बाजारवाद से हारे जन- सरोकार
- एल. एन. शीतल
- एल. एन. शीतल
पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या इस कदर घट रही है कि घर चलाने के लिए स्त्रियां पशुओं की मानिंद खरीदकर लायी जा रही हैं। पुरुषों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं।
श्रेष्ठ मीडिया वह होता है, जो लोगों को सही, सटीक और बेबाक सूचनाएं दे, आने वाले खतरों से आगाह करे, समाज में व्याप्त विसंगतियों को खत्म करने का माहौल बनाये, लोगों को उनसे जूझने के लिए प्रेरित करे, और एक सच्चे मित्र की तरह मानव-मात्र के दीर्घकालिक हितों का संवद्र्धन करे। यही वे कसौटियां हैं, जिनके जरिये हम मीडिया के खरेपन की जांच कर सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि बाजारवाद के इस दौर में शाश्वत मूल्य निरंतर क्षीण हो रहे हैं और अस्थायी महत्व की बिकाऊ चीजें उत्तरोत्तर हावी होती जा रही हैं। हरियाणा की मीडिया ने माटी के प्रति अपने तकाजों को कहां तक पूरा किया है, इसकी तर्कसंगत पड़ताल के लिए हमें यह जानना होगा कि मौजूदा वक्त में ऐसे कौन से मसले हैं, ऐसी कौन-सी समस्याएं हैं, जिनसे हमें दो-चार होना पड़ रहा है। यदि हम सर्वोच्च प्राथमिकता वाली सामाजिक विसंगतियों को सूचीबद्ध करें, तो पायेंगे कि बेकाबू भ्रष्टाचार, लैंगिक विषमता, उत्तरोत्तर बढ़ती नशाखोरी, लोक- धरोहर की उपेक्षा, मातृ- शक्ति की आपराधिक अवमानना, तात्कालिक चिंता एवं चिंतन का विषय हैं।
सबसे पहले लैंगिक विषमता को लीजिए। देश में स्त्री-पुरुष अुनपात में विषमता निरतंर बढ़ती जा रही है। हम यह भूल जाते हैं कि जिन समाजों में मातृ-शक्ति का निरादर होता है, वे मिट जाया करते हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या इस कदर घट रही है कि घर चलाने के लिए स्त्रियां पशुओं की मानिंद खरीदकर लायी जा रही हैं। पुरुषों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं। यदि मीडिया पर चौकस निगाह डालें तो इस समस्या के बारे में शायद ही कुछ ऐसी सामग्री छपी मिले, जिसे पढ़कर जनमानस में नारी- अपमान के प्रति घृणा पैदा हो। हां, अखबारों में कन्या-भ्रूण हत्या के लिए ऐसे छद्म विज्ञापन अवश्य मिलेंगे, जो प्रकटत: सिर्फ यह बताते हैं कि गर्भ परीक्षण से जान लें कि गर्भस्थ शिशु स्वस्थ है या नहीं।देश में नशे का प्रचलन बढ़ा है। यह, हमारे युवा वर्ग को किस तरह तबाह कर रही है, यह जगजाहिर हकीकत है। यह भी स्थापित सत्य है कि सामाजिक अभिशापों को ताकत के बूते खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए सामाजिक सोच अनिवार्यत: बदलनी होती है। इसमें मीडिया की भूमिका निस्संदेह कारगर होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि मीडिया शराब के खिलाफ जनमत तैयार करने वाली सामग्री ढूंढ़े नहीं मिलती।
हर राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक धरोहर होती है। वहां के समाज का दायित्व होता है कि वह न केवल उस धरोहर को सुरक्षित रखे, बल्कि उसे ज्यादा समृद्ध भी बनाये। लोक-कलाओं, लोक-शिल्पों और लोक साहित्य की जितनी उपेक्षा हमारे यहां है, उतनी शायद ही किसी अन्य राज्य में हो। अखबारों में आपराधिक घटनाओं की चटखारेदार खबरों, पतियों को खुश रखने के फार्मूलों तथा खुद को आकर्षक बनाने के तरीकों जैसी सामग्री तो धड़ल्ले से छपती है, लेकिन लोक-कलाकारों लोक प्रतिभाओं तथा लोक-शिल्पकारों को बढ़ावा देने वाली सामग्री बहुत कम और सतही होती है। मीडिया का काम जन-रुचि को परिष्कृत करना और सकारात्मक बातों के प्रति रुझान पैदा करना भी होता है। लेकिन मीडिया समाज की सामूहिक सोच को विकृत करने और उसे बाजारू बनाने पर आमादा है, क्योंकि उपभोक्तावाद का यही तकाजा है। ...और हमारा मीडिया बाजारवाद को बढ़ावा देने वाला कारगर औजार साबित हुआ है। ऐसे अनेक अंधविश्वास और रूढि़य़ां आज भी प्रचलित हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। किंतु, हमारा मीडिया, ऐसे अंधविश्वासों को या तो महिमामंडित करता नजर आता है या फिर मूकदर्शक बना दिखता है। निंदा तो वह कभी करता ही नहीं।
यों तो, जातिवाद की आदिम प्रवृत्ति लगभग सभी राज्यों में विद्यमान है। लेकिन हमारे राज्य में जातीयता जिस व्यापकता के साथ मौजूद है, वह एक स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कही जा सकती। खेद की बाद है कि लोग रहन-सहन तथा दिखावे की अन्य तमाम बातों में तो बहुत तरक्की कर गये हैं, लेकिन जातिवाद और गोत्रवाद के मामले में वे आदिम युग की तरह ही संकीर्ण मानसिकता में जी रहे हैं। साक्षरता बढ़ी है, और तथाकथित शिक्षा भी, लेकिन उसी अनुपात में जातिवाद भी बढ़ा है। जबकि इसे निरंतर कम होना चाहिए था। समाचार-पत्र जातिवाद की घृणित राजनीति पर कारगर प्रहार करने में अभी तक तो नाकाम ही रहे हैं।
शॉर्टकट अपना कर रातोरात करोड़पति बनने की ललक ने हमारे युवाओं को कुछ ज्यादा ही पथभ्रष्ट कर दिया है। आज इसके कारणों की तह में जाने और उन्हें निर्मूल करने की जरूरत सबसे ज्यादा है। यहां भी, फिर वही अफसोस कि हमारे अखबारों में अपराधों की रिपोर्टें तो आकर्षक ढंग से छपती हैं, लेकिन उन प्रवृत्तियों पर विचार-पूर्ण सामग्री नहीं छपती, जो हमारे समाज को एक अपराधी-समाज के रूप में परिणत कर रही है।
अंत में, एक अत्यंत नाजुक और बेहद संवेदनशील मसला है- जातीय और गोत्रीय पंचायतों का। यह अभिशाप पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान को बुरी तरह से अपने चंगुल में जकड़े हुए है। दर्जनों युवा जोड़ों की जानें खाप पंचायतों के फतवे ले चुके हैं। ये क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा हैं। एक प्रगतिशील लोकतंत्र होने के नाते हमारे देश में संविधान के अंतर्गत अदालतें, पुलिस प्रणाली और मानव-अधिकार आयोग जैसी सभी नियामक व्यवस्थाएं विद्यमान हैं। किंतु, इन क्षेत्रों में जातीय एवं गोत्रीय पंचायतों की दखलंदाजी बदस्तूर जारी है। पहले छोटी पंचायत होती है, फिर उसके फैसले को उलटने के लिए बड़ी पंचायत। ...और इस तरह वर्चस्व हासिल करने के लिए पंचायतों का अंतहीन सिलसिला जारी रहता है। जरा गौर कीजिए। मुसलमानों के
कबाइली समाज में भी यही होता रहा है। वहां, कबाइली सरदारों की आस्था न तो अदालतों में है, और न अपने देश के कानूनों में। किसी भी लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर व्यवस्था की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस तरह के पंचायती फतवों से, और उन पर अमल के लिए लट्ठ का जोर इस्तेमाल किये जाने से हम उसी व्यवस्था का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, जो अतिवादी इस्लामी तत्त्व बंदूक के जोर पर मध्यकालीन प्रथाओं को जारी रखने के लिए कर रहे हैं। यही नहीं, हम कहीं न कहीं संविधान विरोधी कृत्य भी कर रहे होते हैं, क्योंकि वह व्यवस्था संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर और उन पर चोट करती नजर आती है। ये पंचायतं महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचारों, शराब के प्रचलन, लैंगिक विषमता, और निठल्लेपन की बढ़ती प्रवृत्ति पर चोट करतीं, तो फिजा कुछ और ही होती। यहां, यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी नाइत्तफाकी पंचायतों से नहीं, उनके स्वरूप और उनके एजेंडे से है। पंचायतें किसी जाति अतवा गोत्र- विशेष की न होकर पूरे समाज की होनी चाहिए। उनके एजेंडे में सामाजिक अभिशापों का उन्मूलन सबसे ऊपर होना चाहिए। इस प्रसंग में क्या यह चिन्ता का विषय नहीं कि हमारे किसी भी अखबार ने आज तक यह बताने का साहस नहीं दिखाया कि पंचायतों का वास्तविक स्वरूप और एजेंडा क्या होना चाहिए।
चिन्ता की सबसे अहम वजह है- अर्श से लेकर फर्श तक फैला भ्रष्टाचार, जिसे सबसे पहले राष्ट्रीय मान्यता प्रदान की थी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने, जिन्होंने कहा था- ऐसा कौन सा देश है जहां भ्रष्टाचार नहीं है। आज हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है, उसे 'लल्लू' मान लिया जाता है। तमाम बड़े मीडिया घराने भ्रष्टाचार से दौलत के टापू खड़े करने में सबसे आगे हैं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना निरी मूर्खता ही मानी जायेगी कि वे देश के सबसे बड़े शत्रु-'भ्रष्टाचार' के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ेंगे अथवा ऐसी किसी मुहिम का हिस्सा बनेंगे।
निष्कर्ष यह कि मीडिया नित नये उत्पादों की बिक्री बढ़ाने का माध्यम मात्र बनकर रह गया है, और वह आम आदमी की चिंताओं को कारगर ढंग से पेश नहीं करके उनकी आपराधिक उपेक्षा कर रहा है। वह उच्च वर्ग में शामिल होने को आतुर मध्यम वर्ग का नुमाइंदा ज्यादा नजर आता है। समाज के दीर्घकालिक सरोकारों से उसका कहीं कोई वास्ता नजर नहीं आता। लगभग सभी अखबार अपने पाठक को तटस्थ सूचनाओं और निष्पक्ष विश्लेषण से वंचित रखकर समाचार और विचार में पूर्वाग्रह ठूंस रहे हैं। वे विज्ञान के नये आविष्कारों से अवगत कराने के स्थान पर विज्ञापनी उत्पादों को महिमामंडित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं। उनकी यह भूमिका एक बड़े अशुभ का संकेत है। वे शहरी पाठकों को अपनी सुविधा से सामग्री परोसते हैं। परोसने की इस शैली का उद्देश्य पाठकों के दीर्घकालिक हितों की रक्षा करना कम, विज्ञापनदाता के हितों की रक्षा करना ज्यादा है। दूसरी तरफ, वे ग्रामीण क्षेत्र की घोर उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसा, वे अनजाने में नहीं, जानबूझकर कर रहे हैं। ग्रामीणों की कौन-सी समस्याएं हैं, इसकी बहुत कम चिंता अखबारों को है। जीवन के हर क्षेत्र में क्षुद्र राजनीतिक दखलंदाजी जिस खतरनाक हद तक बढ़ी है, उसका प्रतिकार करने में अखबार नाकाम रहे हैं। मीडिया की मौजूदा दशा के मद्देनजर तो यही लगता है कि-
बरबाद गुलिस्तां करने को
बस एक ही उल्लू काफी है,हर शाख पर उल्लू बैठा है,अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।
श्रेष्ठ मीडिया वह होता है, जो लोगों को सही, सटीक और बेबाक सूचनाएं दे, आने वाले खतरों से आगाह करे, समाज में व्याप्त विसंगतियों को खत्म करने का माहौल बनाये, लोगों को उनसे जूझने के लिए प्रेरित करे, और एक सच्चे मित्र की तरह मानव-मात्र के दीर्घकालिक हितों का संवद्र्धन करे। यही वे कसौटियां हैं, जिनके जरिये हम मीडिया के खरेपन की जांच कर सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि बाजारवाद के इस दौर में शाश्वत मूल्य निरंतर क्षीण हो रहे हैं और अस्थायी महत्व की बिकाऊ चीजें उत्तरोत्तर हावी होती जा रही हैं। हरियाणा की मीडिया ने माटी के प्रति अपने तकाजों को कहां तक पूरा किया है, इसकी तर्कसंगत पड़ताल के लिए हमें यह जानना होगा कि मौजूदा वक्त में ऐसे कौन से मसले हैं, ऐसी कौन-सी समस्याएं हैं, जिनसे हमें दो-चार होना पड़ रहा है। यदि हम सर्वोच्च प्राथमिकता वाली सामाजिक विसंगतियों को सूचीबद्ध करें, तो पायेंगे कि बेकाबू भ्रष्टाचार, लैंगिक विषमता, उत्तरोत्तर बढ़ती नशाखोरी, लोक- धरोहर की उपेक्षा, मातृ- शक्ति की आपराधिक अवमानना, तात्कालिक चिंता एवं चिंतन का विषय हैं।
सबसे पहले लैंगिक विषमता को लीजिए। देश में स्त्री-पुरुष अुनपात में विषमता निरतंर बढ़ती जा रही है। हम यह भूल जाते हैं कि जिन समाजों में मातृ-शक्ति का निरादर होता है, वे मिट जाया करते हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या इस कदर घट रही है कि घर चलाने के लिए स्त्रियां पशुओं की मानिंद खरीदकर लायी जा रही हैं। पुरुषों की संख्या तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं। यदि मीडिया पर चौकस निगाह डालें तो इस समस्या के बारे में शायद ही कुछ ऐसी सामग्री छपी मिले, जिसे पढ़कर जनमानस में नारी- अपमान के प्रति घृणा पैदा हो। हां, अखबारों में कन्या-भ्रूण हत्या के लिए ऐसे छद्म विज्ञापन अवश्य मिलेंगे, जो प्रकटत: सिर्फ यह बताते हैं कि गर्भ परीक्षण से जान लें कि गर्भस्थ शिशु स्वस्थ है या नहीं।देश में नशे का प्रचलन बढ़ा है। यह, हमारे युवा वर्ग को किस तरह तबाह कर रही है, यह जगजाहिर हकीकत है। यह भी स्थापित सत्य है कि सामाजिक अभिशापों को ताकत के बूते खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए सामाजिक सोच अनिवार्यत: बदलनी होती है। इसमें मीडिया की भूमिका निस्संदेह कारगर होनी चाहिए। अफसोस की बात है कि मीडिया शराब के खिलाफ जनमत तैयार करने वाली सामग्री ढूंढ़े नहीं मिलती।
हर राज्य की अपनी एक सांस्कृतिक धरोहर होती है। वहां के समाज का दायित्व होता है कि वह न केवल उस धरोहर को सुरक्षित रखे, बल्कि उसे ज्यादा समृद्ध भी बनाये। लोक-कलाओं, लोक-शिल्पों और लोक साहित्य की जितनी उपेक्षा हमारे यहां है, उतनी शायद ही किसी अन्य राज्य में हो। अखबारों में आपराधिक घटनाओं की चटखारेदार खबरों, पतियों को खुश रखने के फार्मूलों तथा खुद को आकर्षक बनाने के तरीकों जैसी सामग्री तो धड़ल्ले से छपती है, लेकिन लोक-कलाकारों लोक प्रतिभाओं तथा लोक-शिल्पकारों को बढ़ावा देने वाली सामग्री बहुत कम और सतही होती है। मीडिया का काम जन-रुचि को परिष्कृत करना और सकारात्मक बातों के प्रति रुझान पैदा करना भी होता है। लेकिन मीडिया समाज की सामूहिक सोच को विकृत करने और उसे बाजारू बनाने पर आमादा है, क्योंकि उपभोक्तावाद का यही तकाजा है। ...और हमारा मीडिया बाजारवाद को बढ़ावा देने वाला कारगर औजार साबित हुआ है। ऐसे अनेक अंधविश्वास और रूढि़य़ां आज भी प्रचलित हैं, जो किसी भी सभ्य समाज के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। किंतु, हमारा मीडिया, ऐसे अंधविश्वासों को या तो महिमामंडित करता नजर आता है या फिर मूकदर्शक बना दिखता है। निंदा तो वह कभी करता ही नहीं।
यों तो, जातिवाद की आदिम प्रवृत्ति लगभग सभी राज्यों में विद्यमान है। लेकिन हमारे राज्य में जातीयता जिस व्यापकता के साथ मौजूद है, वह एक स्वस्थ समाज की निशानी नहीं कही जा सकती। खेद की बाद है कि लोग रहन-सहन तथा दिखावे की अन्य तमाम बातों में तो बहुत तरक्की कर गये हैं, लेकिन जातिवाद और गोत्रवाद के मामले में वे आदिम युग की तरह ही संकीर्ण मानसिकता में जी रहे हैं। साक्षरता बढ़ी है, और तथाकथित शिक्षा भी, लेकिन उसी अनुपात में जातिवाद भी बढ़ा है। जबकि इसे निरंतर कम होना चाहिए था। समाचार-पत्र जातिवाद की घृणित राजनीति पर कारगर प्रहार करने में अभी तक तो नाकाम ही रहे हैं।
शॉर्टकट अपना कर रातोरात करोड़पति बनने की ललक ने हमारे युवाओं को कुछ ज्यादा ही पथभ्रष्ट कर दिया है। आज इसके कारणों की तह में जाने और उन्हें निर्मूल करने की जरूरत सबसे ज्यादा है। यहां भी, फिर वही अफसोस कि हमारे अखबारों में अपराधों की रिपोर्टें तो आकर्षक ढंग से छपती हैं, लेकिन उन प्रवृत्तियों पर विचार-पूर्ण सामग्री नहीं छपती, जो हमारे समाज को एक अपराधी-समाज के रूप में परिणत कर रही है।
अंत में, एक अत्यंत नाजुक और बेहद संवेदनशील मसला है- जातीय और गोत्रीय पंचायतों का। यह अभिशाप पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान को बुरी तरह से अपने चंगुल में जकड़े हुए है। दर्जनों युवा जोड़ों की जानें खाप पंचायतों के फतवे ले चुके हैं। ये क्षेत्र दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र का एक अहम हिस्सा हैं। एक प्रगतिशील लोकतंत्र होने के नाते हमारे देश में संविधान के अंतर्गत अदालतें, पुलिस प्रणाली और मानव-अधिकार आयोग जैसी सभी नियामक व्यवस्थाएं विद्यमान हैं। किंतु, इन क्षेत्रों में जातीय एवं गोत्रीय पंचायतों की दखलंदाजी बदस्तूर जारी है। पहले छोटी पंचायत होती है, फिर उसके फैसले को उलटने के लिए बड़ी पंचायत। ...और इस तरह वर्चस्व हासिल करने के लिए पंचायतों का अंतहीन सिलसिला जारी रहता है। जरा गौर कीजिए। मुसलमानों के
कबाइली समाज में भी यही होता रहा है। वहां, कबाइली सरदारों की आस्था न तो अदालतों में है, और न अपने देश के कानूनों में। किसी भी लोकतंत्र में संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर व्यवस्था की अनुमति नहीं दी जा सकती। इस तरह के पंचायती फतवों से, और उन पर अमल के लिए लट्ठ का जोर इस्तेमाल किये जाने से हम उसी व्यवस्था का समर्थन करते प्रतीत होते हैं, जो अतिवादी इस्लामी तत्त्व बंदूक के जोर पर मध्यकालीन प्रथाओं को जारी रखने के लिए कर रहे हैं। यही नहीं, हम कहीं न कहीं संविधान विरोधी कृत्य भी कर रहे होते हैं, क्योंकि वह व्यवस्था संवैधानिक संस्थाओं के समानांतर और उन पर चोट करती नजर आती है। ये पंचायतं महिलाओं के प्रति बढ़ते अत्याचारों, शराब के प्रचलन, लैंगिक विषमता, और निठल्लेपन की बढ़ती प्रवृत्ति पर चोट करतीं, तो फिजा कुछ और ही होती। यहां, यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हमारी नाइत्तफाकी पंचायतों से नहीं, उनके स्वरूप और उनके एजेंडे से है। पंचायतें किसी जाति अतवा गोत्र- विशेष की न होकर पूरे समाज की होनी चाहिए। उनके एजेंडे में सामाजिक अभिशापों का उन्मूलन सबसे ऊपर होना चाहिए। इस प्रसंग में क्या यह चिन्ता का विषय नहीं कि हमारे किसी भी अखबार ने आज तक यह बताने का साहस नहीं दिखाया कि पंचायतों का वास्तविक स्वरूप और एजेंडा क्या होना चाहिए।
चिन्ता की सबसे अहम वजह है- अर्श से लेकर फर्श तक फैला भ्रष्टाचार, जिसे सबसे पहले राष्ट्रीय मान्यता प्रदान की थी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने, जिन्होंने कहा था- ऐसा कौन सा देश है जहां भ्रष्टाचार नहीं है। आज हालात इस कदर बिगड़ गये हैं कि जो भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है, उसे 'लल्लू' मान लिया जाता है। तमाम बड़े मीडिया घराने भ्रष्टाचार से दौलत के टापू खड़े करने में सबसे आगे हैं। ऐसे में उनसे यह उम्मीद रखना निरी मूर्खता ही मानी जायेगी कि वे देश के सबसे बड़े शत्रु-'भ्रष्टाचार' के खिलाफ कोई मुहिम छेड़ेंगे अथवा ऐसी किसी मुहिम का हिस्सा बनेंगे।
निष्कर्ष यह कि मीडिया नित नये उत्पादों की बिक्री बढ़ाने का माध्यम मात्र बनकर रह गया है, और वह आम आदमी की चिंताओं को कारगर ढंग से पेश नहीं करके उनकी आपराधिक उपेक्षा कर रहा है। वह उच्च वर्ग में शामिल होने को आतुर मध्यम वर्ग का नुमाइंदा ज्यादा नजर आता है। समाज के दीर्घकालिक सरोकारों से उसका कहीं कोई वास्ता नजर नहीं आता। लगभग सभी अखबार अपने पाठक को तटस्थ सूचनाओं और निष्पक्ष विश्लेषण से वंचित रखकर समाचार और विचार में पूर्वाग्रह ठूंस रहे हैं। वे विज्ञान के नये आविष्कारों से अवगत कराने के स्थान पर विज्ञापनी उत्पादों को महिमामंडित करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं। उनकी यह भूमिका एक बड़े अशुभ का संकेत है। वे शहरी पाठकों को अपनी सुविधा से सामग्री परोसते हैं। परोसने की इस शैली का उद्देश्य पाठकों के दीर्घकालिक हितों की रक्षा करना कम, विज्ञापनदाता के हितों की रक्षा करना ज्यादा है। दूसरी तरफ, वे ग्रामीण क्षेत्र की घोर उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसा, वे अनजाने में नहीं, जानबूझकर कर रहे हैं। ग्रामीणों की कौन-सी समस्याएं हैं, इसकी बहुत कम चिंता अखबारों को है। जीवन के हर क्षेत्र में क्षुद्र राजनीतिक दखलंदाजी जिस खतरनाक हद तक बढ़ी है, उसका प्रतिकार करने में अखबार नाकाम रहे हैं। मीडिया की मौजूदा दशा के मद्देनजर तो यही लगता है कि-
बरबाद गुलिस्तां करने को
बस एक ही उल्लू काफी है,हर शाख पर उल्लू बैठा है,अंजामे गुलिस्तां क्या होगा।
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