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Sep 27, 2012

लव- कुश की जन्मस्थली तुरतुरिया


 लव- कुश की जन्मस्थली तुरतुरिया

जहां सौर ऊर्जा से रौशन होते हैं गांव

 - ज्योति प्रेमराज सिंह

छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीक का आश्रम इस बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्व रहा होगा।
रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित रायपुर-बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम के स्थान से सात किलोमीटर दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यहां जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाडिय़ों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं। इन्हीं पहाडिय़ों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा ऋतु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुंचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद इस राज्य के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधिक क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया जहां पहुंचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बनाया जा रहा है।  तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, दूसरा सिरपुर से और तीसरा बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीक का आश्रम। सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहां तक पहुंचने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ां बना दी गई हैं। सीढिय़ों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुंचने पर एक पक्का कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुंचने पर हिरणों का झुंड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालांकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर ये हिरण कुंलाचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहां पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहां पर महर्षि वाल्मीक का आश्रम स्थित है।
प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीक का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। और यहीं सीताजी के दोनों पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएं एक संकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खंभे दिखाई देते हैं, जो विखंडित हो चुके हैं।
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खंबे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं।  माता सीता और लव-कुश की एक प्रतिमा भी यहां नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्तियां कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मीक के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी।
घने जंगलों से घिरे इस क्षेत्र का नाम तुरतुरिया पडऩे का कारण संभवत: चट्टानों के बीच से इस झरने का उद्गम एक लंबी संकरी गुफा से होना है। जहां से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बहती है। इस झरने को यहां सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। इस गुफा से निकलने वाला जल नीचें पंहुच कर र्इंटों से निर्मित एक कुंड में एकत्र होता है। इस कुंड में उतरने के लिए सीढिय़ां बनी हुई हैं। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। यहां पर नियुक्त महंत रामकिशोर दास के अनुसार वे पिछले 35 बरसों से इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। कुंड के निकट दो शूरवीरों की मूर्तियां हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है, जो उस सिंह को मारने के लिए उद्घत्त है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्ति में एक जानवर उसकी पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहां पत्थर के कई स्तंभ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्ट खुदाई का काम किया गया है।

 बौद्घ विहार-
यह स्थान कुंड से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पहाड़ पर स्थित ऋषियों के कुटी में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढिय़ों के समीप है। जहां पर बौद्घ भिक्षुणियों की मूर्ति पाई गई हैं जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाई गई हैं। इन मूर्तियों का काल 8-9 वीं शताब्दी बताया जाता है। इन मूर्तियों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संभवत: यहां बौद्घ भिक्षुणियों का विहार था। और यह शोध का विषय भी है कि भारत में बौद्घ भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं? इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यहां प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं।
यहां कुछ भग्न मंदिर भी प्राप्त हुए हैं जिनका जीर्णोद्घार हो चुका है। बौद्घ मूर्तियां खंडित अवस्था में हंै तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्तियां पाई गईं हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की भी   मूर्तियां हैं।
इस क्षेत्र का महत्व छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहां पर मेला भरता है। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव-कुश का जन्म हुआ था, इसलिए पूष माह में यहां पर तीन दिनों का मेला भरता है। छत्तीसगढ़ के इस पारंपरिक त्यौहार छेरछेरा जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है  के दिन दिन गांव-गांव में घर-घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा, कोठी के धान ल हेर हेरा। यानी धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गांव-गांव से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं।
इस समूचे क्षेत्र में एक अच्छी बात यह देखने में आई कि पहाड़ी क्षेत्र होने के बाद भी यहां पर गांव-गांव में रौशनी है। यह कमाल सौर ऊर्जा का है। समूचे क्षेत्र में सौर ऊर्जा से बिजली प्रवाहित होती है। आस-पास के गांवों में भी छोटे-छोटे सौर प्लांट नजर आते हैं, जिनसे पूरे गांव को रौशनी मिलती है। तुरतुरिया में भी रौशनी सौर ऊर्जा से पहुंचाई जा रही है।
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गांव है बफरा, जहां 30 से 40 कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गांव तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पडऩे वाले गांव काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी इलाका होना है।
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी मां का एक प्राचीन मंदिर है। जिसकी बड़ी मान्यता है।
Email:  jyotipremrajsingh@in.com

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