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Nov 3, 2020

आलेख- समाज की उन्नति के लिए महिलाओं को मजबूत करना है ज़रूरी

-देवेंद्र प्रकाश मिश्रा

एक प्रगतिशील समाज महिलाओं की समानता पर आधारित है। महिलाओं के पास समान अधिकार और अवसर होने चाहिए और उन्हें अपनी उच्चतम क्षमता प्राप्त करने के लिए सशक्त होना चाहिए ..!  देश, समाज और परिवार के उज्ज्वल भविष्य के लि महिला सशक्तीकरण अत्यंत आवश्यक है। महिला सशक्तीकरण, भौतिक या आध्यात्मिक, शारीरिक या मानसिक सभी स्तर पर महिलाओं में आत्म-विश्वास पैदा कर उन्हें सशक्त बनाने की प्रक्रिया है।

महिला सशक्तीकरण के बारे में जानने से पहले हमें ये समझ लेना चाहि कि हम सशक्तीकरणसे क्या समझते हैं? ‘सशक्तीकरणका अर्थ - किसी व्यक्ति की उस क्षमता से है जिससे उसमें यह योग्यता आ जाती है कि वह अपने जीवन से जुड़े सभी निर्णय स्वयं ले सके। महिला सशक्तीकरण में भी हम उसी क्षमता की बात कर रहे हैं, जहाँ महिलाएँ परिवार और समाज के सभी बंधनों से मुक्त होकर अपने निर्णयों की निर्माता स्वयं हों।

परमात्मा शक्ति है और शक्ति पहले स्त्री है। जो रचनाधर्मी हो, जिसमें गर्भधारण करने की क्षमता हो वह श्रेष्ठ है। अज्ञानता के कारण ही लोग कन्या जन्म पर शोक मनाते हैं। यह भारत भूमि मातृशक्ति की उपासक है। इस प्रकार वेदों में मातृशक्ति को प्रणाम किया गया है। इसलिए घर में कन्या जन्म ले तो उत्सव मनाया जाना चाहिए, शहनाई- वादन हो, उपहार बाँटा जाए। मातृशक्ति को अग्निरुपा, वायुरूपा, धरा रुपी, जल व प्रकृति और वायुरूपा माना जाता है।

दु:ख में उसके आँखों से आँसू बहते है। सहने की शक्ति उसे धरती की संज्ञा देती है। पुरुष के पास जानकारी अधिक होती है तो वहीं स्त्रियों के पास समझदारी ज्यादा होती है। पूज्य आचार्यश्रीजी ने कहा कि दुल्हन और संन्यासी मेरे लिए एक जैसे हैं। सुनने के बाद आश्चर्य लगेगा, परंतु यह सत्य है। उदाहरण प्रमाण है दुल्हन जैसे ही कन्यादान के बाद विदा होती है, उसी क्षण वह अपना सबकुछ यहाँ तक की कुल और कुलदेवी को भी छोड़ दूसरे कुल की हो जाती है। उसके लिए वहीं उसका धर्म होता है। ठीक उसी प्रकार संन्यासी जब संन्यास का संकल्प लेता है, उसी क्षण उसके लिए सब कुछ समाप्त हो जाता है। मन से मनु की उत्पत्ति हुई है। मन सृष्टि की रचना करने वाला है। सृजन की भावना तो मन से उत्पन्न होती है। जीवन की हर परिस्थिति सुख-दुःख को एक समान मान अपने कर्तव्यों का पूर्ण समर्पण से निर्वहन करना ही सच्ची प्रभु भक्ति है। जीवन में हर स्थिति में तटस्थ रहकर ही मानव अपने जीवन की संपूर्णता व प्रभु को पा सकता है ...।

उल्लेखनीय है कि मनुष्य सारा जीवन भौतिक सुख के लिए भागता है, शेष जीवन आत्म-मंथन व प्रायश्चित में गवाँता है। स्त्री सदैव अपने परिवार के सुख व भविष्य के लिए जुटी रहती है। जीवन भर अपने परिवार को सुखी देखकर ही संतुष्ट रहती है। इसलिए भारतीय संस्कृति में स्त्री का स्थान आगे होता है। वह हमें संतान स्वरूप आशीष देती है। यही कारण है कि कृष्ण के पहले राधा, राम से पहले सीता का नाम आता है। शंकर से पहले माँ गौरी का नाम लिया जाता है। नारी में अर्पण, तर्पण और समर्पण की परंपरा रही है। वह जैसी स्थिति-परिस्थिति होती है उसी के अनुरुप स्वयं को बदल लेती है। इसलिए दुर्गा उपासना के श्लोक में वर्णन किया गया है – ‘रूपम देही जशो देही...

 
मेरा तो मानना है कि भारतीय संस्कृति ही ऐसी संस्कृति है
, जिसमें सभी पंथ पद्धति को उपासना की स्वतंत्रता है। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। बिना नीति के घर, समाज, देश व समाज नहीं चल सकता। नीति व संयम नहीं होने पर जीवन में आनन्द चला जाता है। पहचान अथवा वर्चस्व का अर्थ हमेशा दूसरों को नीचा दिखाना या तिरस्कार करना नहीं होता। नारी स्वयं का अपमान तो सह लेती है, परंतु परिजनों का तिरस्कार वह सहन नहीं कर सकती।

 श्रीमद्भागवत के विविध पक्षों की व्याख्या करते हुए श्रद्धालुओं को मानव जीवन व परमात्मा मिलन के विषय में बताते हैं कि मानव को सर्वश्रेष्ठ बनाकर प्रभु ने इसलिए ही इस धरा पर भेजा है कि वह अपने साथ-साथ सभी जीवों के दु:खों को दूर करने हेतु कार्य करे। भौतिक आनन्द को पीछे छोड़कर हम जब स्वयं की आत्मा को परमात्मा में लीन कर देते हैं तो वास्तव में संपूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा को उज्ज्वल करने हेतु हम सभी के प्रयास की आवश्यकता है। तभी आदर्श समाज, राष्ट्र और संस्कृति की कल्पना संभव हो सकती है। उन्होंने कहा कि भूना चना और कच्चे चने में भी अंतर देख लें। भूने व कच्चे चने में एक अंतर होता है। भूने चने से अंकुरण की संभावना नहीं है। वहीं कच्चे चने को अंकुरित होने का पूरा-पूरा अवसर मिलता है।

एक कुम्हार ने पहले मिट्टी से चिलम बनाया, उसी समय वहाँ से संतों का जाना हुआ। संत को देखकर कुम्हार ने उस चीलम के बदले में सुराही बना दिया। चीलम ने कहा कि यह संतों का संस्कार ही है कि तुम्हारा मन बदला और मेरा जीवन बदल गया। बुजुर्गो एवं विशेष तौर पर माताओं को चाहिये कि वह पारिवारिक सदस्यों को धर्म मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें, क्योंकि श्रेष्ठ समाज के लिए सत्संग आवश्यक है।

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