- डॉ. मिथिलेश दीक्षित
आज भारत, पूरे विश्व में ज्ञान, विज्ञान एवं विकास के विविध क्षेत्रों में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभरकर आ रहा है। अनेक क्षेत्रों में महिलाओं की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जा रही है, भले ही सदियों से भारतीय नारी की संघर्षों में पिसने की मजबूरी रही हो, घर की चहारदीवारी में कैद रहने की मजबूरी रही हो, परन्तु अब उसे सम्मान प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। परिवारों में जागृति आयी है और महिलाएँ अपने अधिकारों के प्रति सजग होने लगीं। उन्हें अनेक ऐसे सुअवसर मिलते गये कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उनकी सहभागिता बढऩे लगी है।
प्रसिद्ध रचनाकार कृष्णा सोबती आशान्वित होकर कहती हैं- 'भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और पारिवारिक चौखटों को लेकर एक गहरी नैतिक हलचल, दूरगामी परिवर्तन और प्रभाव लक्षित है। एक तरफ स्त्री- आरक्षण की राजनीतिक चेतना और दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर पर नयी स्त्री की उपस्थिति अपनी ऊर्जा से नये उत्साह का संचार कर रही है।'
वर्तमान समय उत्साहजनक होने के बावजूद सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए आज भी महिलाओं को अनेक क्षेत्रों में जागरूक होने की आवश्यकता है। अन्धविश्वास, मिथ्या कर्मकाण्ड, साम्प्रदायिकता आदि को दूर करने के लिए महिलाओं को पहल करनी होगी। स्वस्थ मानसिकता से कोई भी विकास शीघ्रता से होता है। 'जागृति का अर्थ उन्मुक्तता और स्वच्छन्दता नहीं है और न पुरूषों के बराबर उनके जैसा होना या उनसे आगे जाना है। स्त्री का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी है और उसमें प्रकृति प्रदत्त अपने विभिन्न सहजगुण भी है। साथ ही स्त्री और पुरूष दोनों जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं, जो एक- दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। जीवन के कुछ क्षेत्रों में तो स्त्री का दायित्व पुरुष से भी बढ़कर है। पूरे परिवार की व्यवस्था की वह स्वामिनी होती है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी यह बात समझनी चाहिए कि सामाजिक बुराइयों को अब स्त्री शक्ति द्वारा पहल करने पर ही आसानी से दूर किया जा सकता है। सही रूप में आधुनिक बनने के लिए फैशन व शारीरिक सज्जा आवश्यक नहीं, विचारों में परिवर्तन आवश्यक है। जहाँ तक स्त्री- पुरुष के समानाधिकार की बात है उसके लिए कोरे उपदेश नहीं, क्रियान्वयन की आवश्यकता है।'
देश के लिए भारतीय नारी ने बड़ा से बड़ा बलिदान दिया है। नारियों के त्याग और बलिदान की एक गौरवशाली परम्परा भी रही है। भारत के स्वाधीनता- आन्दोलन में भारतीय युवतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, परन्तु प्राय: देखा गया है कि नारी- विषयक सामाजिक समस्याओं के प्रति नारी जगत में अपेक्षाकृत अधिक उदासीनता रही है। नारी- शोषण के विरोध में भी उनका स्वर दबा हुआ रहा है। जिसके लिए न केवल पुरुष दोषी है और न केवल स्त्री। इन सबके अनेक परम्परागत और मनोवैज्ञानिक कारण रहे हैं। शिक्षा का अभाव भी एक प्रमुख कारण रहा है। हमारे देश के महान चिन्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा अन्य महापुरुषों के प्रयासों से स्त्री की समुचित शिक्षा का व्यापक रूप से प्रचार- प्रसार हुआ। अब तो विभिन्न शैक्षिक- शैक्षणिक क्षेत्रों में अपने देश की युवतियाँ भारत में ही नहीं, विश्व में अपना स्थान बना रही हैं। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ- साथ अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ भी नारी कल्याण, महिला उत्थान, नारी शिक्षा और जागृति के लिए कार्य कर रही हैं। महिला साक्षरता का देशव्यापी कार्यक्रम चलाया जा रहा है। परन्तु और अधिक जागृति की आवश्यकता है। एक सच्चाई यह भी है कि नगरीय क्षेत्रों की महिलाएँ ही प्राय: विविध परिदृश्यों में अपनी भूमिका प्रत्यक्षत: निभाती आयी हैं जबकि ग्राम्य क्षेत्रों की महिलाओं में आज भी पर्याप्त जागृति नहीं आयी है। उनका पूरा जीवन घर परिवार के लिए समर्पित है, परन्तु उन्हें उनके पूरे अधिकार नहीं मिल पाते हैं। उनकी क्षमताओं का भी सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है। उनमें जो सहज प्रतिभा होती है, वह बिखरकर नष्ट हो जाती है। अपने देश में कृषि- व्यवसाय और खाद्य- सुरक्षा में ग्रामीण महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। यह एक बड़ा कार्य है, जिसका भारत की ग्राम्य- महिलाएँ पूरी निष्ठा से निर्वहन कर रही हैं। स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, राष्ट्रीय रोजगार मिशन, जननी सुरक्षा योजना, राजीव गांधी किशोरी सशक्तीकरण योजना, महात्मा गान्धी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना आदि महत्वपूर्ण हैं।
ग्रामीण महिलाओं की भूमिका को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सन् 2008 में 'अन्तरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस' (15 अक्टूबर) घोषित किया गया था। सन् 1975 में अन्तरराष्ट्रीय महिला वर्ष पूरे विश्व में मनाया गया था। उसके बाद महिलाओं से सम्बन्धित अनेक संगठन बने, अनेक समितियाँ, अनेक पत्रिकाएँ प्रकाश में आयीं। स्थान- स्थान पर स्त्री- मुक्ति को लेकर समितियाँ- सम्मेलन भी होने लगे। मार्च, 1982 में प्रथम उत्तर प्रदेश महिला सम्मेलन आगरा में हुआ था, उससे बहुत प्रचार- प्रसार हुआ। नारी की भूमिका और अधिकार के लिए महिलाओं से सम्बन्धित अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी स्थापित होकर सक्रिय होने लगीं। उनमें से एक अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन संस्था भी है, जिससे देश के सभी प्रान्तों की भारी संख्या में महिला सर्जक जुड़ी हुई हैं।
महिला- सुरक्षा आज भी एक बड़ी समस्या है, जबकि भारत सरकार की ओर से 'राष्ट्रीय महिला आयोग' की स्थापना की गयी है और राज्य स्तर पर भी उसका क्रियान्वयन हो रहा है। इस आयोग के अतिरिक्त महिला अधिकारों की सुरक्षा हेतु तथा उनकी भूमिका के प्रति जागरूकता हेतु विगत कुछ वर्षों से गैर सरकारी संगठन भी कार्यरत हैं।
नारी के व्यक्तित्व के विकास, उन्नयन, उसकी शिक्षा और जागृति आदि की नींव, वस्तुत: घर से ही प्रारम्भ होती है। पुत्री के रूप में उसका पोषण मुख्य रूप से माता के द्वारा ही होता है। घर में माता की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। 'घर एक आदर्श स्थल होता है जहाँ बच्चों को सीखने के विविध अवसर मिलते हैं। माता पूरे घर की स्वामिनी होती है और बालक के वर्तमान तथा भविष्य की निर्मात्री भी। मनुष्य के चरित्र- निर्माण और व्यक्तितत्व- विकास की प्रक्रिया बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है। संसार में, महापुरूषों से सम्बन्धित अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें माता की भूमिका सर्वोपरि रही है। अपनी माताओं के द्वारा दी गयी उचित शिक्षा- दीक्षा और संस्कारों के कारण अनेक व्यक्ति संसार के इतिहास में महापुरूष कहलाए और प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। माता का जागरूक और शिक्षित होना इसलिए भी आवश्यक है, ताकि वह बच्चों में समुचित नैतिक संस्कार डाल सके। स्वस्थ विकास न होने के कारण बालक का पूरा जीवन प्रभावित होता है और जिस समाज में वह रहता है, उसमें सहयोग करना तो दूर, उसे भी दुर्बल बनाने का वह कारण बन जाता है। ...उसके सम्पूर्ण विकास की नींव माता के द्वारा ही पड़ती है और घर के वातावरण का बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है। प्रेमपूर्ण अनुशासित स्वस्थ वातावरण में पलकर बालक बाद में स्वस्थ व्यक्तित्व का स्वामी बनता है।'
इस प्रकार शिक्षा एवं व्यक्तित्व- विकास की प्रक्रिया घर से विद्यालय तक और विद्यालय से समाज तक होती है। इसमें घर सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसका दायित्व गृहस्वामिनी या माता का होता है। आज के मशीनी माहौल में ममता का भी मशीनीकरण होने लगा है। इस ओर भी महिलाओं को अपनी भूमिका के प्रति सच्चा होना है।
रचनात्मक दिशा में भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा है। हिंसा, अन्याय, शोषण, असमानता के खिलाफ महिला रचनाकारों ने अपनी आवाज उठायी है। महिलाओं की सशक्त भूमिका के लिए और उनको केन्द्रीय धारा में लाने के लिए महिला रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से महत्वपूर्ण पृठभूमि तैयार की है। मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, ममता कालिया, कमल कपूर, मन्नू भण्डारी, मृणाल पाण्डेय आदि अनेक महिला रचनाकारों ने अपनी कहानियों और समीक्षा के माध्यम से नारी- अस्मिता एवं नारी- विमर्श पर प्रकाश डाला है।
साहित्य में नारी- लेखन नारी की अस्मिता और संघर्षों से जुड़ा है। महादेवी वर्मा ने नारी- जागृति की बात करते हुए स्पष्ट किया कि विकास- पथ पर अग्रसर होकर नारी पुरूष का साथ देकर उसकी यात्रा को सुगम बनाती रही है। कविता के क्षेत्र में सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा से लेकर अब तक हजारों कवयित्रियों ने काव्य की विविध विधाओं में अपनी पहचान बनायी है।
लोकतान्त्रिक दृष्टि से देखें तो हमारे देश में महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार मिले हैं, परन्तु राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत बहुत कम है। इसमें सन्देह नहीं कि राजनीति में बढ़ती हुई अभिरुचि और उनका पदार्पण देश के सामाजिक उत्थान का एक बड़ा और सकारात्मक संकेत है।
किसी राजनीतिक महिला का समाज से सीधा और बहुत समीप का नाता होता है। वह जनता की प्रतिनिधि बनकर समाज के पटल पर आती है, अत: जनता की विभिन्न समस्याओं का निराकरण करना- कराना उसका दायित्व बन जाता है। यह भी दायित्व बन जाता है कि वह जनता के दु:ख- कष्टों की तटस्थ दर्शक न होकर सच्ची साथी और सहयोगी बने। एक राजनीतिक महिला को सर्वप्रथम अपने व्यक्तित्व को प्रभावी बनाना होगा और अपनी छवि को जनता के बीच इस प्रकार प्रस्तुत करना होगा कि जनता उसे अपना हितैषी और सहयोगी समझे। साथ ही, ऐसे अनेक निर्णयात्मक पहलू हैं, जिन्हें वह धर्म-निरपेक्ष, जाति-निरपेक्ष होकर, मानवीय मूल्यों की पक्षधर होकर, लोकतान्त्रिक दृष्टि से सुलझाने में समर्थ हो सकती है। उसे अपनी दृष्टि विस्तृत कर, दिशा सुनिश्चित कर लेनी चाहिए। तभी वह राजनीतिक के साथ- साथ राजनीतिज्ञ भी बन सकती है। अभी भले ही आरक्षण उसका कवच हो, एक दिन आवश्य आयेगा, जब पंचायत स्तर पर या अन्य क्षेत्रों में उसे किसी आरक्षण की दरकार नहीं होगी और वह अपने कर्त्तव्य तथा अधिकारों के प्रति और अधिक जागरूक बन जायेगी।
अन्त में स्त्री- स्वतंत्रता या स्त्री- जागरण का यह अर्थ भी है कि उसे अन्याय, अत्याचार, अनैतिकता और शोषण का विरोध करना है। उचित, नैतिक, न्यायोचित विषय के लिए और श्रेयस्कर बातों के प्रति सहयोग और इनके विपरीत बातों के प्रति असहयोग भी करना है। इस प्रकार, अपने देश में महिलाओं की स्थिति, भूमिका और अधिकारों के लिए हम सबको मिल- जुलकर सार्थक प्रयास करना होगा जिससे देश में एक वैचारिक क्रान्ति आये और महिलाओं की सर्वांगीण उन्नति हो।
संपर्क: जी- 91, सी, संजय गान्धीपुरम, लखनऊ- 226016
मो: 9412549904, Email- mithileshdixit01@gmail.com
महिला- सुरक्षा आज भी एक बड़ी समस्या है, जबकि भारत सरकार की ओर से 'राष्ट्रीय महिला आयोग' की स्थापना की गयी है और राज्य स्तर पर भी उसका क्रियान्वयन हो रहा है। इस आयोग के अतिरिक्त महिला अधिकारों की सुरक्षा हेतु तथा उनकी भूमिका के प्रति जागरूकता हेतु विगत कुछ वर्षों से गैर सरकारी संगठन भी कार्यरत हैं।
प्रसिद्ध रचनाकार कृष्णा सोबती आशान्वित होकर कहती हैं- 'भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों और पारिवारिक चौखटों को लेकर एक गहरी नैतिक हलचल, दूरगामी परिवर्तन और प्रभाव लक्षित है। एक तरफ स्त्री- आरक्षण की राजनीतिक चेतना और दूसरी ओर राष्ट्रीय स्तर पर नयी स्त्री की उपस्थिति अपनी ऊर्जा से नये उत्साह का संचार कर रही है।'
वर्तमान समय उत्साहजनक होने के बावजूद सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए आज भी महिलाओं को अनेक क्षेत्रों में जागरूक होने की आवश्यकता है। अन्धविश्वास, मिथ्या कर्मकाण्ड, साम्प्रदायिकता आदि को दूर करने के लिए महिलाओं को पहल करनी होगी। स्वस्थ मानसिकता से कोई भी विकास शीघ्रता से होता है। 'जागृति का अर्थ उन्मुक्तता और स्वच्छन्दता नहीं है और न पुरूषों के बराबर उनके जैसा होना या उनसे आगे जाना है। स्त्री का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व भी है और उसमें प्रकृति प्रदत्त अपने विभिन्न सहजगुण भी है। साथ ही स्त्री और पुरूष दोनों जीवन के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं, जो एक- दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। जीवन के कुछ क्षेत्रों में तो स्त्री का दायित्व पुरुष से भी बढ़कर है। पूरे परिवार की व्यवस्था की वह स्वामिनी होती है। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी यह बात समझनी चाहिए कि सामाजिक बुराइयों को अब स्त्री शक्ति द्वारा पहल करने पर ही आसानी से दूर किया जा सकता है। सही रूप में आधुनिक बनने के लिए फैशन व शारीरिक सज्जा आवश्यक नहीं, विचारों में परिवर्तन आवश्यक है। जहाँ तक स्त्री- पुरुष के समानाधिकार की बात है उसके लिए कोरे उपदेश नहीं, क्रियान्वयन की आवश्यकता है।'
देश के लिए भारतीय नारी ने बड़ा से बड़ा बलिदान दिया है। नारियों के त्याग और बलिदान की एक गौरवशाली परम्परा भी रही है। भारत के स्वाधीनता- आन्दोलन में भारतीय युवतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, परन्तु प्राय: देखा गया है कि नारी- विषयक सामाजिक समस्याओं के प्रति नारी जगत में अपेक्षाकृत अधिक उदासीनता रही है। नारी- शोषण के विरोध में भी उनका स्वर दबा हुआ रहा है। जिसके लिए न केवल पुरुष दोषी है और न केवल स्त्री। इन सबके अनेक परम्परागत और मनोवैज्ञानिक कारण रहे हैं। शिक्षा का अभाव भी एक प्रमुख कारण रहा है। हमारे देश के महान चिन्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा अन्य महापुरुषों के प्रयासों से स्त्री की समुचित शिक्षा का व्यापक रूप से प्रचार- प्रसार हुआ। अब तो विभिन्न शैक्षिक- शैक्षणिक क्षेत्रों में अपने देश की युवतियाँ भारत में ही नहीं, विश्व में अपना स्थान बना रही हैं। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ- साथ अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ भी नारी कल्याण, महिला उत्थान, नारी शिक्षा और जागृति के लिए कार्य कर रही हैं। महिला साक्षरता का देशव्यापी कार्यक्रम चलाया जा रहा है। परन्तु और अधिक जागृति की आवश्यकता है। एक सच्चाई यह भी है कि नगरीय क्षेत्रों की महिलाएँ ही प्राय: विविध परिदृश्यों में अपनी भूमिका प्रत्यक्षत: निभाती आयी हैं जबकि ग्राम्य क्षेत्रों की महिलाओं में आज भी पर्याप्त जागृति नहीं आयी है। उनका पूरा जीवन घर परिवार के लिए समर्पित है, परन्तु उन्हें उनके पूरे अधिकार नहीं मिल पाते हैं। उनकी क्षमताओं का भी सही मूल्यांकन नहीं हो पाता है। उनमें जो सहज प्रतिभा होती है, वह बिखरकर नष्ट हो जाती है। अपने देश में कृषि- व्यवसाय और खाद्य- सुरक्षा में ग्रामीण महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। यह एक बड़ा कार्य है, जिसका भारत की ग्राम्य- महिलाएँ पूरी निष्ठा से निर्वहन कर रही हैं। स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, राष्ट्रीय रोजगार मिशन, जननी सुरक्षा योजना, राजीव गांधी किशोरी सशक्तीकरण योजना, महात्मा गान्धी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना आदि महत्वपूर्ण हैं।
ग्रामीण महिलाओं की भूमिका को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सन् 2008 में 'अन्तरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस' (15 अक्टूबर) घोषित किया गया था। सन् 1975 में अन्तरराष्ट्रीय महिला वर्ष पूरे विश्व में मनाया गया था। उसके बाद महिलाओं से सम्बन्धित अनेक संगठन बने, अनेक समितियाँ, अनेक पत्रिकाएँ प्रकाश में आयीं। स्थान- स्थान पर स्त्री- मुक्ति को लेकर समितियाँ- सम्मेलन भी होने लगे। मार्च, 1982 में प्रथम उत्तर प्रदेश महिला सम्मेलन आगरा में हुआ था, उससे बहुत प्रचार- प्रसार हुआ। नारी की भूमिका और अधिकार के लिए महिलाओं से सम्बन्धित अनेक साहित्यिक संस्थाएँ भी स्थापित होकर सक्रिय होने लगीं। उनमें से एक अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन संस्था भी है, जिससे देश के सभी प्रान्तों की भारी संख्या में महिला सर्जक जुड़ी हुई हैं।
महिला- सुरक्षा आज भी एक बड़ी समस्या है, जबकि भारत सरकार की ओर से 'राष्ट्रीय महिला आयोग' की स्थापना की गयी है और राज्य स्तर पर भी उसका क्रियान्वयन हो रहा है। इस आयोग के अतिरिक्त महिला अधिकारों की सुरक्षा हेतु तथा उनकी भूमिका के प्रति जागरूकता हेतु विगत कुछ वर्षों से गैर सरकारी संगठन भी कार्यरत हैं।
नारी के व्यक्तित्व के विकास, उन्नयन, उसकी शिक्षा और जागृति आदि की नींव, वस्तुत: घर से ही प्रारम्भ होती है। पुत्री के रूप में उसका पोषण मुख्य रूप से माता के द्वारा ही होता है। घर में माता की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। 'घर एक आदर्श स्थल होता है जहाँ बच्चों को सीखने के विविध अवसर मिलते हैं। माता पूरे घर की स्वामिनी होती है और बालक के वर्तमान तथा भविष्य की निर्मात्री भी। मनुष्य के चरित्र- निर्माण और व्यक्तितत्व- विकास की प्रक्रिया बाल्यावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है। संसार में, महापुरूषों से सम्बन्धित अनेक ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें माता की भूमिका सर्वोपरि रही है। अपनी माताओं के द्वारा दी गयी उचित शिक्षा- दीक्षा और संस्कारों के कारण अनेक व्यक्ति संसार के इतिहास में महापुरूष कहलाए और प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। माता का जागरूक और शिक्षित होना इसलिए भी आवश्यक है, ताकि वह बच्चों में समुचित नैतिक संस्कार डाल सके। स्वस्थ विकास न होने के कारण बालक का पूरा जीवन प्रभावित होता है और जिस समाज में वह रहता है, उसमें सहयोग करना तो दूर, उसे भी दुर्बल बनाने का वह कारण बन जाता है। ...उसके सम्पूर्ण विकास की नींव माता के द्वारा ही पड़ती है और घर के वातावरण का बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है। प्रेमपूर्ण अनुशासित स्वस्थ वातावरण में पलकर बालक बाद में स्वस्थ व्यक्तित्व का स्वामी बनता है।'
इस प्रकार शिक्षा एवं व्यक्तित्व- विकास की प्रक्रिया घर से विद्यालय तक और विद्यालय से समाज तक होती है। इसमें घर सर्वाधिक महत्वपूर्ण कड़ी है, जिसका दायित्व गृहस्वामिनी या माता का होता है। आज के मशीनी माहौल में ममता का भी मशीनीकरण होने लगा है। इस ओर भी महिलाओं को अपनी भूमिका के प्रति सच्चा होना है।
रचनात्मक दिशा में भूमण्डलीकरण के बोध ने महिलाओं की शक्ति को उभारा है। हिंसा, अन्याय, शोषण, असमानता के खिलाफ महिला रचनाकारों ने अपनी आवाज उठायी है। महिलाओं की सशक्त भूमिका के लिए और उनको केन्द्रीय धारा में लाने के लिए महिला रचनाकारों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से महत्वपूर्ण पृठभूमि तैयार की है। मृदुला गर्ग, उषा प्रियंवदा, चित्रा मुद्गल, सुधा अरोरा, ममता कालिया, कमल कपूर, मन्नू भण्डारी, मृणाल पाण्डेय आदि अनेक महिला रचनाकारों ने अपनी कहानियों और समीक्षा के माध्यम से नारी- अस्मिता एवं नारी- विमर्श पर प्रकाश डाला है।
साहित्य में नारी- लेखन नारी की अस्मिता और संघर्षों से जुड़ा है। महादेवी वर्मा ने नारी- जागृति की बात करते हुए स्पष्ट किया कि विकास- पथ पर अग्रसर होकर नारी पुरूष का साथ देकर उसकी यात्रा को सुगम बनाती रही है। कविता के क्षेत्र में सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा से लेकर अब तक हजारों कवयित्रियों ने काव्य की विविध विधाओं में अपनी पहचान बनायी है।
लोकतान्त्रिक दृष्टि से देखें तो हमारे देश में महिलाओं को पुरुषों के समान ही अधिकार मिले हैं, परन्तु राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत बहुत कम है। इसमें सन्देह नहीं कि राजनीति में बढ़ती हुई अभिरुचि और उनका पदार्पण देश के सामाजिक उत्थान का एक बड़ा और सकारात्मक संकेत है।
किसी राजनीतिक महिला का समाज से सीधा और बहुत समीप का नाता होता है। वह जनता की प्रतिनिधि बनकर समाज के पटल पर आती है, अत: जनता की विभिन्न समस्याओं का निराकरण करना- कराना उसका दायित्व बन जाता है। यह भी दायित्व बन जाता है कि वह जनता के दु:ख- कष्टों की तटस्थ दर्शक न होकर सच्ची साथी और सहयोगी बने। एक राजनीतिक महिला को सर्वप्रथम अपने व्यक्तित्व को प्रभावी बनाना होगा और अपनी छवि को जनता के बीच इस प्रकार प्रस्तुत करना होगा कि जनता उसे अपना हितैषी और सहयोगी समझे। साथ ही, ऐसे अनेक निर्णयात्मक पहलू हैं, जिन्हें वह धर्म-निरपेक्ष, जाति-निरपेक्ष होकर, मानवीय मूल्यों की पक्षधर होकर, लोकतान्त्रिक दृष्टि से सुलझाने में समर्थ हो सकती है। उसे अपनी दृष्टि विस्तृत कर, दिशा सुनिश्चित कर लेनी चाहिए। तभी वह राजनीतिक के साथ- साथ राजनीतिज्ञ भी बन सकती है। अभी भले ही आरक्षण उसका कवच हो, एक दिन आवश्य आयेगा, जब पंचायत स्तर पर या अन्य क्षेत्रों में उसे किसी आरक्षण की दरकार नहीं होगी और वह अपने कर्त्तव्य तथा अधिकारों के प्रति और अधिक जागरूक बन जायेगी।
अन्त में स्त्री- स्वतंत्रता या स्त्री- जागरण का यह अर्थ भी है कि उसे अन्याय, अत्याचार, अनैतिकता और शोषण का विरोध करना है। उचित, नैतिक, न्यायोचित विषय के लिए और श्रेयस्कर बातों के प्रति सहयोग और इनके विपरीत बातों के प्रति असहयोग भी करना है। इस प्रकार, अपने देश में महिलाओं की स्थिति, भूमिका और अधिकारों के लिए हम सबको मिल- जुलकर सार्थक प्रयास करना होगा जिससे देश में एक वैचारिक क्रान्ति आये और महिलाओं की सर्वांगीण उन्नति हो।
संपर्क: जी- 91, सी, संजय गान्धीपुरम, लखनऊ- 226016
मो: 9412549904, Email- mithileshdixit01@gmail.com
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नारी जागरण के लिए सशक्त आलेख.
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