दृष्टिकोण पत्र
द्वितीय विश्व पृथ्वी सम्मेलन
- चन्द्रशेखर साहू (मंत्री- कृषि, पशुधन विकास, मत्स्य पालन एवं श्रम विभाग, छत्तीसगढ़ शासन)
अफ्रीकी एवं एशियाई देशों में पाई जाने वाली सभी प्रकार के आर्थिक एवं ढांचागत सुधार के बावजूद लगभग 80 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या की आजीविका जमीन आधारित क्रियाकलापों पर निर्भर है। प्राकृतिक संसाधन मुख्यत: भूमि, जल एवं सामुदायिक संपदा संसाधन के असतत् विकास उपयोग के कारण शताब्दी विकास लक्ष्य (Millenium Development Goals) प्रभावी नहीं हो पाया है। विश्व के समस्त गरीबों के पूर्ण कल्याण हेतु प्राकृतिक संसाधनों का सतत विकास उपयोग मुख्य गतिशील शक्ति है। इस संगोष्ठी में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखने हेतु हम सभी मिलजुल कर संस्थागत व्यवस्था को रेखांकित करें ताकि वर्तमान एवं अजन्में पीढ़ी का विकास संभव हो सके।
1992 के रियो-डी-जिनेरियो में हुए 'पृथ्वी सम्मेलन' यानी 'अर्थ-समिट', संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एस.ए.) के द्वारा आयोजित सबसे प्रभावशाली एवं वैश्विक दिशा देने वाला महासम्मेलन माना जाता है। इस सम्मेलन में पहली बार विश्व के सभी देश इस बात पर सहमत हुए कि पृथ्वी के अस्तित्व एवं इसके प्राकृतिक संसाधनों के बीच एक गहरा अन्तर-संबंध है एवं पृथ्वी की सुरक्षा पर्यावरणीय विकास एवं समृद्धि के साथ ही संभव है।
सभी देशों ने तब से इस महत्वपूर्ण विषय को संज्ञान में लेते हुए जलवायु परिवर्तन, संतुलित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन एवं स्मार्ट या टिकाऊ विकास जिसे सस्टनेबल डेव्हलपमेंट कहा जा सकता है, की दिशा में संस्थागत प्रयास करने शुरू कर दिये।
इस महा-विश्वसम्मेलन के बीस वर्ष पूरे हो जाने पर यानी 20वीं वर्षगांठ पर वहीं रियो में एक दूसरा विशाल महासम्मेलन हुआ जिसे रियो प्लस ट्वेन्टी महासम्मेलन का नाम दिया गया। यह सम्मेलन 15 से 22 जून तक सम्पन्न हुआ जिसमें 20, 21 एवं 22 जून 2012 तक महासम्मेलन के रूप में चला।
ग्रीन इकांनामी यानी हरित अर्थव्यवस्था
यह महासम्मेलन न केवल पृथ्वी केन्द्रित विकास की अवधारणा के 20 वर्षीय लम्बी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, बल्कि पिछले 2 दशकों में सामने आये आर्थिक विकास के विभिन्न पहलुओं, आयाम के प्रभावों, दुष्प्रभावों, अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के मद्देनजर एक ऐसी भविष्य की साझा दृष्टिकोण को पुन: व्याख्यायित करने का प्रयास था जहां भूख, असमानता और गरीबी के बदले आशा-विश्वास के साथ गरिमामय रोजगार के सृजन और पर्यावरण की भव्यता के साथ विकास को व्यवस्था का केन्द्रीय मुद्दा बनाने की बात है। जी.डी.पी. आधारित अर्थव्यवस्था के बदले उपरोक्त अर्थव्यवस्था को एक मांडल की तरह प्रस्तुत किया गया एवं इसे ग्रीन इकॉनामी यानी हरित अर्थव्यस्था का नाम दिया गया। पूरा का पूरा सम्मेलन दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं के इर्द-गिर्द सिमटा था-
पहला- परम्परागत अर्थव्यस्था बनाम ग्रीन इकॉनामी अर्थात अंधाधुंध संसाधनों के शोषण एवं ग्रोथ रेट, जी.डी.पी. आधारित परम्परागत अर्थव्यवस्था बनाम टिकाऊ विकास यानी पर्यावरण संतुलन आधारित गरिमामय हरित रोजगार सृजन करने वाली भूख और गरीबी से मुक्त मानवीय समृद्धि को सूचकांक मानने वाली ग्रीन इकांनामी की स्थापना एवं उसका भविष्य।
दूसरा- इस ग्रीन इकॉनामी से प्रेरित टिकाऊ विकास को सफलतापूर्वक निचले प्रशासनिक हल्कों तक पहुंचाने की आवश्यकता एवं उसके लिए ढांचागत सुविधाओं का विकास।
सभी देशों ने तब से इस महत्वपूर्ण विषय को संज्ञान में लेते हुए जलवायु परिवर्तन, संतुलित ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन एवं स्मार्ट या टिकाऊ विकास जिसे सस्टनेबल डेव्हलपमेंट कहा जा सकता है, की दिशा में संस्थागत प्रयास करने शुरू कर दिये।
इस महा-विश्वसम्मेलन के बीस वर्ष पूरे हो जाने पर यानी 20वीं वर्षगांठ पर वहीं रियो में एक दूसरा विशाल महासम्मेलन हुआ जिसे रियो प्लस ट्वेन्टी महासम्मेलन का नाम दिया गया। यह सम्मेलन 15 से 22 जून तक सम्पन्न हुआ जिसमें 20, 21 एवं 22 जून 2012 तक महासम्मेलन के रूप में चला।
ग्रीन इकांनामी यानी हरित अर्थव्यवस्था
यह महासम्मेलन न केवल पृथ्वी केन्द्रित विकास की अवधारणा के 20 वर्षीय लम्बी यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, बल्कि पिछले 2 दशकों में सामने आये आर्थिक विकास के विभिन्न पहलुओं, आयाम के प्रभावों, दुष्प्रभावों, अर्थव्यवस्था के उतार-चढ़ाव के मद्देनजर एक ऐसी भविष्य की साझा दृष्टिकोण को पुन: व्याख्यायित करने का प्रयास था जहां भूख, असमानता और गरीबी के बदले आशा-विश्वास के साथ गरिमामय रोजगार के सृजन और पर्यावरण की भव्यता के साथ विकास को व्यवस्था का केन्द्रीय मुद्दा बनाने की बात है। जी.डी.पी. आधारित अर्थव्यवस्था के बदले उपरोक्त अर्थव्यवस्था को एक मांडल की तरह प्रस्तुत किया गया एवं इसे ग्रीन इकॉनामी यानी हरित अर्थव्यस्था का नाम दिया गया। पूरा का पूरा सम्मेलन दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं के इर्द-गिर्द सिमटा था-
पहला- परम्परागत अर्थव्यस्था बनाम ग्रीन इकॉनामी अर्थात अंधाधुंध संसाधनों के शोषण एवं ग्रोथ रेट, जी.डी.पी. आधारित परम्परागत अर्थव्यवस्था बनाम टिकाऊ विकास यानी पर्यावरण संतुलन आधारित गरिमामय हरित रोजगार सृजन करने वाली भूख और गरीबी से मुक्त मानवीय समृद्धि को सूचकांक मानने वाली ग्रीन इकांनामी की स्थापना एवं उसका भविष्य।
दूसरा- इस ग्रीन इकॉनामी से प्रेरित टिकाऊ विकास को सफलतापूर्वक निचले प्रशासनिक हल्कों तक पहुंचाने की आवश्यकता एवं उसके लिए ढांचागत सुविधाओं का विकास।
इस महा-विश्वसम्मेलन के बीस वर्ष पूरे हो जाने पर यानी 20वीं वर्षगांठ पर वहीं रियो में एक दूसरा विशाल महासम्मेलन हुआ जिसे रियो प्लस ट्वेन्टी महासम्मेलन का नाम दिया गया। यह सम्मेलन 15 से 22 जून तक सम्पन्न हुआ जिसमें 20, 21 एवं 22 जून 2012 तक महासम्मेलन के रूप में चला।
इन दो बिन्दुओं के अंतर्गत सात उप-विषय भी थे, जिनमें गरिमामय रोजगार, ऊर्जा टिकाऊ कृषि, टिकाऊ शहरीकरण, खाद्यान सुरक्षा, पेयजल सुरक्षा, समुद्रीय एवं पर्यावरणीय आपदा प्रबंधन मुख्य थे।
विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों, वैश्विक एजेन्सियों, कार्पोरेट्स, बैकिंग संस्थाओं एवं सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक स्वयंसेवी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) का तीन दिवसीय यह वैचारिक मंथन ग्रीन इकॉनामी एवं विकसित एवं विकासशील देशों में उनके ढांचागत विकास की संभावनाओं के महत्व को उकेरते हुए खत्म हुआ। जैसा कि वैश्विक सम्मेलनों में होता है, विकसित और विकासशील राष्ट्रों की अपनी प्राथमिकताएं वैश्विक जरूरतों के ऊपर तरजीह पाते हुए नये प्रस्तावों पर विचार करती है। नये विचारों का सम्मान करते हुए भी पुरानी व्यवस्था को आधारभूत जरूरतों में से एक बताया जाता है एवं उसके भीतर ही विचार करने का आश्वासन दिया जाता है। यही इस बार भी हुआ पर एक फर्क के साथ- इस बार जिम्मेदारी के साथ हरित उत्पादन एवं उससे विकसित अर्थव्यवस्था को सबके ऊपर तरजीह देने की दिशा में व्यवस्थित प्रयासों की वर्षवार रूपरेखा की आवश्यकता पर सार्वजनिक सहमति पहली बार बनी।
पहली बार कृषि को भूखमुक्त (हंगर फ्री) विश्व के सबसे महत्वपूर्ण उपाय की तरह चिन्हित, घोषित एवं रेखांकित किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में विभिन्न देशों के स्वयंसेवी संस्थाओं की बड़ी निर्णायक भूमिका रही। इनके तेवरों का पता लेटिन अमेरिका के प्रसिद्ध एन.जी.ओ. लॉ बिना केम्पेनेसिंग के उस सर्वस्वीकृत बयान से भी चलता है कि नौ अरब लोगों के विश्व में छोटे परिवारों के द्वारा संपादित कृषि को हमें सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम का स्थान देना ही होगा। यदि हम भूख मुक्त विश्व चाहते हैं तो छोटी जोत के कृषकों को समृद्ध करने के लिए इस तरह संस्थागत निर्णय लेने होंगे, जिससे आधुनिकतम तकनीकी एवं नवीन अन्वेषण इनकी जद में रहे एवं छोटे परिवारों के द्वारा कृषि को मजबूत करे। एक अन्य यूरोपीय समाजसेवी संस्था का कथन था छोटे किसानों की भागीदारी के बिना ग्रीन इकॉनामी ग्रीनवांस यानी हरित धोखा होगी- कार्पोरेट आधारित एग्रीबिजनेस का मांडल विश्व को भयंकर भूख एवं गरीबी के विस्फोटक कगार पर ला खड़ा करेगा।
प्रसिद्ध टेब्लायड अखबार टेरा-विवा ने 22 जून के अपने संपादकीय रियो-रिवीव में लिखा- कनाडा में हुए पिछली जनगणना में छोटे किसानों की संख्या में जबर्दस्त गिरावट आयी है, जिसका मुख्य कारण कृषि समाधान (फार्म सोल्यूशंस) के नाम पर किये गये कारनामे रहे हैं, अब समय आ गया है कि वैश्विक तौर पर मनुष्य को संतुष्टि दे सकें ऐसी ग्रीन इकोनामी के बारे में विचार किया जाये, जिसमें विकास का पैमाना केवल जी.डी.पी. न होकर, समग्र समृद्धि हो, जिसे व्यक्ति, रोजगार, मूल्य, गरिमा, समान इक्विटी एवं पर्यावरणीय संतुलन के सूचकांकों से तय किया जाये।
अलग-अलग प्रकोष्ठों जैसे- बायोडायवर्सिटी, जलवायु परिवर्तन एवं सस्टेनेबल डेव्हलपमेंट कमीशन की मीटिंग में भी यही बात जोर-शोर से उठी एवं एक राय बनाने की दिशा में बातें तय हुई। हालांकि यह महासम्मेलन विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय बहुस्तरीय मसौदे पर एग्रीमेन्ट बनाने में अपेक्षित रूप से कारगर नहीं रहा- पर पहली बार राष्ट्रों के भीतर स्थित विभिन्न निकायों, एजेन्सियों एवं राज्यों के लिए पांलिसी- फ्रेमवर्क की रूपरेखा तैयार करने पर सहमति हुई जिससे स्थानीय स्तर पर यह दृष्टिकोण एक कार्यक्रम में बदल सके।
इस नजरिये से यह सम्मेलन यू.एन. के इतिहास में शायद सबसे व्यापक और कार्योन्मुखी सम्मेलन रहा। इस पूरे सम्मेलन के दौरान छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व दो अर्थों में काफी महत्वपूर्ण रहा। पहला हमारे राज्य के लगभग 75-80 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत कृषक है- अन्य अर्थों में यह राज्य छोटे परिवारों के द्वारा की जाने वाली कृषि का सबसे बड़ा प्रतिनिधि राज्य है, जिनके लिए अब हरित अर्थव्यवयस्था एक महत्वपूर्ण आयाम है एवं राज्य के टिकाऊ विकास के लिए नयी संभावना एवं हरित रोजगार (ग्रीन एम्प्लायमेंट) पैदा करने की संभावना रखता है।
दूसरा 46 प्रतिशत वनों से आच्छादित राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ तभी सफ ल और समृद्ध हो सकता है जब यह सार्वजनिक हरित अर्थव्यवस्था पर आधारित (Universal Green Economy Based) विकास के अपने पैमाने स्वयं निर्धारित एवं चिन्हांकित करे एवं इस दिशा में विकसित होने के लिए आधारभूत संरचनाए बनाये।
इस दिशा में रियो $20 के द्वारा विकसित किये जा रहे विकास के मानक सूचकांक (इंडीकेटर्स) एवं उसके निर्माण की प्रक्रिया के साथ निरंतर संवाद काफी प्रेरक एवं सार्थक होंगे।
विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों, वैश्विक एजेन्सियों, कार्पोरेट्स, बैकिंग संस्थाओं एवं सबसे महत्वपूर्ण सामाजिक स्वयंसेवी संस्थाओं (एन.जी.ओ.) का तीन दिवसीय यह वैचारिक मंथन ग्रीन इकॉनामी एवं विकसित एवं विकासशील देशों में उनके ढांचागत विकास की संभावनाओं के महत्व को उकेरते हुए खत्म हुआ। जैसा कि वैश्विक सम्मेलनों में होता है, विकसित और विकासशील राष्ट्रों की अपनी प्राथमिकताएं वैश्विक जरूरतों के ऊपर तरजीह पाते हुए नये प्रस्तावों पर विचार करती है। नये विचारों का सम्मान करते हुए भी पुरानी व्यवस्था को आधारभूत जरूरतों में से एक बताया जाता है एवं उसके भीतर ही विचार करने का आश्वासन दिया जाता है। यही इस बार भी हुआ पर एक फर्क के साथ- इस बार जिम्मेदारी के साथ हरित उत्पादन एवं उससे विकसित अर्थव्यवस्था को सबके ऊपर तरजीह देने की दिशा में व्यवस्थित प्रयासों की वर्षवार रूपरेखा की आवश्यकता पर सार्वजनिक सहमति पहली बार बनी।
पहली बार कृषि को भूखमुक्त (हंगर फ्री) विश्व के सबसे महत्वपूर्ण उपाय की तरह चिन्हित, घोषित एवं रेखांकित किया गया। इस पूरी प्रक्रिया में विभिन्न देशों के स्वयंसेवी संस्थाओं की बड़ी निर्णायक भूमिका रही। इनके तेवरों का पता लेटिन अमेरिका के प्रसिद्ध एन.जी.ओ. लॉ बिना केम्पेनेसिंग के उस सर्वस्वीकृत बयान से भी चलता है कि नौ अरब लोगों के विश्व में छोटे परिवारों के द्वारा संपादित कृषि को हमें सबसे महत्वपूर्ण उपक्रम का स्थान देना ही होगा। यदि हम भूख मुक्त विश्व चाहते हैं तो छोटी जोत के कृषकों को समृद्ध करने के लिए इस तरह संस्थागत निर्णय लेने होंगे, जिससे आधुनिकतम तकनीकी एवं नवीन अन्वेषण इनकी जद में रहे एवं छोटे परिवारों के द्वारा कृषि को मजबूत करे। एक अन्य यूरोपीय समाजसेवी संस्था का कथन था छोटे किसानों की भागीदारी के बिना ग्रीन इकॉनामी ग्रीनवांस यानी हरित धोखा होगी- कार्पोरेट आधारित एग्रीबिजनेस का मांडल विश्व को भयंकर भूख एवं गरीबी के विस्फोटक कगार पर ला खड़ा करेगा।
प्रसिद्ध टेब्लायड अखबार टेरा-विवा ने 22 जून के अपने संपादकीय रियो-रिवीव में लिखा- कनाडा में हुए पिछली जनगणना में छोटे किसानों की संख्या में जबर्दस्त गिरावट आयी है, जिसका मुख्य कारण कृषि समाधान (फार्म सोल्यूशंस) के नाम पर किये गये कारनामे रहे हैं, अब समय आ गया है कि वैश्विक तौर पर मनुष्य को संतुष्टि दे सकें ऐसी ग्रीन इकोनामी के बारे में विचार किया जाये, जिसमें विकास का पैमाना केवल जी.डी.पी. न होकर, समग्र समृद्धि हो, जिसे व्यक्ति, रोजगार, मूल्य, गरिमा, समान इक्विटी एवं पर्यावरणीय संतुलन के सूचकांकों से तय किया जाये।
अलग-अलग प्रकोष्ठों जैसे- बायोडायवर्सिटी, जलवायु परिवर्तन एवं सस्टेनेबल डेव्हलपमेंट कमीशन की मीटिंग में भी यही बात जोर-शोर से उठी एवं एक राय बनाने की दिशा में बातें तय हुई। हालांकि यह महासम्मेलन विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य अंतर्राष्ट्रीय बहुस्तरीय मसौदे पर एग्रीमेन्ट बनाने में अपेक्षित रूप से कारगर नहीं रहा- पर पहली बार राष्ट्रों के भीतर स्थित विभिन्न निकायों, एजेन्सियों एवं राज्यों के लिए पांलिसी- फ्रेमवर्क की रूपरेखा तैयार करने पर सहमति हुई जिससे स्थानीय स्तर पर यह दृष्टिकोण एक कार्यक्रम में बदल सके।
इस नजरिये से यह सम्मेलन यू.एन. के इतिहास में शायद सबसे व्यापक और कार्योन्मुखी सम्मेलन रहा। इस पूरे सम्मेलन के दौरान छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधित्व दो अर्थों में काफी महत्वपूर्ण रहा। पहला हमारे राज्य के लगभग 75-80 प्रतिशत किसान लघु और सीमांत कृषक है- अन्य अर्थों में यह राज्य छोटे परिवारों के द्वारा की जाने वाली कृषि का सबसे बड़ा प्रतिनिधि राज्य है, जिनके लिए अब हरित अर्थव्यवयस्था एक महत्वपूर्ण आयाम है एवं राज्य के टिकाऊ विकास के लिए नयी संभावना एवं हरित रोजगार (ग्रीन एम्प्लायमेंट) पैदा करने की संभावना रखता है।
दूसरा 46 प्रतिशत वनों से आच्छादित राज्य अपने प्राकृतिक संसाधनों के साथ तभी सफ ल और समृद्ध हो सकता है जब यह सार्वजनिक हरित अर्थव्यवस्था पर आधारित (Universal Green Economy Based) विकास के अपने पैमाने स्वयं निर्धारित एवं चिन्हांकित करे एवं इस दिशा में विकसित होने के लिए आधारभूत संरचनाए बनाये।
इस दिशा में रियो $20 के द्वारा विकसित किये जा रहे विकास के मानक सूचकांक (इंडीकेटर्स) एवं उसके निर्माण की प्रक्रिया के साथ निरंतर संवाद काफी प्रेरक एवं सार्थक होंगे।
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