आम आदमी की वेदना से खिलवाड़ क्यों?
- बिचित्र मणि
- बिचित्र मणि
तब गुलामी थी और इंग्लैंड में विंस्टन चर्चिल जैसा अकड़ू प्रधानमंत्री था। चर्चिल ने भारतीयों की आजादी की मांग को यह कहकर नकार दिया कि अगर भारत को आजाद कर दिया गया तो भारतीय आपस में लड़कर ही मर जाएंगे। तब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े शिखर पुरुष महात्मा गांधी ने कहा कि आजाद होकर हम चाहे मरें या जीयें, बस आप हमारा पिंड छोड़ दो। गांधी को अपने देश के व्यक्तित्व और देशवासियों की मानसिकता पर पूरा भरोसा था। लेकिन तीन दशक बाद उस भरोसे की बलि चढ़ाने की कोशिश इंदिरा गांधी के दिमाग से निकली, जो गांधी के सबसे करीबी और राजनीतिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरू की पुत्री थीं। 25-26 जून 1975 की आधी रात को जब सारा देश सो रहा था, तब लोकतंत्र को सदा के लिए सुलाने की कोशिश हुई। समाज के आखिरी आदमी के हितों को ताक पर रख दिया गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत विपक्ष के सारे नेताओं ने रातों-रात खुद को जेल की चारदीवारी के भीतर पाया। जिसने भी इंदिरा गांधी की करनी से थोड़ी भी नाइत्तफाकी रखी, वो सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया। चाहे वो कभी इंदिरा गांधी के खासमखास रहे चंद्रशेखर रहे हों या फिर हिंदुस्तान के तकरीबन सवा लाख लोग। ईसा मसीह को एक बार सूली पर चढ़ाया गया था, अपने यहां लोकतंत्र तो पूरे 635 दिनों तक सूली पर लटका रहा।
अब ये सवाल उठ सकता है कि 35 साल पुरानी लकीर पीटने का क्या मतलब है। आज देश चहुमुखी विकास का मुंह देख रहा है, जैसा कि सरकारी आंकड़े और सरकार के लोग ढिंढोरा पीटते हैं। विकास, तरक्की और चकाचौंध की इस दीवाली में आपातकाल की उदासी बहुतों को ऐसा ही लग सकता है, जैसे किसी ने उनकी खीर में नीबू निंचोड़ दिया हो। लेकिन आपातकाल की याद इस बात की तस्दीक कराने के लिए काफी है कि यह देश सत्ता के हुक्मरानों को अपने ठेंगे के नीचे रखने का माद्दा रखता है। लोकतंत्र में भले ही नव राजा-रानियों की संतानें आज पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं लेकिन आखिरी आदमी की आवाज को नकारना आसान नहीं होगा। इसीलिए जिस दौर में सरकारें पूंजी की प्रवक्ता बनने में भी अपनी खुशकिस्मती समझ रही हैं, आपातकाल और उसके बाद इंदिरा गांधी का हश्र यह बताने के लिए काफी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और आखिरी आदमी की वेदना और संवेदना से खिलवाड़ मत करो। अभी तो 35 साल हुए हैं, जबकि 3500 साल बाद भी आपातकाल के खिलाफ उठी 35 साल पुरानी आवाज ऐसे ही गूंजती रहेगी।
अब ये सवाल उठ सकता है कि 35 साल पुरानी लकीर पीटने का क्या मतलब है। आज देश चहुमुखी विकास का मुंह देख रहा है, जैसा कि सरकारी आंकड़े और सरकार के लोग ढिंढोरा पीटते हैं। विकास, तरक्की और चकाचौंध की इस दीवाली में आपातकाल की उदासी बहुतों को ऐसा ही लग सकता है, जैसे किसी ने उनकी खीर में नीबू निंचोड़ दिया हो। लेकिन आपातकाल की याद इस बात की तस्दीक कराने के लिए काफी है कि यह देश सत्ता के हुक्मरानों को अपने ठेंगे के नीचे रखने का माद्दा रखता है। लोकतंत्र में भले ही नव राजा-रानियों की संतानें आज पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं लेकिन आखिरी आदमी की आवाज को नकारना आसान नहीं होगा। इसीलिए जिस दौर में सरकारें पूंजी की प्रवक्ता बनने में भी अपनी खुशकिस्मती समझ रही हैं, आपातकाल और उसके बाद इंदिरा गांधी का हश्र यह बताने के लिए काफी है कि लोकतांत्रिक मूल्यों और आखिरी आदमी की वेदना और संवेदना से खिलवाड़ मत करो। अभी तो 35 साल हुए हैं, जबकि 3500 साल बाद भी आपातकाल के खिलाफ उठी 35 साल पुरानी आवाज ऐसे ही गूंजती रहेगी।
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