- अविनाश वाचस्पति
प्रकाशक और अखबार छापने वाले हिन्दी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्तकें छाप कर बेचते हैं, जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्य पर भेंट देते हैं।
हिन्दी दिवस है हिन्दी का जन्मदिन। जिसे मनाने के लिए हम ग्यारह महीने पहले से इंतजार करते है और फिर 15 दिन पहले से ही नोटों की बिंदिया गिनने के लिए सक्रिय हो उठते हैं। अध्यक्ष और जूरी मेम्बर बनकर नोट बटोरते हैं और उस समय अंग्रेजी बोल-बोल कर सब हिन्दी को चिढ़ाते हैं। हिन्दी की कामयाबी के गीत अंग्रेजी में गाते हैं। कोई टोकता है तो 'सॉरी' कहकर खेद जताते हैं। सरकारी कार्यालयों में हिंदी के लिए सितम्बर माह में काम करने पर पुरस्कारों का अंबार लग जाता है। जिसे अनुपयोगी टिप्पणियां, शब्दों के अर्थ-अनर्थ लिखकर, निबंध, कविताएं लिख-सुना कर लूटा जाता है। लूट में हिस्सा हड़पने के लिए सब आपस में घुलमिल जाते हैं। हिन्दी को कूटने-पीटने और चिढ़ाने का यह सिलसिला जितना तेज होगा, उतना हिन्दी की चर्चा और विकास होगा।
हिन्दी के नाम पर सरकारी नौकरी में चांदी ही नहीं, विदेश यात्राओं का सोना भी बहुतायत में है किंतु सिर्फ हिन्दी में लेखन से रोजी-रोटी कमाने वालों का एक जून की रोटी का जुगाड़ भी नहीं होता है, खीर खाना तो टेढ़ी खीर है। प्रकाशक और अखबार छापने वाले हिन्दी लेखकों को जी भर कर लूटे जा रहे हैं। प्रकाशक लेखक से ही सहयोग के नाम पर दाम वसूलकर पुस्तकें छाप कर बेचते हैं, जिसके बदले में छपी हुई किताबें एमआरपी मूल्य पर भेंट देते हैं। गजब का सम्मोहन है कि लेखक इसमें मेहनत की कमाई का निवेश कर गर्वित होता है। किताबें अपने मित्र-लेखकों, नाते-रिश्तेदारों को फ्री में बांट-बांट कर खुश होता है कि अब उसका नाम बेस्ट लेखकों में गिन लिया जाएगा।
छपास रोग इतना विकट होता है कि लेखक मुगालते में जीता है, कि जैसा उसने लिखा है, वैसा कोई सोच भी नहीं सकता, लिखना तो दूर की बात है। बहुत सारे अखबार, पत्रिकाएं, लेखक को क्या मालूम चलेगा, की तर्ज पर ब्लॉगों और अखबारों में से उनकी छपी हुई रचनाएं फिर से छाप लेते हैं। इसका लेखक को मालूम चल भी जाता है किंतु वह असहाय सा न तो अखबार, मैगजीन वाले से लड़ पाता है और न ही अपनी बात पर अड़ पाता है। लेखक कुछ कहेगा तो संपादक पान की लाल पीक से रंगे हुए दांत निपोर कर कहेगा कि 'आपका नाम तो छाप दिया है रचना के साथ, अब क्या आपका नाम करेंसी नोटों पर भी छापूं।' उस पर लेखक यह कहकर कि 'मेरा आशय यह नहीं है, मैं पैसे के लिए नहीं लिखता हूं।' 'जब नाम के लिए लिखते हैं तब आपका नाम छाप तो दिया है, रचना के साथ।' फिर क्यों आपे से बाहर हुए जा रहे हैं और सचमुच संपादक की बात सुनकर लेखक फिर आपे के भीतर मुंह छिपाकर लिखना शुरू कर देता है। इससे साफ है कि हिन्दी का चौतरफा विकास होता रहेगा और हम सब राष्ट्रभाषा के नाम पर हिन्दी का जन्मदिन मना साल भर खुशी बटोरते रहेंगे।
संपर्क- साहित्यकार सदन, 195 पहली मंजिल, सन्त नगर, नई दिल्ली- 110065
मो. 9213501292 E mail nukkadh@gmail.com
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