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May 16, 2014

प्रसिद्ध बाल कविताएँ


इब्नबतूता का जूता
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक कोकभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गए    
 मोची की दुकान में।

कहाँ रहेगी चिडिय़ा?
महादेवी वर्मा
आँधी आई जोर-शोर से
डाली टूटी है झकोर से
उड़ा घोंसला बेचारी का
किससे अपनी बात कहेगी
अब यह चिडिय़ा कहाँ रहेगी?
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ
कैसे यह घोंसला बनाएँ
कैसे फूटे अंडे जोड़ें
किससे यह सब बात कहेगी
अब यह चिडिय़ा कहाँ रहेगी?
भवानीप्रसाद मिश्र की तीन बाल कविताएँ
तुकों के खेल
मेल बेमेल
तुकों के खेल
जैसे भाषा के ऊँट की
नाक में नकेल!
इससे कुछ तो
बनता है
भाषा के ऊँट का सिर
जितना तानो
उतना तनता है!

कठपुतली
कठपुतली
गुस्से से उबली
बोली - ये धागे
क्यों हैं मेरे पीछे आगे?
तब तक दूसरी कठपुतलियाँ
बोलीं कि हाँ हाँ हाँ
क्यों हैं ये धागे
हमारे पीछे-आगे?
हमें अपने पाँवों पर छोड़ दो,
इन सारे धागों को तोड़ दो!
बेचारा बाज़ीगर
हक्का-बक्का रह गया सुन कर 
फिर सोचा अगर डर गया
तो ये भी मर गयीं मैं भी मर गया
और उसने बिना कुछ परवाह किए
जोर जोर धागे खींचे
उन्हें नचाया!
कठपुतलियों की भी समझ में आया
कि हम तो कोरे काठ की हैं
जब तक धागे हैं,बाजीगर है
तब तक ठाट की हैं
और हमें ठाट में रहना है
याने कोरे काठ की रहना है।
अक्कड़ मक्कड़ 
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे, ठाठ से लौटे,
एक साथ एक बाट से लौटे।
बात-बात में बात ठन गयी,
बाँह उठीं और मूछें तन गयीं।
इसने उसकी गर्दन भींची,
उसने इसकी दाढ़ी खींची।
अब वह जीता, अब यह जीता;
दोनों का बढ चला $फजीता;
लोग तमाशाई जो ठहरे,
सबके खिले हुए थे चेहरे!
मगर एक कोई था फक्कड़,
मन का राजा कर्रा - कक्कड़;
बढा भीड़ को चीर-चार कर
बोला 'ठहरो'
गला फाड़ कर।
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़,
गर्जन गूंजी, रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना पड़ा!
उसने कहा सधी वाणी में,
डूबो चुल्लू भर पानी में;
ताकत लडऩे में मत खोओ,
चलो भाई चारे को बोओ!
खाली सब मैदान पड़ा है,
आफ़त का शैतान खड़ा है;
ताकत ऐसे ही मत खोओ,
चलो भाई चारे को बोओ।
सुनी मूर्खों ने जब यह वाणी,
दोनों जैसे पानी-पानी;
लडऩा छोड़ा अलग हट गए,
लोग शर्म से गले छट गए।
सबकों नाहक लडऩा अखरा,
ताकत भूल गई तब नखरा;
गले मिले तब अक्कड़-बक्कड़
खत्म हो गया तब धूल में धक्कड़।
अक्कड़ मक्कड़, धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख, दोनों अक्खड़।
    ०००
अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की चार बाल कविताएँ 
एक तिनका
मैं घमंडो में भरा ऐंठा हुआ
एक दिन जब था मुडेरे पर खड़ा,
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा
लाल होकर आख भी दुखने लगी,
मूठ देने लोग कपड़े की लगे
ऐंठ बेचारी दबे पावों भागी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया
तब समझ ने यों मुझे ताने दिए,
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी
हाय क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में,
चू पड़ूँगी या कमल के फूल में।
बह गई उस काल एक ऐसी हवा
वो समदर ओर आई अनमनी,
एक सुदर सीप का मुँह था खुला
वो उसी में जा गिरी मोती बनी।
लोग यों ही हैं झिझकते सोचते
जबकि उनको छोडऩा पड़ता है घर,
कितु घर का छोडऩा अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।
जागो प्यारे
उठो लाल अब आँखें खोलो,
पानी लाई हूँ, मुँह धो लो।
बीती रात कमल-दल फूले,
उनके ऊपर भौंरे झूले।
चिडिय़ाँ चहक उठी पेड़ों पर,
बहने लगी हवा अति सुदर।
नभ में न्यारी लाली छाई,
धरती ने प्यारी छवि पाई।
भोर हुआ सूरज उग आया,
जल में पड़ी सुनहरी छाया।
ऐसा सुदर समय न खोओ,
मेरे प्यारे अब मत सोओ।
चन्दा मामा
चँदा मामा दौड़े आओ,
दूध कटोरा भर कर लाओ।
उसे प्यार से मुझे पिलाओ,
मुझ पर छिड़क चाँदनी जाओ।
मैं तैरा मृग छौना लूँगा,
उसके साथ हँसू खेलूँगा।
उसकी उछल कूछ देखूँगा,
उसको चाटूँगा चूमूँगा।
          

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