क्यूँ... मन
माँगे मोर
- साधना
मदान
बार- बार
खाने की मेज़ पर रुचि अपने हाथों बनाई खीर सबको खिलाना चाह रही थी। नीले परदे के
पास वाली कुर्सी से वाह! वाह! की आवाज़ सुनकर रुचि की आँखें जगमगा गईं पर यह आवाज़
खीर के स्वाद से भरी नहीं थी बल्कि चार वर्ष की बच्ची का चुटकुला सुनकर आई थी। फिर
एक दिन काम्या ने बिना झिझक आफ़िस के दोस्तों के सामने कविता पाठ कर ही दिया। अब
तालियों की गूँज सुनने के लिए उसके कान मानो बिखरते पानी से बहने लगे तब फिर कहीं
से खनखनाती सी आवाज़ आई ...कुछ फिल्मी हो जाता तो बात बन जाती। अभी दो एक दिन की
बात है,
खूबसूरत लगने की ललक में मोहिनी ने पाँच छ: जोड़े ऑन लाइन कपड़े
खरीद लिए और जब एक- एक कर पहने तो सामने वाले ने टुकुर- टुकुर देखा तो सही,
पर बोलने के लिए जैसे भाषा ही भूल गया या मूक होने का अभिनय करने
लगा। अब रुचि, काम्या और मोहिनी किसी अज्ञात वास में चली गईं
कि हाय! किसी के मुख से दो शब्द भी प्रशंसा के न फूटे। क्या मैं व्यर्थ ही सबके
लिए माथा मारती हूँ ? या मैं अब किसी के लिए कुछ नहीं
करूँगी। तारीफ़ के दो शब्दों की भी मैं अब मोहताज हो गई हूँ। बस, मुझे पहले ही पता था कि मेरा कोई अपना नहीं। बस, अब
कभी ये कुछ करें.. मजाल मेरी, जो देख भी जाऊँ। आज की दुनिया
का हाल ही बुरा है। देखकर भी नहीं देखते।
दोस्तों! इसी उठा पटक में, वाहवाही के दो बोल की चाहना हमें अँधेरे कोठरे में बंद कर देती है। हम
निराशा की धुंध में खोए- खोए से रहने लगते हैं। अपनी एक दुनिया रचते हैं जिसमें
विचारों के तीखे बाण सहेज कर रख लेते हैं । फ़ेज़ बुक या वाट्स एप की गलियों में
लाइक्स ढूँढने निकल पड़ते हैं। एक -एक झरोखे में दूषित निंदा-द्वेष के प्रकंपन
फैलाने में जुट जाते हैं।
कई बार मन की हवाएँ बार -बार
हिलोरे लेकर कुछ गुनगुनाती हैं और उन गाती तरंगों का स्वर जानते हैं आप ज़रुर वही
बीते पल,
जब अमुक ने मुझे ...अच्छी लग रही हो कहकर सहलाया था या फिर आज तो
तुमने जो शापिंग कराई ,उसका जवाब नहीं या फिर जो भाषण दिया
वाह -वाह ! हो गई या फिर सबके बीच मेरे काम , नाम और शान का
राग अलापा गया ...वो पल तो मैं कभी न भूलूँ। दोस्तों! सोचती हूँ क्या मेरी खुशी का
आधार मात्र यही पल हैं। मैं तभी मस्त हूँ ...जब मैं -मैं के दौर में मेरे पिलपिले
अहं को हर कोई कोमलता का स्पर्श देता रहे। मेरी निंदा करने वालों के एक -एक कर
नाम लेता रहे और मैं अपनी आत्म- प्रशंसा की तलवार से उन सबको धाराशायी करती रहूँ।
तुम मेरे तब तक अपने हो जब तक मेरी किसी गलती पर छींटाकशी न करो। जहाँ मेरी जीवन
की चलती कार में हलका गेयर बदलने की आवाज़ उठाई वहीं अहं का धुँआ फैलने लगेगा। बस ,रिश्ता केवल इतना कि हाँ में हाँ का बाजा बजाओ वरना तुम कौन हो मेरे इस
जहाँ में।
कुछ सवाल ज़हन में उठते हैं कि सबके साथ का
सितार तभी बजेगा ,जब सारे तार मैं ही बजाऊँ या जो भी
मैं करूँ कोई तो वाह- वाही के दो शब्द कहो। ऐसा न हो तो हमारा सारा कर्म क्षेत्र
किसी अज्ञात वास में डूब जाता है। यदि इसी भाव को मैं एक सच का आइना जैसे चश्मे से
देखूँ तो मैं अलग ही दृश्य देखती हूँ कि मेरे हाथ में एक कटोरा है और मैं सबसे
कहती हूँ मेरी प्रशंसा में कुछ तो कह डालो पर तब देखती हूँ एक अजब नज़ारा कि कोई
कुछ भी नहीं देता -पता है क्यों नहीं दे पाता क्योंकि स्वयं देने वाले के पास भी
दूसरों की महिमा गाने के लिए न तो भाव है और न शब्द या फिर उत्साह, उमंग की चढ़ती कला में ले जाने की उड़ान वाले पंख। साथियों! समस्या है तो
समाधान भी है। बीमारी है तो इलाज भी है। प्रश्न है तो प्रसन्नता भी है। वास्तव में
प्रसन्न रहने के लिए ही प्रशंसनीय काम करने पड़ते हैं। कैसा वजूद हो मेरा कि मैं
पहले स्वयं से ही संतुष्ट रहना सीख लूँ। जो भी करुँ नि:स्वार्थ होकर करुँ। किसी को
छोटा दिखाने या इष्र्या द्वेष से भरे मन से न करुँ। अपने किसी काम में या बोल में
या संकल्प में चित्त की चंचलता को प्रवेश न दूँ। कोई मान ले तो ठीक न माने तो अहं
से परे हो जाऊँ। विवाद न हो, संवाद हो तो दोस्तों हमारे भी
दिन बदलेंगे। सब हमारा भी इंतज़ार करें, कोई यह कहे आपकी ही
राह देख रहे हैं। तब मेरे मन के झरोखों से बयार यह कहेगी प्रशंसा पानी है तो अपने
ऊपर आप ही कृपा कर। बहसबाज़ी, अपेक्षाएँ, मैं -मैं, आवेश, क्रोध,
चिढ़चिढ़ाहट, रोक-टोक और व्यर्थ के बोल ही हैं
जो हमें निंदा का व दोषी होने का बाना पहनाती हैं। अपने आइने को सा$फ रखें तो और भी हमारी छवि को भली प्रकार निहार पाएँगे। अब कोई प्रशंसा
करे न करे मेरा मन, बुद्धि और संस्कार तो हंस जैसा बन ही रहा
है क्योंकि मैंने कंकर चुनना छोड़ दिया है। गुण और विशेषताओं का शर्बत पीती हूँ तो
रूहानियत के नशे में मस्त हो जाती हूँ। ऐसे में कबीर साहब से मुलाकात के पट फिर
खुल जाते हैं और कबीर कर्म का कपड़ा बुनते-बुनते मुझसे कहते हैं...न काहू से
दोस्ती न काहू से बैर...तब मेरा भरपूर मन अपने कटोरे में संतोष और सहयोग का प्रसाद
देख आनंद के हिलोरे लेने लगता है।
सम्पर्क:
प्रवक्ता हिंदी, कुलाची हंसराज मॉडल स्कूल,
अशोक
विहार दिल्ली
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