और छत्तीसगढ़ का तीजा-पोला
- सुशील भोले
छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति
सृष्टिकाल की संस्कृति है, इसीलिए उस काल
और संस्कार को आज भी यहाँ जीवंत रूप में देखा जाता है। यहाँ की संस्कृति में भादो
महीने का अद्भुत महत्त्व है। कृष्ण पक्ष षष्ठी को जहाँ देव मंडल के सेनापति और
शिव-पार्वती के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय की जयंती को कमरछठ के रूप में मनाया जाता
है। वहीं अमावस्या तिथि को पोला के रूप में नंदीश्वर का जन्मोत्सव मनाया जाता है।
शुक्ल
पक्ष की तृतीया तिथि को देवी पार्वती ने महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के
लिए जो कठोर तप किया था, उसके सुफल होने
के प्रतीक स्वरूप तीजा का पर्व मनाया जाता है। और उसके ठीक दूसरे दिन अर्थात्
चतुर्थी को गणनायक गणेश जी के जन्मोत्सव का पर्व मनाया जाता है। हम भादो के महीने को शिव-पार्षदों के माह के
रूप में भी स्मरण कर सकते हैं।
कृषि
संस्कृति में भादो के महीने को अन्नपूर्णा के गर्भ धारण करने के रूप में भी मनाते
हैं। भादो के महीने में ही हरे-भरे खेतों में लहराते धान के पौधों में दाने का
भराव प्रारंभ होता है, जिसे यहाँ की
भाषा में 'पोठरी पानÓ धरना कहा जाता
है।
वैसे
तो तीजा का पर्व शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है, किन्तु अमावस्या तिथि को मनाये जाने वाले पोला पर्व उसका
पूरक पर्व के रूप में देखा जाता है। इसीलिए तीजा के साथ पोला शब्द का उच्चारण
संयुक्त रूप से किया जाता है।
पोला
का पर्व मूल रूप से नंदीश्वर के पाकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है, इसीलिए इस दिन नंदी के प्रतीक स्वरूप मिट्टी के बने हुए
बैलों को सजाकर उसकी पूजा की जाती है। बच्चे उसका उपयोग खिलौने के रूप में भी कर
लेते हैं, और बड़े बैल दौड़ का भी आयोजन कर लेते हैं।
शाम के
समय गाँव के बाहर या किसी प्रमुख स्थान पर पोला पटकने का आयोजन होता है। जहाँ पूरे गाँव की महिलाएँ, खासकर तीजहारिनें (तीजा मनाने मायका आई हुई महिलाएँ)
मिट्टी के बने पोला में ठेठरी, खुरमी और मीठा चीला जैसे यहाँ
के पारंपरिक व्यंजनों को भर कर उसे जमीन पर पटकती हैं।
इसी
दिन सुबह के समय ऐसे ही पोला में व्यंजन भर कर घर के पुरुष सदस्य अपने-अपने खेतों
में जाते हैं, और धान के फसल को गर्भ धारण
करने के प्रतीक स्वरूप उन्हें सधौरी खिलाते हैं। (छत्तीसगढ़ में पहली बार गर्भ
धारण करने वाली कन्या को पिता पक्ष की ओर सातवें या नवमें महीने में विविध व्यंजन
खिलाया जाता है, इसे ही सधौरी खिलाना कहा जाता है।)
शुक्ल
पक्ष की तृतीया तिथि को महादेव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए पार्वती के
द्वारा किये गये कठोर तप के प्रतीक स्वरूप तीजा का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व
में महिलाएँ निर्जला व्रत रखकर शिव-पार्वती की विशेष पूजा करती हैं। यहाँ की भाषा
में से फुलेरी सजाकर पूजा करना कहा जाता है।
मुझे
लगता है कि पूरे देश में शायद छत्तीसगढ़ का यही एकमात्र ऐसा पर्व है, जिसमें विवाहित महिलाएँ व्रत को पूर्ण करने के लिए अपना
मायके जाती हैं। इसके संदर्भ में ज्ञात करने पर जानकारी मिलती है, कि पार्वती जिस समय इस व्रत को की थीं उस समय कुँवारी थीं। अर्थात् अपने
पिता के घर पर थीं। इसी के प्रतीक स्वरूप यहाँ की विवाहित महिलाएँ भी इस व्रत को
पूरा करने के लिए अपने-अपने पिता के घर जाती हैं।
छत्तीसगढ़
में तीजा का पर्व महिलाओं का सबसे प्रमुख पर्व के रूप में मनाया जाता है। चाहे नव
विवाहिता हो अथवा जीवन के संध्याकाल में पहुँच चुकी वृद्धा हो, सभी को अपना मायका जाने की जल्दी रहती है।
उसके
मायके से भी यदि पिता है पिता, नहीं तो
भाई अथवा उनका पुत्र तीजा का पर्व संपन्न कराने के लिए उन्हें लिवाने अवश्य जाता
है।
तीजा लेगे
बर आही भइया सोर-संदेशा आगे
बड़े
फजर ले कौंवा आके कांव-कांव नरियागे
साल भर
ले रद्दा जोहत हौं ये भादो महीना के
पोरा
पटक के जाबो मइके जोरन सबो जोरागे
सम्पर्क: 54-191, डॉ। बघेल गली, संजय
नगर (टिकरापारा) रायपुर (छ.ग.) मोबा।
नं. 98269-92811
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