- श्याम सखा 'श्याम'
मेरी अधिकतर कहानियों की तरह यह कहानी भी गांव-देहात की कहानी है मगर इसमें मुश्किल यह आन पड़ी है कि जिन लोगों की यह कहानी है वे तो कहानी पढ़ते नहीं हैं और जो शहरी लोग कहानी पढ़ते हैं उनकी समझ में कहानी का परिवेश आना थोड़ा- सा कठिन होगा। अत: इस कहानी को समझने में शहरी लोगों को आसानी हो जाए इसलिए मैं एक कुंजी या गाईड इस पहले सफे पर लिख देता हूं। यह कुंजी बिलकुल पाठ्यक्रम की कुंजी जैसी नहीं है। इसे हम अपने किसी तिलिस्म की चाबी या फिर किसी पुरातन आलेख को डीकोड करने की विधि कह सकते हैं क्योंकि कहानी भी पुरातन अवशेष सरीखे सामाजिक मूल्यों व रिवाजों पर आधारित है जो इस इक्कीसवीं सदी में भी अपने अस्तित्व को कायम रखे है।
आप बस इतना भर जान लें कि महानगरों में जैसे किसी बड़ी हाऊसिंग सोसायटी या मोहल्ले में अगर एक ही गोत्र के लोग रहते हैं तो जैसे उदाहरण के लिए भाटिया नगर सोसायटी में सभी घर भाटियों के थे मगर कुछ भाटिये अपने फ्लैट बेचकर चले गए तथा संयोग से ये पांचों फ्लैट मनचन्दों ने खरीद लिए। अब शहर में तो एक ही सोसायटी में रहने वाले भाटिये या मनचन्दों की लड़की- लड़कों के विवाह होना कोई बड़ी बात नहीं है। मगर गांव- देहात में अगर गांव भाटियों का है और मनचन्दों के कुछ घर वहां आकर बस गए हैं तो ना तो भाटियों के लड़के- लड़कियों का विवाह मनचन्दुओं में हो सकता है यानी गांव से बाहर भी किसी और गांव- शहर में भी इस गोत्र या जात में विवाह नहीं कर सकते वे। न ही उस गांव में रहने वाले मनचन्दे बाहर गांव से भी अपने बेटों के लिए भाटियों की लड़की बहू बनाकर ला सकते हैं।
यह अलिखित मगर सर्वमान्य कानून है जिसका पालन हरियाणा के गांव- देहात में सदियों से होता आया है जो गांव- गांव से फैलकर कसबे बन गए हैं वहां यदा- कदा यह कानून टूटने भी लगा है मगर गांवों में तो ऐसा कर पाना असंभव- सा ही है और जब कभी ऐसा होता है तो बड़ी मुश्किल होती है अनेक बार तो वह ब्याह ही तोडऩा पड़ता है। कुछ ऐसी ही घटना पर आधारित है यह कहानी। वैसे आप इस तरह की खबरें अब भी अखबारों में पढ़ सकते हैं। हाल ही में यानि दो हजार दो ईसवीं में सांगवान व बेनीवाल गोत्रों में यह विवाद भिवानी जिले में चल रहा है जिसमें कई बार पंचायतें हो चुकी हैं। खैर! हम अपनी कहानी पर आते हैं। कहानी गांव माजरे की है।
माजरा? कौन सा माजरा? जी असगपुर माजरा, जनाब गढ़ी या माजरे में रहने का यही दु:ख है कि आपकी कोई पहचान नहीं बन पाती। आपको पड़ोस के किसी बड़े गांव का पिछलग्गू बनकर जीना पड़ता है क्योंकि जैसे ही आप अपने गांव का नाम गढ़ी या माजरा बताते हैं तो दोनाली की गोली की तरह सवाल दाग दिया जाता है, कौन- सी गढ़ी, कौन- सा माजरा ? मगर आज जो ये पंचायत जुड़ी है, इसका माजरे के अस्तित्व या दु:ख से कोई मतलब नहीं है। पंचायत क्यों जुड़ी है, यह बताने से पहले कुछ बातों का खुलासा करना आवश्यक जान पड़ता है।
मौजा असगरपुर माजरा लगभग चार सौ वर्ष पहले वजूद में आया था। कहावत है कि इसे मेघुल गोत्र के किसान ने बसाया था। आज भी इस गांव की आबादी की तीन चौथाई मेघुल गोत्र के किसान ही हैं। बाकी एक चौथाई, ब्राम्हण, राजपूत, हरिजन तथा सिमरन गोत्र के किसान रहते हैं। हालांकि हिन्दुस्तान सारी दुनिया के साथ- साथ बड़े बाजे- गाजे के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। परन्तु असगरपुर माजरा अनेक मामलों में अभी कई सदी पीछे है। बिजली जो सप्ताह में एक- आध बार ही चमक दिखाती है यहां भी पहुंच चुकी है। गांवों के छैल हाथ में ट्रांजिस्टर लिए घूमते हैं। हाथ की बनी शराब की जगह थैली की शराब बिकने लगी है। प्रगति के नाम पर शहर की अनेक स्वनाम धन्य बुराइयां असगरपुर माजरे तक पहुंच चुकी हंै। यहां तक कि शादी-ब्याह के गीत भी फिल्मी स्टाइल में गाए जाने लगे हैं। कुछ साल पहले तक जब पंचायत के लिए सरकारी चुनाव नहीं होते थे तब तक मेघुल गोत्र का मुखिया ही गांव का मुखिया होता था। फिर चुनाव होने लगे। तब भी बहुमत के आधार पर मुखिया मेघुल गोत्र का ही चुना जाता रहा।
जब तक ये चुनाव नहीं आए थे, तब तक गांव के सभी गौत-नात और जातियों में प्रेम भाव रहता था। हां, दबदबा बहुमत की वजह से मेघुल गोत्र वालों का ही रहता था। लेकिन सरकारी चुनाव ने न केवल जात- पात का जहर फैला दिया अपितु मेघुल गोत्र को भी दो धड़ों में बांट दिया था और इस बार इसी बंटवारे की वजह से सरपंची सिमरन गोत्र के हाथों में आ गई थी, तब से मेघुल गोत्र का एक धड़ा लगातार सिमरन गोत्रियों को मजा चखाने का इन्तजार करता रहा था। और वह सर्वखाप पंचायत इसी का नतीजा थी।
हुआ यूं कि सिमरन गोत्र के लड़के वीरेन्द्र का विवाह आज से लगभग चार वर्ष पहले महेन्द्रगढ़ जिले के एक गांव में हुआ था। उस गांव में पिथोरा गोत्र का बहुमत था। मगर वहां कुछ घर मेघुल गोत्रीय किसानों के भी थे। उस वक्त तो किसी ने खास ध्यान नहीं दिया कि लड़की पिथोरा गोत्र की न होकर मेघुल गोत्र की थी। हालांकि कुछ सुगबुआहट तो तब भी हुई लेकिन बात यह कहकर दबा दी गई कि लड़की अपने मामा के यहां गोद चली गई थी और मामा का गोत्र मेघुल नहीं था। उस वक्त तो मेघुल गोत्र के बाराती भी पकवान खाकर चटकारे उड़ाकर चले आए थे लेकिन सरपंची के चुनाव ने पुरानी बातों को नया बनाकर ला खड़ा किया और मेघुल गोत्र के लोगों ने इस बात को प्रतिष्ठïा का प्रश्न बना लिया था कि उनके गोत्र की लड़की गांव में बहू बनकर नहीं रह सकती। हालांकि उस दम्पति के दो बच्चे भी हो चुके थे। इस बात को चलते एक महीना बीत चुका था। गांव के बड़े- बूढ़ों ने इस मामले को रफा- दफा करने की कोशिश भी की मगर मेघुल गोत्र के नौजवानों ने सरपंची में हुई अपनी हार को पचा न पाने के कारण इसे एक सुनहरी मौका समझ लिया था बदला चुकाने का और नए सरपंच को धूल चटाने का क्योंकि नया सरपंच विवादास्पद दम्पति का पिता था। हालांकि हार का कारण मेघुल गोत्र के एक धड़े का विभीषण हो जाना था। क्योंकि इनके बिना तो अन्य जातियां और गोत्र मिल कर भी इनका सामना नहीं कर सकते थे।
परन्तु गुस्सा हमेशा निर्बल पर निकाला जाता है। इस हार के कुछ दिनों बाद दूसरा धड़ा भी इस धड़े से आ मिला था। नए सरपंच धर्मसिंह ने अपने बेटे- बहू के लिए सरपंची से इस्तीफा देकर सुलह- सफाई की कोशिश की थी। परन्तु पुराना सरपंच तो उन्हें एक झटके में ही हलाल करना चाहता था। जिससे भविष्य में कभी किसी और गोत्र या जाति का व्यक्ति ऐसी जुर्रत न कर सके।
शुरूआत तो सुगबुगाहट से हुई थी। परन्तु फिर मामला तूल पकड़ता गया। धर्मसिंह का परिवार सहमा हुआ था, वे बाहर निकलते हुए भी डरते थे। फसलें भी बिना देखभाल के खराब हो रही थी। धर्मसिंह ने अपने पुत्र और पुत्रवधू को बाहर भेजने का प्रयत्न भी किया था। परन्तु दुश्मनों की चौकसी के कारण यह संभव नहीं हो सका।
आज आसपास के कुल मिलाकर पच्चीस गांवों की सर्वखाप पंचायत जुड़ी थी। पंचायत में धर्मसिंह ने हर तरीके से सुलह-सफाई की कोशिश की थी। उसने तो अपनी जमीन-जायदाद बेचकर अपने पैतृक गांव जो राजस्थान में था, जाने की पेशकश की थी। परन्तु पुराने सरपंच चंगेज सिंह ने अपने पुराने रसूखों और बहुमत के आधार पर पंचायत से फैसला करवा दिया था कि प्रमिला, (जी, यही नाम था उस लड़की का जिसके पीछे यह सारा बवंडर उठ खड़ा हुआ था) भरी पंचायत में अपने पति रणबीर को भाई मानकर राखी बांधे तथा उसका ससुर उसे बेटी मानकर उसका विवाह कहीं और कर दे। इस फैसले पर अनेक भवें उठी परन्तु जुबान किसी की नहीं खुली। प्रमिला को भरी सभा में बुलाया गया। उसके साथ उसकी सास तथा अन्य आठ- दस स्त्रियां आई तो उन्हें दूर ही रोक दिया गया। उन्हें कहा गया कि आगे औरतों को आना वर्जित है तथा अकेली प्रमिला को ही पंचायत के चबूतरे पर खड़ा कर दिया गया।
सर्वखाप के मुखिया ने मृदु वाणी बनाकर कहा, बेटी प्रमिला! तुम इस गांव की बहू नहीं हो, बेटी हो। अत: अपना घूंघट हटाकर अपने भाई रणबीर को राखी बांधो। प्रमिला के कानों में यह स्वर पिघला हुआ शीशा डालने जैसा महसूस हो रहा था। उसे लगा कि हजारों साल पूर्व महाभारत में जिस तरह द्रौपदी को निर्वस्त्र किया गया था। आज वही सब उसके साथ हो रहा है। उसे अपना पति, ससुर, देवर, जेठ सभी हारे हुए पांडव दिखाई दे रहे थे। तथा शेष सब पंचायती धृतराष्ट्र व दु:शासन दिखाई दे रहे थे। उसकी आंखें जमीन में गड़ी थी। वह नाखूनों से धरती कुरेद रही थी। द्रौपदी को तो महाबली कृष्ण का सहारा था। परन्तु उसे तो कुछ नजर नहीं आ रहा था।'
वह अभी सोच रही थी और इधर पंचायत के मुखिया को देरी सहन नहीं हो रही थी। वह जल्दी से जल्दी अपनी फतह का डंका बजाना चाहता था। उसने अपने पास बैठे पहलवाननुमा व्यक्ति से कहा 'जा प्रमिला की मदद कर और इसका घूंघट हटा दे।' वह व्यक्ति उठकर प्रमिला की तरफ चला ही था कि स्त्रियों के झुरमट की तरफ से एक कड़कदार आवाज गूंजी 'ठहरो!' सबका ध्यान उस तरफ गया तो उन्होंने पाया कि लाठी ठकठकाती हुई गांव की दाई धापां चली आ रही थी। धापां हरिजन थी लगभग पिच्चासी वर्ष की उम्र की स्याह काला रंग, झुकी कमर बिना दांत का मुंह। सारे गांव के अधिकांश बच्चों का जन्म देने का श्रेय धापां को ही जाता था। यहां तक कि मुखिया चंगेजसिंह को भी जन्म उसी ने दिलवाया था। उसका घरवाला तो कब का मर चुका था और उसकी कोई औलाद न थी। सारा गांव न केवल उसका ऋ णी था अपितु वह हर घर का भेद जानती थी। इसलिए सारा गांव उससे डरता भी था।
इससे पहले कि कोई प्रतिवाद कर पाता वह पंचायत के बीचों-बीच खड़ी प्रमिला के पास आ खड़ी हुई। पत्ते सी कांपती प्रमिला का हाथ उसने अपने बूढ़े मगर मजबूत हाथों से पकड़ लिया। धापां की कड़कदार, बुलन्द आवाज तो पहले ही मशहूर थी। परन्तु आज उसकी आवाज का जादू ही अलग था। वह कहने लगी 'बेशर्मों! पहले अपने गिरेबान में तो झांको, तब इस निसहाय, निरीह लड़की को कुछ कहना। अगर मैंने इन गणमान्य पंचों के घरों की पोल खोलनी शुरू कर दी तो क्या तुम में से कोई गांव में रह पाएगा?' सारी पंचायत को जैसे सांप सूंघ गया? धापां प्रमिला को साथ लेकर चल पड़ी और उसके इशारे पर उसका पति व बच्चे भी साथ- साथ हो लिए। धापां ने उन्हें लोकल बस में बैठाते हुए कहा कि इस अन्याय की जगह पर फिर कभी मत आना। प्रमिला रोती हुई बस में चढऩे से पहले धापां के पैरों में गिर पड़ी थी मगर उसका पति चाहते हुए भी यह नहीं कर पाया था क्योंकि उसका जातिगत अभिमान उसे रोक रहा था।
दोस्तो, कहानी का सुखद अंत यहां हो सकता था। जिन्हें सुखद अंत की कहानियां पसंद हैं उनसे अनुरोध है कि वे कहानी को आगे न पढ़े। कमजोर दिल के मालिकों से भी मेरी यही प्रार्थना है। परन्तु हर देश, काल में, जिसमें द्रौपदी पैदा होती है उसमें दुर्योधन, दु:शासन तो पैदा होते हैं मगर श्रीकृष्ण हमेशा अवतार नहीं लेते। अनेक द्रौपदियां दिन- दहाड़े निर्वस्त्र होती रहती हैं, उन्हें तो धापां दाई भी नहीं मिलती। मैं मात्र एक सूचना और देकर कहानी खत्म करना चाहता हूं कि पंचायत होने की अगली रात धापां के झोपड़ीनुमा मकान में आग लगी और धापां भी उसमें जल मरी। आग किसने लगाई होगी? इसे मैं, पाठक तथा सभी गांव वाले जानते हैं मगर हम सब भी तो कलयुगी धृतराष्ट्र हैं, हमें भी सब कुछ दिखकर भी कुछ नहीं दिखता।
खाप पंचायत आधारित कहानी साहित्य अकादमी हरियाणा द्वारा पुरस्कृत
आप बस इतना भर जान लें कि महानगरों में जैसे किसी बड़ी हाऊसिंग सोसायटी या मोहल्ले में अगर एक ही गोत्र के लोग रहते हैं तो जैसे उदाहरण के लिए भाटिया नगर सोसायटी में सभी घर भाटियों के थे मगर कुछ भाटिये अपने फ्लैट बेचकर चले गए तथा संयोग से ये पांचों फ्लैट मनचन्दों ने खरीद लिए। अब शहर में तो एक ही सोसायटी में रहने वाले भाटिये या मनचन्दों की लड़की- लड़कों के विवाह होना कोई बड़ी बात नहीं है। मगर गांव- देहात में अगर गांव भाटियों का है और मनचन्दों के कुछ घर वहां आकर बस गए हैं तो ना तो भाटियों के लड़के- लड़कियों का विवाह मनचन्दुओं में हो सकता है यानी गांव से बाहर भी किसी और गांव- शहर में भी इस गोत्र या जात में विवाह नहीं कर सकते वे। न ही उस गांव में रहने वाले मनचन्दे बाहर गांव से भी अपने बेटों के लिए भाटियों की लड़की बहू बनाकर ला सकते हैं।
यह अलिखित मगर सर्वमान्य कानून है जिसका पालन हरियाणा के गांव- देहात में सदियों से होता आया है जो गांव- गांव से फैलकर कसबे बन गए हैं वहां यदा- कदा यह कानून टूटने भी लगा है मगर गांवों में तो ऐसा कर पाना असंभव- सा ही है और जब कभी ऐसा होता है तो बड़ी मुश्किल होती है अनेक बार तो वह ब्याह ही तोडऩा पड़ता है। कुछ ऐसी ही घटना पर आधारित है यह कहानी। वैसे आप इस तरह की खबरें अब भी अखबारों में पढ़ सकते हैं। हाल ही में यानि दो हजार दो ईसवीं में सांगवान व बेनीवाल गोत्रों में यह विवाद भिवानी जिले में चल रहा है जिसमें कई बार पंचायतें हो चुकी हैं। खैर! हम अपनी कहानी पर आते हैं। कहानी गांव माजरे की है।
माजरा? कौन सा माजरा? जी असगपुर माजरा, जनाब गढ़ी या माजरे में रहने का यही दु:ख है कि आपकी कोई पहचान नहीं बन पाती। आपको पड़ोस के किसी बड़े गांव का पिछलग्गू बनकर जीना पड़ता है क्योंकि जैसे ही आप अपने गांव का नाम गढ़ी या माजरा बताते हैं तो दोनाली की गोली की तरह सवाल दाग दिया जाता है, कौन- सी गढ़ी, कौन- सा माजरा ? मगर आज जो ये पंचायत जुड़ी है, इसका माजरे के अस्तित्व या दु:ख से कोई मतलब नहीं है। पंचायत क्यों जुड़ी है, यह बताने से पहले कुछ बातों का खुलासा करना आवश्यक जान पड़ता है।
मौजा असगरपुर माजरा लगभग चार सौ वर्ष पहले वजूद में आया था। कहावत है कि इसे मेघुल गोत्र के किसान ने बसाया था। आज भी इस गांव की आबादी की तीन चौथाई मेघुल गोत्र के किसान ही हैं। बाकी एक चौथाई, ब्राम्हण, राजपूत, हरिजन तथा सिमरन गोत्र के किसान रहते हैं। हालांकि हिन्दुस्तान सारी दुनिया के साथ- साथ बड़े बाजे- गाजे के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। परन्तु असगरपुर माजरा अनेक मामलों में अभी कई सदी पीछे है। बिजली जो सप्ताह में एक- आध बार ही चमक दिखाती है यहां भी पहुंच चुकी है। गांवों के छैल हाथ में ट्रांजिस्टर लिए घूमते हैं। हाथ की बनी शराब की जगह थैली की शराब बिकने लगी है। प्रगति के नाम पर शहर की अनेक स्वनाम धन्य बुराइयां असगरपुर माजरे तक पहुंच चुकी हंै। यहां तक कि शादी-ब्याह के गीत भी फिल्मी स्टाइल में गाए जाने लगे हैं। कुछ साल पहले तक जब पंचायत के लिए सरकारी चुनाव नहीं होते थे तब तक मेघुल गोत्र का मुखिया ही गांव का मुखिया होता था। फिर चुनाव होने लगे। तब भी बहुमत के आधार पर मुखिया मेघुल गोत्र का ही चुना जाता रहा।
जब तक ये चुनाव नहीं आए थे, तब तक गांव के सभी गौत-नात और जातियों में प्रेम भाव रहता था। हां, दबदबा बहुमत की वजह से मेघुल गोत्र वालों का ही रहता था। लेकिन सरकारी चुनाव ने न केवल जात- पात का जहर फैला दिया अपितु मेघुल गोत्र को भी दो धड़ों में बांट दिया था और इस बार इसी बंटवारे की वजह से सरपंची सिमरन गोत्र के हाथों में आ गई थी, तब से मेघुल गोत्र का एक धड़ा लगातार सिमरन गोत्रियों को मजा चखाने का इन्तजार करता रहा था। और वह सर्वखाप पंचायत इसी का नतीजा थी।
हुआ यूं कि सिमरन गोत्र के लड़के वीरेन्द्र का विवाह आज से लगभग चार वर्ष पहले महेन्द्रगढ़ जिले के एक गांव में हुआ था। उस गांव में पिथोरा गोत्र का बहुमत था। मगर वहां कुछ घर मेघुल गोत्रीय किसानों के भी थे। उस वक्त तो किसी ने खास ध्यान नहीं दिया कि लड़की पिथोरा गोत्र की न होकर मेघुल गोत्र की थी। हालांकि कुछ सुगबुआहट तो तब भी हुई लेकिन बात यह कहकर दबा दी गई कि लड़की अपने मामा के यहां गोद चली गई थी और मामा का गोत्र मेघुल नहीं था। उस वक्त तो मेघुल गोत्र के बाराती भी पकवान खाकर चटकारे उड़ाकर चले आए थे लेकिन सरपंची के चुनाव ने पुरानी बातों को नया बनाकर ला खड़ा किया और मेघुल गोत्र के लोगों ने इस बात को प्रतिष्ठïा का प्रश्न बना लिया था कि उनके गोत्र की लड़की गांव में बहू बनकर नहीं रह सकती। हालांकि उस दम्पति के दो बच्चे भी हो चुके थे। इस बात को चलते एक महीना बीत चुका था। गांव के बड़े- बूढ़ों ने इस मामले को रफा- दफा करने की कोशिश भी की मगर मेघुल गोत्र के नौजवानों ने सरपंची में हुई अपनी हार को पचा न पाने के कारण इसे एक सुनहरी मौका समझ लिया था बदला चुकाने का और नए सरपंच को धूल चटाने का क्योंकि नया सरपंच विवादास्पद दम्पति का पिता था। हालांकि हार का कारण मेघुल गोत्र के एक धड़े का विभीषण हो जाना था। क्योंकि इनके बिना तो अन्य जातियां और गोत्र मिल कर भी इनका सामना नहीं कर सकते थे।
परन्तु गुस्सा हमेशा निर्बल पर निकाला जाता है। इस हार के कुछ दिनों बाद दूसरा धड़ा भी इस धड़े से आ मिला था। नए सरपंच धर्मसिंह ने अपने बेटे- बहू के लिए सरपंची से इस्तीफा देकर सुलह- सफाई की कोशिश की थी। परन्तु पुराना सरपंच तो उन्हें एक झटके में ही हलाल करना चाहता था। जिससे भविष्य में कभी किसी और गोत्र या जाति का व्यक्ति ऐसी जुर्रत न कर सके।
शुरूआत तो सुगबुगाहट से हुई थी। परन्तु फिर मामला तूल पकड़ता गया। धर्मसिंह का परिवार सहमा हुआ था, वे बाहर निकलते हुए भी डरते थे। फसलें भी बिना देखभाल के खराब हो रही थी। धर्मसिंह ने अपने पुत्र और पुत्रवधू को बाहर भेजने का प्रयत्न भी किया था। परन्तु दुश्मनों की चौकसी के कारण यह संभव नहीं हो सका।
आज आसपास के कुल मिलाकर पच्चीस गांवों की सर्वखाप पंचायत जुड़ी थी। पंचायत में धर्मसिंह ने हर तरीके से सुलह-सफाई की कोशिश की थी। उसने तो अपनी जमीन-जायदाद बेचकर अपने पैतृक गांव जो राजस्थान में था, जाने की पेशकश की थी। परन्तु पुराने सरपंच चंगेज सिंह ने अपने पुराने रसूखों और बहुमत के आधार पर पंचायत से फैसला करवा दिया था कि प्रमिला, (जी, यही नाम था उस लड़की का जिसके पीछे यह सारा बवंडर उठ खड़ा हुआ था) भरी पंचायत में अपने पति रणबीर को भाई मानकर राखी बांधे तथा उसका ससुर उसे बेटी मानकर उसका विवाह कहीं और कर दे। इस फैसले पर अनेक भवें उठी परन्तु जुबान किसी की नहीं खुली। प्रमिला को भरी सभा में बुलाया गया। उसके साथ उसकी सास तथा अन्य आठ- दस स्त्रियां आई तो उन्हें दूर ही रोक दिया गया। उन्हें कहा गया कि आगे औरतों को आना वर्जित है तथा अकेली प्रमिला को ही पंचायत के चबूतरे पर खड़ा कर दिया गया।
सर्वखाप के मुखिया ने मृदु वाणी बनाकर कहा, बेटी प्रमिला! तुम इस गांव की बहू नहीं हो, बेटी हो। अत: अपना घूंघट हटाकर अपने भाई रणबीर को राखी बांधो। प्रमिला के कानों में यह स्वर पिघला हुआ शीशा डालने जैसा महसूस हो रहा था। उसे लगा कि हजारों साल पूर्व महाभारत में जिस तरह द्रौपदी को निर्वस्त्र किया गया था। आज वही सब उसके साथ हो रहा है। उसे अपना पति, ससुर, देवर, जेठ सभी हारे हुए पांडव दिखाई दे रहे थे। तथा शेष सब पंचायती धृतराष्ट्र व दु:शासन दिखाई दे रहे थे। उसकी आंखें जमीन में गड़ी थी। वह नाखूनों से धरती कुरेद रही थी। द्रौपदी को तो महाबली कृष्ण का सहारा था। परन्तु उसे तो कुछ नजर नहीं आ रहा था।'
हिन्दुस्तान सारी दुनिया के साथ- साथ बड़े बाजे- गाजे के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर चुका है। परन्तु असगरपुर माजरा अनेक मामलों में अभी कई सदी पीछे है। बिजली जो सप्ताह में एक- आध बार ही चमक दिखाती है यहां भी पहुंच चुकी है।
इससे पहले कि कोई प्रतिवाद कर पाता वह पंचायत के बीचों-बीच खड़ी प्रमिला के पास आ खड़ी हुई। पत्ते सी कांपती प्रमिला का हाथ उसने अपने बूढ़े मगर मजबूत हाथों से पकड़ लिया। धापां की कड़कदार, बुलन्द आवाज तो पहले ही मशहूर थी। परन्तु आज उसकी आवाज का जादू ही अलग था। वह कहने लगी 'बेशर्मों! पहले अपने गिरेबान में तो झांको, तब इस निसहाय, निरीह लड़की को कुछ कहना। अगर मैंने इन गणमान्य पंचों के घरों की पोल खोलनी शुरू कर दी तो क्या तुम में से कोई गांव में रह पाएगा?' सारी पंचायत को जैसे सांप सूंघ गया? धापां प्रमिला को साथ लेकर चल पड़ी और उसके इशारे पर उसका पति व बच्चे भी साथ- साथ हो लिए। धापां ने उन्हें लोकल बस में बैठाते हुए कहा कि इस अन्याय की जगह पर फिर कभी मत आना। प्रमिला रोती हुई बस में चढऩे से पहले धापां के पैरों में गिर पड़ी थी मगर उसका पति चाहते हुए भी यह नहीं कर पाया था क्योंकि उसका जातिगत अभिमान उसे रोक रहा था।
दोस्तो, कहानी का सुखद अंत यहां हो सकता था। जिन्हें सुखद अंत की कहानियां पसंद हैं उनसे अनुरोध है कि वे कहानी को आगे न पढ़े। कमजोर दिल के मालिकों से भी मेरी यही प्रार्थना है। परन्तु हर देश, काल में, जिसमें द्रौपदी पैदा होती है उसमें दुर्योधन, दु:शासन तो पैदा होते हैं मगर श्रीकृष्ण हमेशा अवतार नहीं लेते। अनेक द्रौपदियां दिन- दहाड़े निर्वस्त्र होती रहती हैं, उन्हें तो धापां दाई भी नहीं मिलती। मैं मात्र एक सूचना और देकर कहानी खत्म करना चाहता हूं कि पंचायत होने की अगली रात धापां के झोपड़ीनुमा मकान में आग लगी और धापां भी उसमें जल मरी। आग किसने लगाई होगी? इसे मैं, पाठक तथा सभी गांव वाले जानते हैं मगर हम सब भी तो कलयुगी धृतराष्ट्र हैं, हमें भी सब कुछ दिखकर भी कुछ नहीं दिखता।
No comments:
Post a Comment