गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे
- विजय जोशी
द्वापर का एक बड़ा रोचक प्रसंग है। लौकिक जीवन के अंतिम क्षणों में कृष्ण जब देह से विदेह हो रहे थे तो उनके स्मृति पटल पर केवल राधा की छवि अंकित थी। अस्तु उन्होंने अपने प्रिय बालसखा उद्धव को यह गुरूतर भार सौंपा कि उनके निर्वाण का समाचार उसी राधा तक पहुँचाए, जो उनकी सर्वाधिक प्रिय थी।
उद्धव भारी मन से किसी तरह चलकर संध्याकाल गोकुल पहुँचे। उनकी सारी रात बगैर पलक झपके आंखों में कटी। रात के अंतिम पहर यमुना में स्नान किया और भारी मन से जैसे- तैसे पूरा साहस जुटाते हुए जब वे राधा के समक्ष उपस्थित हुए तथा कृष्ण के धरा त्याग का समाचार अवरूद्ध कंठ से सुनाया तो वह जोर से हँस उठी और कहा- कृष्ण और मृत्यु। हे उद्धव! यह कैसी अजीब सी बात तुम कर रहे हो। तब तो बाल सखा होकर भी तुमने कृष्ण को नहीं जाना। क्या तुम्हें गोकुल के कदंब, पेड़, पत्ते, कुसुम, लता व पक्षियों की चहचहाहट देखकर भी यह नहीं लगता कि कृष्ण तो इन सब में व्याप्त हैं। अरे वे तो कण- कण में समाये हैं और जो ऐसा है, वह भला मृत्यु को कैसे प्राप्त हो सकता है।
इक्कीसवीं सदी में इस समग्र दर्शन का एकमात्र जीवंत, जागृत तथा सार्थक उदाहरण केवल महात्मा गाँधी का है। गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे। एक ऐसा विचार जो समूची मानवता को जीवन का नया दर्शन देकर प्रस्थान कर गया। वह बादलों में ढंके सूर्य के समान कुछ समय के लिये दृष्टि से ओझल तो हो सकता है, किन्तु छुप नहीं सकता।
लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि उनके विचारों को जीवन में अंगीकार करने के बजाय हमने उन्हें पोस्ट कार्ड और करंसी नोट पर छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। चौराहों पर लगे बुतों को साल में एक बार धुलवा कर माला पहनाते हुए स्वयं को सच्चा देशभक्त व धन्य मान लिया। वर्ष के शेष दिन तो वे केवल पक्षियों के सखा बनकर रह गए।
एक फैंटेसी स्वप्न में साक्षात्कार- एक बार संयोग से स्वप्न में जब मेरी महात्मा गाँधी से मुलाकात हुई तो उनका सबसे पहला प्रश्न था- कैसा है मेरा भारत, जिसकी आजादी के लिये अनेकों ने अपना जीवन होम कर दिया।
मैंने कहा- बेहद सुंदर। आपके सारे शिष्य तो युग निर्माण योजना के अनन्य उपासक हैं- हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा अर्थात पहले खुद, घर, परिवार, नाते- रिश्तेदारों को सुख- सुविधा संपन्न बनाकर सुधार लिया और अब देश के आम जन की दशा सुधारने की कोशिश में व्यस्त हैं।
मैंने कहा- बेहद सुंदर। आपके सारे शिष्य तो युग निर्माण योजना के अनन्य उपासक हैं- हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा अर्थात पहले खुद, घर, परिवार, नाते- रिश्तेदारों को सुख- सुविधा संपन्न बनाकर सुधार लिया और अब देश के आम जन की दशा सुधारने की कोशिश में व्यस्त हैं।
गाँधी ने विस्मयपूर्वक कहा- लेकिन मैंने तो ऐसा नहीं चाहा था।
मैंने कहा- प्रश्न आपके नहीं, हमारे चाहने का है। आपकी त्याग, तपस्या का प्रतिफल यदि आपके भक्तों को मिल रहा है तो फिर आपको ईर्ष्या क्यों? आपने नहीं चाहा तो क्या वे भी न चाहें।
गाँधी एक क्षण रुके फिर बोले- तो अच्छा कहो, इन सारी सुविधाओं के बीच वे क्या कभी मुझे याद भी करते हैं।
याद? हाँ क्यों नहीं। पाँच साल में एक बार चुनाव पूर्व की बेला में आपको पूरी शिद्दत और श्रद्धा से याद ही नहीं करते वरन पूरी तरह भुनाते भी हैं। आज बड़े शहरों के सारे मुख्य मार्ग आपके नाम पर हैं। करेंसी नोटों पर आपकी छवि अंकित है। चौराहे चौराहे आपके स्टेच्यू लगा दिये गये हैं, ताकि लोग आपको भूल न पाएँ। इससे अधिक भला और क्या चाहते हैं आप। और तो और आपके स्वदेशी प्रेम की अवधारणा को पूरी तरह आत्मसात करते हुए अब बीडिय़ों तक में आपकी छवि अंकित है- गाँधी छाप बीड़ी। आपके नाम के उपयोग से तो नकली गाँधी मार्क घी तेल भी आमजन की नजर में शुद्धता का प्रतीक हो जाता है।
लेकिन मेरे विचार...
याद? हाँ क्यों नहीं। पाँच साल में एक बार चुनाव पूर्व की बेला में आपको पूरी शिद्दत और श्रद्धा से याद ही नहीं करते वरन पूरी तरह भुनाते भी हैं। आज बड़े शहरों के सारे मुख्य मार्ग आपके नाम पर हैं। करेंसी नोटों पर आपकी छवि अंकित है। चौराहे चौराहे आपके स्टेच्यू लगा दिये गये हैं, ताकि लोग आपको भूल न पाएँ। इससे अधिक भला और क्या चाहते हैं आप। और तो और आपके स्वदेशी प्रेम की अवधारणा को पूरी तरह आत्मसात करते हुए अब बीडिय़ों तक में आपकी छवि अंकित है- गाँधी छाप बीड़ी। आपके नाम के उपयोग से तो नकली गाँधी मार्क घी तेल भी आमजन की नजर में शुद्धता का प्रतीक हो जाता है।
लेकिन मेरे विचार...
उसका क्या डालें हम अचार। उससे भी कहीं वोट मिलते हैं।
गाँधी सिर पकड़कर बैठ गए। फिर अचानक पूछ लिया- अच्छा तो फिर बताओ भला मेरे कितने स्टेच्यू लगे होंगे पूरे देश में।
भला यह भी कोई हमसे पूछने की बात है। इसका उत्तर तो उन कबूतरों से पूछिये, जो साल भर उनका उपयोग करते हैं। हम तो वर्ष में केवल एक ही बार आपको तकलीफ देते हैं, जब आपकी मूर्तियों को धो ताजे- ताजे फूलों की माला से आपका अभिनंदन करते हुए सामने बैठकर पूरी बेशर्मी के साथ गाते हैं आपका वही प्रिय भजन-
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे
गाँधी बोले- और मेरा दर्शन तथा आचरण।
उसकी तो आप पूछिये ही मत। सारे सरकारी दफ्तरों में न केवल आपकी फ्रेम जड़ित तस्वीर लगी है, बल्कि उसके साये में ही सारे काम हो रहे हैं। आपके गाँधीवादी सरकारी कर्मचारी जब तक हरे- हरे करंसी नोट सामने वाले की जेब से निकलवा कर उस पर छपे आपके चित्र के दर्शन करते हुए 'ओम महात्माय नम:' मंत्र का जाप नहीं कर लेते, कोई फाइल आगे बढ़ाते ही नहीं।
अब भला गाँधी क्या बोलते। वे उत्तर रहित थे और जब तक मैं वापस लौटा वे सिर झुकाए बैठे थे। धरती उनके अश्रुकणों से आप्लावित थी लेकिन मेरी आँखों में कवि रहीम का- 'रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून', वाला पानी शेष ही कहाँ बचा था।
गाँधी की प्रासंगिकता-
गाँधी इस युग के महानायक थे। उस दौर में कार्ल मार्क्स बहुत प्रसिद्ध थे। वे भी निर्धन के हित में पूंजी का उपयोग चाहते थे, लेकिन दोनों के तरीकों में जमीन आसमान का फर्क था। मार्क्स का रास्ता जहाँ वर्ग संघर्ष और हिंसा की सुरंग से होकर गुजरता था, वहीं गाँधी का रास्ता वर्ग सहयोग के साथ ही साथ अहिंसा के सिद्धांत से ओत- प्रोत था। वे साध्य के साथ ही साधन की शुचिता के भी हिमायती थे।
हर समस्या चाहे वह गरीबी, मँहगाई, सांप्रदायिक सद्भाव या स्वदेशी हो, उनका सोच स्पष्ट, कार्य शैली साफ सुथरी तथा जबान पर साफगोई थी। उन्हें धर्मरहित राजनीति से परहेज था। उनके धर्म की परिभाषा विशालता को अपने में समेटे हुए सबको साथ लेकर चलने की थी। वे अपने राम में बुद्ध, पैगंबर, ईसा, जरतुष्त सभी की छवि देखते थे।
हवाई जहाज की इकानामी श्रेणी को कैटल क्लास की संज्ञा देने वाले आज के सियासतदां लोगों के लिये ट्रेन की जनरल बोगी में यात्रा करने वाली भीड़ मात्र कीड़े- मकोड़े वाली अहमियत रखती है। क्या वे कभी यह कल्पना भी कर पाएँगे कि वे आज जिस गाँधी की तपस्या, त्याग व बलिदान से प्राप्त स्वाधीनता के सिंहासन पर बैठे हैं, वह खुद रेल के साधारण डिब्बे में सफर करता था।
महाभारत के शांति पर्व में एक स्थान पर लिखा गया है कि राजा प्रजा पर इतनी दया भी न करे कि वह कर लेना छोड़कर अपना कोष खाली कर दे और इतना भी कर न ले कि प्रजा महँगाई और कष्ट से कराह उठे। राम राज्य के अनन्य उपासक गाँधी ने खुद एक जगह उस समय की कर नीति की व्याख्या की थी-
बरसत हर्षत लोग सब, करसत लखै न कोय
तुलसी प्रजा सुभाग से, भूप भान सम होय
अर्थात प्रजा के भाग्य से राजा को सूर्य की तरह होना चाहिये। समुद्र, नदी या जलाशयों से पानी को खींचते हुए सूर्य को कोई नहीं देखता। सूर्य पानी लेने के उपक्रम में स्रोत के सामर्थ्य का पूरा ध्यान रखते हुए समुद्र से अधिक और पोखर से कम जल लेता है। वे राम राज्य की कर नीति के ही सम्बन्ध में तुलसी का यह दोहा भी अक्सर सुनाते थे -
मनि मानिक महंगे किये, सहजे तृन जल नाज
तुलसी सेई जानिए, राम गरीब निवाज
यानी राम राज्य में मणि- माणिक आदि विलासिता की वस्तुएँ महँगी की गई थी। सस्ता क्या था? तृण अर्थात चारा, अनाज और पानी। मतलब साफ है कि राम इसलिए गरीब नवाज कहलाए कि उनके राज्य में जीवन की अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुएँ सस्ती थीं। और जो राजा यह न कर सके उसके बारे में कहा गया है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी,
सो नृप अवसि नरक अधिकारी
सो नृप अवसि नरक अधिकारी
यदि आज गाँधी होते तो कम से कम यह दृष्य तो हमें नहीं देखना पड़ता कि कार, टी.वी., फ्रिज जैसी विलासिता की वस्तुएँ तो सस्ती हो रही हैं और निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान पर। विसंगति की पराकाष्ठा तो यह है कि 'दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ' वाली उक्ति भी अब नेपथ्य में चली गई है। अब तो दाल जैसी आजीविका की साधारण वस्तु भी आम आदमी की पहुँच से बाहर है तथा अमीर घरों में स्टेटस का सूचक हो गई है।
दरअसल हमारी त्रासदी यही है कि हम अच्छाई को अच्छाई मानते हुए उसका यशोगान तो करते हैं, लेकिन आचरण में उतारने से परहेज करते हैं। हमारी यही दोहरी मानसिकता आज ऊपर से साधन संपन्न लेकिन अंदर से खोखली व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है।
अच्छे और सच्चे जीवन प्रबंधन के क्षेत्र में तो गाँधी से बड़ा कोई गुरू हो नहीं सकता। वे साध्य के साथ ही साथ साधन की शुचिता के न केवल पैरोकार थे, बल्कि अपने आप में उत्तम उदाहरण थे। यदि ऐसा न होता तो मात्र एक लंगोटीनुमा वस्त्रधारी फकीर दुनिया की इतनी शातिर कौम से देश को कैसे आजाद करा पाता और वह भी पूरी तरह अहिंसात्मक तरीके से। शायद इसीलिये स्वयं वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर आंइस्टीन को भी कहना पड़ा- 'आने वाली पीढ़ी कभी यह विश्वास नहीं कर पाएगी कि इस धरती पर कभी गाँधी जैसा व्यक्तित्व भी हुआ करता था।' यही साधारण सी उक्ति इस सत्य को प्रकट करती है कि गाँधी अपने जीवन व विचारों में बेहद सरल, सादगीपूर्ण तथा साधारण थे।
गाँधी का ताबीज-
दुविधा के पलों में गाँधी का ताबीज न केवल हमें साहस और शक्ति प्रदान करता है, बल्कि कठिनाई के क्षणों में उर्जा का संचार भी करता है।
मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब तुम्हें दुविधा हो या तुम्हारा अहं तुम पर चढ़कर बोले, तो इसका अभ्यास करो
अपने मन मस्तिष्क में स्वयं द्वारा अब तक देखे गए सबसे निर्धन व असहाय व्यक्ति की छवि को निहारो और फिर स्वयं से पूछो कि जो कार्य मैं करने जा रहा हूँ-
* क्या इससे उसको कुछ प्राप्त होगा या उसका कुछ फायदा होगा?
* क्या इससे उसे अपनी नियति और जीवन को नियंत्रित करने की शक्ति प्राप्त होगी ?
* क्या इससे स्वराज्य सुलभ होगा अथवा देश के लाखों शारीरिक व आध्यात्मिक रूप से भूखे लोगों की स्वतंत्रता की शर्त पूरी होगी?
तब तुम पाओगे कि तुम्हारी दुविधा या शंका तुम्हारे अहं के साथ खुद ब खुद तिरोहित हो जाएगी और तुम्हें असीम सुख तथा आत्म संतोष की प्राप्ति होगी।
गाँधी ने किसी वाद- विवाद के झमेले में पड़े बगैर पूरे संसार को ऐसी राह दिखाई कि संभवतया उनकी मृत्यु के बाद जन्मे बराक ओबामा जैसे भी उनके दर्शन के खुले मन से प्रशंसक हो गए हैं।
काश हम गाँधी को आज भी समझ पाते। वरना महाकवि इकबाल तो कह ही गए हैं-
वतन की फिक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
कि तेरी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में
न सँभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तांँ वालों
तुम्हारी दास्तांँ तक भी न होगी दास्तानों में...
आमीन
संपर्क- पूर्व समूह महाप्रबंधक भेल, भोपाल
Email- v.joshi415@gmail.com
27 comments:
सारगर्भित लेख व उनके सिद्धंतों का सटीक विश्लेषण।
काश गांधीजी के उत्तराधिकारी भी इस मार्ग पर चल पाते।
Buhut sundar ek dum sateek on Gandi ji
हार्दिक धन्यवाद पढ़ने और तत्पश्चात विचार अंकित करने हेतु. यदि नाम का उल्लेख किया होता अधिक आनंद प्राप्त होता. सादर
गांधी अब केवल चौराहेरूपी सलीब पर स्थापित कर दिये हमने या फिर करंसी नोट पर ऊपरी कमाई के लिये. हार्दिक धन्यवाद. सादर
मित्र हार्दिक धन्यवाद. नाम का उल्लेख आनंद में अभिवृद्धि का प्रयोजन होता. सो कृपया अब कर दीजिए. सादर
आज के नेताओं के सटीक सटीक वर्णन। आजकल दिखावे एवं स्वलाभ के लिए ही गांधीजी का उपयोग रह गया है। आज शायद गांधीजी भी यदि जीवित होते तो स्वयं को असहाय महसूस करते। सच उजागर करने के लिए हार्दिक अभिनन्दन।
आज गांधी की आवश्यक्ता और भी महसूस की जा रही है । उत्कृष्ट लेख।
सही कहा आपने. यदि होते भारतेंदु हरिश्चंद्र के ही शब्द दोहराते : हा हा भारत दुर्दशा देखी न जाय. हार्दिक आभार
पुनर्जन्म की सुविधा भी दी जाए तो वे अस्वीकार कर दें शायद अब. 70 सालों से लगातार छले गए हैं वे. हार्दिक आभार
शत प्रतिशत सच!
सोचने पर मजबूर कर दिया इस लेख ने
आज तू नहीं है मगर तेरा ख़याल
शम्मों की मानिंद दिल में जगमगाता है
प्रिय विजेंद्र, हार्दिक धन्यवाद। बहुत मनोयोग से पढ़ते हो मुझे। यह बात मुझे बहुत सुख देती है। सस्नेह।
धन्यवाद। इसीलिए तो कहा वे व्यक्ति नहीं विचार हैं और विचार कभी नहीं मरता। सादर
गांधीजी की विचार धारा को अपने लिए मोड़ देने का प्रासंगिक वर्णन,लोगों द्वारा उसकी वाख्य्या ,मेरे लिए क्या है। उनके द्वारा भारत,इंग्लैंड और साउथ अफ्रीका का अनुवभ और उससे निकली जीवन शैली , स्वंत्रता के लिए वचैनी एक महा पुरुष की जीवनी सभी को अपने एवम् दूसरों के लिए प्रेरित करती है।
अद्भुत आलेख है बधाई बधाई
Very Beautiful written on gandhi ji, every para is described properly, showing the truth of our country
आदरणीया, हार्दिक आभार. सादर
बिल्कुल सही कहा आपने. तभी तो आइंस्टीन ने कहा था कि नई पीढ़ी के लिये आज का माहौल देखते हुए इस बात को स्वीकार करना काफी कठिन होगा कि कभी गांधी जैसा व्यक्तित्व पैदा भी हुआ होगा. हार्दिक आभार. सादर
वैसे आप का नाम जानकर मन आनंद का अनुभव करेगा. सो कृपया साझा कीजिये. नमस्कार
Gandhi was not an individual, but an institution by himself, who believed in practising truth instead of preaching. Heartiest Thanks. Request share Your name as well. Regards
बहुत ही अच्छा आलेख लिखा है आपने। गांधीजी के सिद्धांतो का अलग ही तरह से सुंदर और सटीक विश्लेषण किया है जो हमे सोचने को मजबूत करता है कि उनके दर्शन और सिद्धांतो का हम भारतवासियों ने अपने स्वार्थ और दिखावे के लिए ही उपयोग किया है।
निश्चय ही उन्होंने अपने आजाद भारत की ऐसी कल्पना नहीं की होगी।
गांधी जी मात्र विचारक, नेता तथा समाज सुधारक ही नहीं थे अपितु राजनीति, चिंतन एवं दर्शन को नया मोड़ देने वाले सक्रिय राजनीतिज्ञ, सन्त एवं विचारशील चिन्तक थे।
लेखन की उत्कृष्टता के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई ��������
मधुलिका शर्मा
अद्भुत आलेख| हार्दिक बधाई
प्रिय सौरभ, हार्दिक धन्यवाद. सस्नेह
अति सारगर्भित एवं विचारोत्तेजक आलेख। सादर,
-वी.बी. सिंह
आपका स्नेह और सद्भाव तो सालों से साथ है, जो मेरी कलम का सारथी कृष्ण है। सो सादर आभार
गांधी को स्थापित कर दिया गया चौराहों और दीवारों पर और उनके नीचे कुर्सी पर बैठ गए हमारे खिदमतगार जो चूस रहे खून वतन का बारम्बार लगातार।
केवल एक बार और लौट आओ गांधी।
आपके भाव भरे उद्गार के लिए हार्दिक आभार।
सटीक, तथ्यपरक, समृद्ध आलेख, अति सुंदर।।
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