विमल राय
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना....
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना....
- एन. के. राजु
मुख्यधारा में रहकर भी जिन फिल्मकारों ने सिनेमा की कलात्मक ऊंचाइयों को बरकरार रखा, उनमें सबसे सम्मानित और अहम नाम है- विमल राय। सिनेमैटोग्राफर से डायरेक्टर और प्रोड्यूसर बने विमल राय ने फिल्मों के जरिए धन कमाने की बजाय सामाजिक सरोकार को सबसे ऊपर रखकर हमेशा सार्थक फिल्मों का निर्माण किया।
सिनेमा की अप्रतिम समझ रखने वाले विमल दा का जन्म 12 जुलाई 1909 में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। वह ढाका के जगन्नाथ कालेज में पढ़ाई कर ही रहे थे कि उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। पहले पिताजी का निधन हो गया फिर धोखाधड़ी का शिकार हुए और पारिवारिक संपत्ति से महरूम कर दिए गए। परिवार के भरण पोषण के लिए मां तथा छोटे भाइयों के साथ वह कलकत्ता आ गए। कहा जाता है कि इस घटना की छाप उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म दो बीघा जमीन में भी मिलती है। फोटोग्राफी के प्रति उनके लगाव हो देखते हुए दिग्गज फिल्मकार पीसी बरूआ ने उन्हें बतौर पब्लिसिटी फोटोग्राफर रख लिया और यहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हो गया जो निरंतर नयी ऊंचाइयों को छूता गया।
विमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। वह कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए। उन्होंने न्यू थिएटर्स की दस से ज्यादा हिंदी और बंगाली फिल्मों का छायांकन किया। इस दौरान उन्होंने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ कीफिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित मुक्ति के लिए फोटोग्राफी की। लेकिन बिमलदा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया।
1944 में विमल राय को न्यू थिएटर्स की बांग्ला फिल्म उदयेर पाथे का निर्देशन का मौका मिला। बतौर निर्देशक विमल राय की पहली फिल्म उदयेर पाथे ही थी जो सामाजिक कुरीतियों पर आधारित थी। यह फिल्म बेहद कामयाब रही। इस फिल्म ने ही दर्शा दिया कि सिनेमा जगत को बेहतरीन फिल्मकार मिल गया है। एक साल बाद ही इस बांग्ला फिल्म का हमराही टाइटल से हिंदी संस्करण बनाया गया। हमराही का निर्देशन भी विमल राय ने ही किया था, लेकिन इसे वैसी सफलता नहीं मिली। इसके बाद विमलदा ने न्यू थिएटर्स के लिए तीन हिंदी फिल्मों- अंजनगढ (1948), मंत्रमुग्ध (1949) और पहला आदमी (1950) का निर्देशन किया। ये तीनों फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित थीं, जो परदे पर क्लासिक साबित हुर्ई। साहित्य से उन्हें गहरा लगाव था, जो उनकी हर फिल्म और हर फ्रेम में नजर आता है।
वर्ष 1950 में इधर कोलकाता में न्यू थिएटर्स बंद होने की कगार पर था, तो उधर मुंबई में बॉम्बे टॉकीज का भी परदा गिरने वाला था। के.एल. सहगल और पृथ्वीराज कपूर जैसे अदाकार और नितिन बोस और फणि मजमूदार जैसे प्रतिष्ठित निर्देशक मुंबई आ गए थे। बॉम्बे टॉकीज को जीवनदान देने के लिए विमल राय को मुंबई बुलाया गया। यहां उन्होंने 1952 में बांबे टाकीज के लिए मां (1952) का निर्देशन किया। जो असफल रही।
विमल राय कोलकाता से अकेले नहीं आए थे, उनके साथ पूरी टीम थी। जिसमें ऋ षिकेश मुखर्जी, नबेंदु घोष, पाल महेंद्र, असित सेन और नजीर हुसैन शामिल थे। विमलदा ने खुद की फिल्म कंपनी विमल राय प्रोडक्शन की स्थापना कर 1953 में पहली फिल्म दो बीघा जमीन का निर्माण किया। इस फिल्म से संगीतकार सलिल चौधरी भी विमलदा से जुड़ गए। दो बीघा जमीन की कहानी सलिलदा की ही लिखी हुई थी। भारतीय किसानों की दुर्दशा पर केंद्रित इस फिल्म को हिंदी की महानतम फिल्मों में गिना जाता है। इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित बिमल दा की दो बीघा जमीन एक ऐसे गरीब किसान की कहानी है जो शहर चला आता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने जान डाल दी है। व्यावसायिक तौर पर दो बीघा जमीन भले ही कुछ खास सफल नहीं रही लेकिन इस फिल्म ने बिमल दा की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फिल्म के लिए उन्होंने कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता।इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में विमल राय के पैर जमा दिये। दो बीघा जमीन को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं फिल्म फेस्टिवल्स में व्यापक सराहना मिली। देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड दिया गया।
उसी साल विमलदा ने अशोक कुमार के बैनर के लिए परिणीता और हितेन चौधरी के लिए बिराज बहू का निर्देशन किया। ये दोनों फिल्में शरतचंद्र के उपन्यासों पर आधारित थीं। 1955 में शरतचंद्र के पॉपुलर उपन्यास देवदास पर इसी नाम से फिल्म बनाकर विमलदा देशभर में छा गए। दो बीघा जमीन की तरह यह भी एक क्लासिक कृति साबित हुई। इससे बीस साल पहले विमलदा न्यू थिएटर्स की के.एल. सहगल स्टारर देवदास (1935) का छायांकन कर चुके थे। विमल राय ने अपने होम प्रोडक्शन के तहत 1953 से 1964 तक 14 फिल्मों का निर्माण किया। इनमें से छह फिल्मों का निर्देशन उन्होंने अपने सहयोगियों से करवाया, लेकिन उन फिल्मों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विमल राय ने अपने बैनर की आठ फिल्मों दो बीघा जमीन (1953), नौकरी (1954), देवदास (1955), मधुमती (1958), सुजाता (1959), परख (1960), प्रेमपत्र (1962), बंदिनी (1964) और बाहर के बैनर की तीन फिल्मों परिणीता (1953) ,बिराज बहू (1954) और यहूदी (1958) का सफल निर्देशन किया था।
1958 में पुनर्जन्म पर आधारित मधुमति तथा यहूदी का निर्देशन किया। दोनों ही फिल्में जबर्दस्त हिट रहीं। संगीतकार सलिल चौधरी ने मधुमति के लिए ऐसी धुन रची कि उसके गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं। इस फिल्म में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत आजा रे परदेसी... उनके सर्वश्रेष्ठ दस गीतों में शुमार किया जाता है।
विमल राय ने 1960 में साधना को लेकर परख नाम की फिल्म बनाई। कम बजट की इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर कामयाबी हासिल की और यह बात साबित कर दी कि किसी फिल्म की सफलता के लिए बड़ा बजट होना अनिवार्य शर्त नहीं है। यह बात आज की पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए भी एक जरूरी सबक बन सकती है। इसके अलावा 1962 में प्रेम पत्र नाम की फिल्म का निर्देशन किया।
इस तरह अपने जीवन काल में ही मिथक बन चुके महान फिल्मकार विमल राय ने कलात्मक और लोकप्रिय फिल्मों की विभाजन रेखा को मिटा दिया था। इसके अलावा उन्होंने ऋ षिकेश मुखर्जी, नवेन्दु घोष, सलिल चौधरी और गुलजार जैसे तमाम बेशकीमती सौगात हिन्दी फिल्म उद्योग को दिए। कहते हैं कि फिल्म निर्देशक का माध्यम होता है पर विमल राय जैसे चंद ही भारतीय फिल्मकार हुए हैं जिनकी अपनी फिल्मों के फिल्मांकन, पटकथा, संगीत, नृत्य आदि तमाम पक्षों पर गहरी पकड़ रही है। उनकी फिल्मों के हर दृश्य पर उनकी एक विशिष्ट छाप होती थी और इसी ने विमल राय को फिल्म निर्माण का ऐसा स्कूल बना दिया जिसका कमोबेशआज भी पालन किया जाता है।
बिमल दा की सर्वाधिक यादगार फिल्मों में बंदिनी (1963) का नाम लिया जा सकता है। यह फिल्म हत्या के आरोप में जेल में बंद एक महिला की कहानी है। इस फिल्म में अभिनेत्री नूतन ने शानदार भूमिका अदा की है। विमल राय के फिल्मांकन का बेजोड़ उदाहरण बंदिनी का वह दृश्य हैं जिसमें नूतन अस्पताल में एक दरवाजे के सामने खड़ी है और बगल में वेल्डिंग के कारण चिंगारियों का एक सैलाब फूट रहा है। चिंगारियों के माध्यम से विमल राय ने नायिका की मनोदशा को जिस प्रकार पेश किया वह किसी भी दर्शक के मन पर अमिट छाप छोड़ सकता है। इसके अलावा उन्होंने छूआछूत की समस्या पर आधारित सुजाता फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में भी एकबार फिर उन्होंने नूतन को अभिनेत्री के तौर पर लिया जबकि अभिनेता की भूमिका निभाई सुनील दत्त ने।
आस्कर पुरस्कार से सम्मानित सत्यजीत राय ने कहा था कि विमल दा ने अपनी पहली ही फिल्म से सिनेमा की परंपराओं के मकडज़ाल को दरकिनार कर दिया और ऐसे यथार्थवादी दौर की शुरुआत की जिसे दर्शकों ने भी भरपूर सराहा। फीचर फिल्मों के अलावा उन्होंने कई डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनायी। उनमें एक गौतम द बुद्घा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुयी। पुरस्कार जीतने मे भी विमल दा का कोई सानी नहीं था।
बिमल दा ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। उन्हें यह पुरस्कार 1954 में दो बीघा जमीन, 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता, 1961 में परख तथा 1964 में बंदिनी के लिए यह पुरस्कार मिला। 1940 और 1950 के दशक में समानांतर सिनेमा के प्रणेता रहे बिमल दा के प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म रही बेनजीर (1964)। इसका निर्देशन एस खलील ने किया था।
बंदिनी के बाद विमल राय शिखर पर थे। हिंदुस्तानी सिनेमा को उनसे बहुत उम्मीदें थी, लेकिन आठ जनवरी 1966 को लंबी बीमारी के बाद 56 साल की उम्र में विमल राय के निधन से ये उम्मीदें अधूरी रह गई और हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाई देने वाले एक रत्न को फिल्म जगत ने खो दिया। अपने तीन दशकों के फिल्मी जीवन में विमलदा ने हिंदी सिनेमा को जिन ऊंचाइयों पर पहुंचाया, वह फिल्मी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। इतनी कम उम्र में ही वे वहां चले गए जहां के लिए यही कहा जा सकता है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...।
क्लासिक फिल्मों का रचनाकार
देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड मिला। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्मफेयर पुरस्कारों की दो बार हैटट्रिक बनायी। 1953 में दो बीघा जमीन, 1954 में परिणीता, 1955 में विराज बहू के लिए। बीच में दो साल के अंतराल के बाद 1958-59 और 60 में भी उन्हें यह सम्मान दिया गया। एक बार फिर 1963 में बंदिनी के लिए वह इस पुरस्कार से नवाजे गए।
फिल्म निर्देशक का माध्यम होता है पर विमल राय जैसे चंद ही भारतीय फिल्मकार हुए हैं जिनकी अपनी फिल्मों के फिल्मांकन, पटकथा, संगीत, नृत्य आदि तमाम पक्षों पर गहरी पकड़ रही है। उनकी फिल्मों के हर दृश्य पर उनकी एक विशिष्ट छाप होती थी और इसी ने विमल राय को फिल्म निर्माण का ऐसा स्कूल बना दिया जिसका कमोबेश आज भी पालन किया जाता है।
सिनेमा की अप्रतिम समझ रखने वाले विमल दा का जन्म 12 जुलाई 1909 में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। वह ढाका के जगन्नाथ कालेज में पढ़ाई कर ही रहे थे कि उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। पहले पिताजी का निधन हो गया फिर धोखाधड़ी का शिकार हुए और पारिवारिक संपत्ति से महरूम कर दिए गए। परिवार के भरण पोषण के लिए मां तथा छोटे भाइयों के साथ वह कलकत्ता आ गए। कहा जाता है कि इस घटना की छाप उनकी सर्वश्रेष्ठ फिल्म दो बीघा जमीन में भी मिलती है। फोटोग्राफी के प्रति उनके लगाव हो देखते हुए दिग्गज फिल्मकार पीसी बरूआ ने उन्हें बतौर पब्लिसिटी फोटोग्राफर रख लिया और यहीं से उनका फिल्मी सफर शुरू हो गया जो निरंतर नयी ऊंचाइयों को छूता गया।
विमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। वह कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए। उन्होंने न्यू थिएटर्स की दस से ज्यादा हिंदी और बंगाली फिल्मों का छायांकन किया। इस दौरान उन्होंने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ कीफिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित मुक्ति के लिए फोटोग्राफी की। लेकिन बिमलदा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया।
1944 में विमल राय को न्यू थिएटर्स की बांग्ला फिल्म उदयेर पाथे का निर्देशन का मौका मिला। बतौर निर्देशक विमल राय की पहली फिल्म उदयेर पाथे ही थी जो सामाजिक कुरीतियों पर आधारित थी। यह फिल्म बेहद कामयाब रही। इस फिल्म ने ही दर्शा दिया कि सिनेमा जगत को बेहतरीन फिल्मकार मिल गया है। एक साल बाद ही इस बांग्ला फिल्म का हमराही टाइटल से हिंदी संस्करण बनाया गया। हमराही का निर्देशन भी विमल राय ने ही किया था, लेकिन इसे वैसी सफलता नहीं मिली। इसके बाद विमलदा ने न्यू थिएटर्स के लिए तीन हिंदी फिल्मों- अंजनगढ (1948), मंत्रमुग्ध (1949) और पहला आदमी (1950) का निर्देशन किया। ये तीनों फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित थीं, जो परदे पर क्लासिक साबित हुर्ई। साहित्य से उन्हें गहरा लगाव था, जो उनकी हर फिल्म और हर फ्रेम में नजर आता है।
वर्ष 1950 में इधर कोलकाता में न्यू थिएटर्स बंद होने की कगार पर था, तो उधर मुंबई में बॉम्बे टॉकीज का भी परदा गिरने वाला था। के.एल. सहगल और पृथ्वीराज कपूर जैसे अदाकार और नितिन बोस और फणि मजमूदार जैसे प्रतिष्ठित निर्देशक मुंबई आ गए थे। बॉम्बे टॉकीज को जीवनदान देने के लिए विमल राय को मुंबई बुलाया गया। यहां उन्होंने 1952 में बांबे टाकीज के लिए मां (1952) का निर्देशन किया। जो असफल रही।
विमल राय कोलकाता से अकेले नहीं आए थे, उनके साथ पूरी टीम थी। जिसमें ऋ षिकेश मुखर्जी, नबेंदु घोष, पाल महेंद्र, असित सेन और नजीर हुसैन शामिल थे। विमलदा ने खुद की फिल्म कंपनी विमल राय प्रोडक्शन की स्थापना कर 1953 में पहली फिल्म दो बीघा जमीन का निर्माण किया। इस फिल्म से संगीतकार सलिल चौधरी भी विमलदा से जुड़ गए। दो बीघा जमीन की कहानी सलिलदा की ही लिखी हुई थी। भारतीय किसानों की दुर्दशा पर केंद्रित इस फिल्म को हिंदी की महानतम फिल्मों में गिना जाता है। इटली के नव-यथार्थवादी सिनेमा से प्रेरित बिमल दा की दो बीघा जमीन एक ऐसे गरीब किसान की कहानी है जो शहर चला आता है। शहर आकर वह रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह रेहन पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी ने जान डाल दी है। व्यावसायिक तौर पर दो बीघा जमीन भले ही कुछ खास सफल नहीं रही लेकिन इस फिल्म ने बिमल दा की अंतरराष्ट्रीय पहचान स्थापित कर दी। इस फिल्म के लिए उन्होंने कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोह में पुरस्कार जीता।इस फिल्म ने हिंदी सिनेमा में विमल राय के पैर जमा दिये। दो बीघा जमीन को राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं फिल्म फेस्टिवल्स में व्यापक सराहना मिली। देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड दिया गया।
उसी साल विमलदा ने अशोक कुमार के बैनर के लिए परिणीता और हितेन चौधरी के लिए बिराज बहू का निर्देशन किया। ये दोनों फिल्में शरतचंद्र के उपन्यासों पर आधारित थीं। 1955 में शरतचंद्र के पॉपुलर उपन्यास देवदास पर इसी नाम से फिल्म बनाकर विमलदा देशभर में छा गए। दो बीघा जमीन की तरह यह भी एक क्लासिक कृति साबित हुई। इससे बीस साल पहले विमलदा न्यू थिएटर्स की के.एल. सहगल स्टारर देवदास (1935) का छायांकन कर चुके थे। विमल राय ने अपने होम प्रोडक्शन के तहत 1953 से 1964 तक 14 फिल्मों का निर्माण किया। इनमें से छह फिल्मों का निर्देशन उन्होंने अपने सहयोगियों से करवाया, लेकिन उन फिल्मों को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विमल राय ने अपने बैनर की आठ फिल्मों दो बीघा जमीन (1953), नौकरी (1954), देवदास (1955), मधुमती (1958), सुजाता (1959), परख (1960), प्रेमपत्र (1962), बंदिनी (1964) और बाहर के बैनर की तीन फिल्मों परिणीता (1953) ,बिराज बहू (1954) और यहूदी (1958) का सफल निर्देशन किया था।
1958 में पुनर्जन्म पर आधारित मधुमति तथा यहूदी का निर्देशन किया। दोनों ही फिल्में जबर्दस्त हिट रहीं। संगीतकार सलिल चौधरी ने मधुमति के लिए ऐसी धुन रची कि उसके गाने आज भी लोगों की जुबां पर हैं। इस फिल्म में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत आजा रे परदेसी... उनके सर्वश्रेष्ठ दस गीतों में शुमार किया जाता है।
विमल राय ने 1960 में साधना को लेकर परख नाम की फिल्म बनाई। कम बजट की इस फिल्म ने बाक्स आफिस पर कामयाबी हासिल की और यह बात साबित कर दी कि किसी फिल्म की सफलता के लिए बड़ा बजट होना अनिवार्य शर्त नहीं है। यह बात आज की पीढ़ी के फिल्मकारों के लिए भी एक जरूरी सबक बन सकती है। इसके अलावा 1962 में प्रेम पत्र नाम की फिल्म का निर्देशन किया।
इस तरह अपने जीवन काल में ही मिथक बन चुके महान फिल्मकार विमल राय ने कलात्मक और लोकप्रिय फिल्मों की विभाजन रेखा को मिटा दिया था। इसके अलावा उन्होंने ऋ षिकेश मुखर्जी, नवेन्दु घोष, सलिल चौधरी और गुलजार जैसे तमाम बेशकीमती सौगात हिन्दी फिल्म उद्योग को दिए। कहते हैं कि फिल्म निर्देशक का माध्यम होता है पर विमल राय जैसे चंद ही भारतीय फिल्मकार हुए हैं जिनकी अपनी फिल्मों के फिल्मांकन, पटकथा, संगीत, नृत्य आदि तमाम पक्षों पर गहरी पकड़ रही है। उनकी फिल्मों के हर दृश्य पर उनकी एक विशिष्ट छाप होती थी और इसी ने विमल राय को फिल्म निर्माण का ऐसा स्कूल बना दिया जिसका कमोबेशआज भी पालन किया जाता है।
बिमल दा की सर्वाधिक यादगार फिल्मों में बंदिनी (1963) का नाम लिया जा सकता है। यह फिल्म हत्या के आरोप में जेल में बंद एक महिला की कहानी है। इस फिल्म में अभिनेत्री नूतन ने शानदार भूमिका अदा की है। विमल राय के फिल्मांकन का बेजोड़ उदाहरण बंदिनी का वह दृश्य हैं जिसमें नूतन अस्पताल में एक दरवाजे के सामने खड़ी है और बगल में वेल्डिंग के कारण चिंगारियों का एक सैलाब फूट रहा है। चिंगारियों के माध्यम से विमल राय ने नायिका की मनोदशा को जिस प्रकार पेश किया वह किसी भी दर्शक के मन पर अमिट छाप छोड़ सकता है। इसके अलावा उन्होंने छूआछूत की समस्या पर आधारित सुजाता फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में भी एकबार फिर उन्होंने नूतन को अभिनेत्री के तौर पर लिया जबकि अभिनेता की भूमिका निभाई सुनील दत्त ने।
आस्कर पुरस्कार से सम्मानित सत्यजीत राय ने कहा था कि विमल दा ने अपनी पहली ही फिल्म से सिनेमा की परंपराओं के मकडज़ाल को दरकिनार कर दिया और ऐसे यथार्थवादी दौर की शुरुआत की जिसे दर्शकों ने भी भरपूर सराहा। फीचर फिल्मों के अलावा उन्होंने कई डाक्यूमेंट्री फिल्में भी बनायी। उनमें एक गौतम द बुद्घा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुयी। पुरस्कार जीतने मे भी विमल दा का कोई सानी नहीं था।
बिमल दा ने सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म फेयर पुरस्कार जीता। उन्हें यह पुरस्कार 1954 में दो बीघा जमीन, 1955 में परिणीता, 1956 में बिराज बहू, 1959 में मधुमति, 1960 में सुजाता, 1961 में परख तथा 1964 में बंदिनी के लिए यह पुरस्कार मिला। 1940 और 1950 के दशक में समानांतर सिनेमा के प्रणेता रहे बिमल दा के प्रोडक्शन की आखिरी फिल्म रही बेनजीर (1964)। इसका निर्देशन एस खलील ने किया था।
बंदिनी के बाद विमल राय शिखर पर थे। हिंदुस्तानी सिनेमा को उनसे बहुत उम्मीदें थी, लेकिन आठ जनवरी 1966 को लंबी बीमारी के बाद 56 साल की उम्र में विमल राय के निधन से ये उम्मीदें अधूरी रह गई और हिंदी सिनेमा को नई ऊंचाई देने वाले एक रत्न को फिल्म जगत ने खो दिया। अपने तीन दशकों के फिल्मी जीवन में विमलदा ने हिंदी सिनेमा को जिन ऊंचाइयों पर पहुंचाया, वह फिल्मी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। इतनी कम उम्र में ही वे वहां चले गए जहां के लिए यही कहा जा सकता है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...।
क्लासिक फिल्मों का रचनाकार
देश के पहले पॉपुलर फिल्म पुरस्कार फिल्म फेअर अवार्ड 1953 में शुरू किए गए थे। दो बीघा जमीन के लिए विमल राय को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का पहला फिल्मफेअर अवार्ड मिला। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के फिल्मफेयर पुरस्कारों की दो बार हैटट्रिक बनायी। 1953 में दो बीघा जमीन, 1954 में परिणीता, 1955 में विराज बहू के लिए। बीच में दो साल के अंतराल के बाद 1958-59 और 60 में भी उन्हें यह सम्मान दिया गया। एक बार फिर 1963 में बंदिनी के लिए वह इस पुरस्कार से नवाजे गए।
No comments:
Post a Comment