भी बताया कि वह बड़ा होकर एक डॉक्टर बनना चाहता है ताकि वह अपनी माँ और छोटी बहन को जीवन के वे सारे सुख और आराम दे सके जो उन्हें कभी नहीं मिले।
जानते हैं भैयाजब मैं डॉक्टर बन जाऊँगा जो सिर्फ पैसे से ही इलाज नहीं करूँगाबल्कि मु$फ्त में भी करूँगा ताकि मेरे बापू की तरह पैसे की कमी के कारण कोई और न बिना इलाज के मरे...। कहते हुए छोटू की आवाज़ में एक निश्चय की झलक थी।
शंकर अब भी उसे अचरज़ से देखे जा रहा था। किस मिट्टी का बना है यह...अभी वह कुछ और सोचता कि तभी छोटू ने कुछ चिरौरी-सी करते हुए शंकर से पूछा,  भैयाक्या आप मुझे अपनी पिछली कक्षा की कुछ पुरानी किताबें और एक-दो कहानियों की किताबें भी दे सकते हैं...दरअसल मैं चाहता हूँ कि मैं अधिक-से-अधिक सीखूँ...तभी तो मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊँगा...।
अपनी ओर अब भी चुपचाप ताकते शंकर को देख कर छोटू को लगावह आवश्यकता से अधिक माँग रहा है। किसी की आत्मीयता और प्यार के चलते इतना भी नहीं माँगना चाहिए कि देने वाला दुत्कार दे...इसी भय से छोटू वापस जाने के लिए मुड़ा ही था कि शंकर ने लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया। छोटू ने देखाशंकर की आँखों में एक अनजानी-सी चमक थी। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाताशंकर ने कसकर उसे गले लगा लिया और तेज़ी से अंदर की ओर भाग गयाअपने इस नए और अनजाने से नन्हें दोस्त के लिए किताबें लाने...।
शंकर के स्कूल खुल चुके थे। अबकी बार शंकर पहले जैसा नहीं रहा था...स्कूल और किताबों से दूर भागने वाला...। मम्मीपापाउसके दोस्तों...सब को सुखद आश्चर्य हो रहा था उसमें आए इस बदलाव को देख कर...। पर जब भी कोई इस परिवर्तन का कारण जानना चाहताशंकर की आँखों में वही अनजानी-सी चमक लौट आती। एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ उसका जवाब होताइसका श्रेय तो मेरे गुरु जी को जाता है...।


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