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Dec 25, 2016

उदंती.com दिसम्बर- 2016

उदंती.com   दिसम्बर- 2016


      विशेष अंक 
अनुपम जी को नमन के साथ

चला गया पानी का रखवाला

सच्चे और खरे अनुपम जी

सच्चे और खरे
अनुपम जी
     - डॉ. रत्ना वर्मा
अनुपम जी से मैं कभी नहीं मिली हूँ, पर मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मैं उनसे नहीं मिली, पिछले तीन- चार वर्षों में शायद तीन या चार बार फोन पर उनसे बात करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। कभी उनके लेखों के संदर्भ में तो कभी उनकी किताबों के बारे में, तो कभी उनकी पत्रिका गाँधी मार्ग के बारे में। वे हर बार इतनी आत्मीयता और इत्मीनान से बात करते थे कि मैं चकित रह जाती थी। यह सोचकर कि इतने व्यस्त और इतने बड़े- बड़े काम करने वाले अनुपम जी मुझ अनजान से इतनी उदारतापूवर्क कैसे बात कर लेते हैं, ऐसे जैसे उनसे बरसो का नाता हो। और यह सच भी है, वे सबके साथ ऐसे ही आत्मीय नाता बनाकर चलते रहे। उनके जानने वाले उनके इस स्वभाव के बारे में बहुत अच्छे से जानते हैं।
पहली बार अपनी पत्रिका उदंती के लिए उनके लिखे लेखों के प्रकाशन के लिए जब मैंने अनुमति चाही , तो उन्होंने पूछा कि आपने 'आज भी खरे है तालाबपढ़ी है, जब मैंने कहा पुस्तक तो नहीं पर उसके कई अंश मैंने पढ़े हैं; जो विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं और वेब पेजों पर प्रकाशित हुए हैं। तब उन्होंने कहा कि मैं आपको य पुस्तक भिजवाता हूँ और साथ ही गाँधी शांति प्रतिष्ठान की गाँधी मार्ग भी। उदंती में प्रकाशन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि मेरी यह किताब तो कॉपी राइ से मुक्त है। आप जो चाहे जितना चाहे प्रकाशित कर सकती हैं। उनके इतना कहते ही मैं अभिभूत हो गई। मुझे कुछ कहते ही नहीं बना, न ही मैं शुक्रिया के दो शब्द ही कह पाई। मेरा शुक्रिया कहना बहुत छोटा शब्द होता। सच कहूँ तो पुस्तकें भेजकर वे मुझ पर आशीर्वाद बरसा रहे थे और मैं नतमस्तक होकर उन्हें स्वीकार रही थी, नि:शब्द।
कुछ समय बाद ये दोनों किताबें मेरे पास डाक से पँहुच गईं। मैंने तुरंत उन्हें फोन करके प्राप्ति की सूचना दी, तब मैं अपने आपको यह कहने से रोक नहीं पाई कि आपने मुझे इस लायक समझा मैं आभारी हूँ आपकी। दोनों पुस्तकें पाकर मैं धन्य हो गई। वे हँ दिए और कहा कि आप अपनी पत्रिका के माध्यम से देश के पर्यावरण को पानी को बचाने की दिशा में काम कर रही हैं ,यह देश के लिए आपका अमूल्य योगदान है। जिस तरह मेरा लिखा आप पढ़ रही हैं और उसे अपनी पत्रिका के माध्यम से लोगों तक पँहुचा रही हैं, वह आपका बहुत बड़ा काम है और इस उपक्रम से यदि एक व्यक्ति भी जागरूक होता है , तो यह देश के प्रति आपका बड़ा योगदान होगा। तब उन्होंने अपनी एक और किताब जो पेंगुइन प्रकाशन की है- साफ माथे का समाजके बारे में भी जानकारी दी, जिसे मैंने बाद में खरीद लिया। फिर एक-दो बार उनसे बात हुई और मैंने आज भी खरे हैं तालाब के अलावा उनके प्रकाशित अन्य लेखों के लिए प्रकाशन की अनुमति चाही तो वे बोले मेरा लिखा आप हमेशा छाप सकती हैं। हम जो लिखते हैं वह ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें यही हमारी मंशा होती है। हम लिखते ही इसीलिए हैं, मना करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। तो ऐसे थे अनुपम जी।
उनकी इन बातों ने मेरे मन में नया उत्साह और नई र्जा भर दी। मैं सोचने लगी -जब अनुपम जी फोन पर बात करके इतनी प्रेरणादायी बाते करते हैं, तो उनसे मिलना, उनसे रूबरू होना कितना उत्साहजनक होता होगा। यूट्यूब में विभिन्न स्थानों पर उनके द्वारा दिए गए व्याख्यानों को सुनने से ही समझ में आ जाता है कि उनके शब्द कितने सच्चे, खरे और प्रेरक होते हैं। उनसे न मिल पाने का असोस तो रहेगा ही, पर इस बात का संतोष भी है कि मैं उन चंद लोगों में से हूँ, जिसे उनसे बात करने का अवसर मिला।
 पर्यावरण और खासकर पानी संरक्षण पर लिखे और बोले गए उनके विचारों ने मुझे हमेशा ही प्रभावित किया है। मैं जितना उन्हें पढ़ती गई ,उतना ही उनके लिए आदर और सम्मान का भाव उठता, कि हमारे पास इतनी अच्छी सोच और इतना अच्छा रास्ता दिखाने वाला व्यक्ति मौजूद है, जो हमें अपने अध्ययन, अपने शोध के आधार पर उस जमाने में ले जाते हैं ,जब आज जैसे न आधुनिक साधन थे न ऐसी तकनीक, पर फिर भी पानी बचाने के जो तरीके और पर्यावरण की रक्षा के जो उपाय हमारे पुरखे करते थे, वे आज के मुकाबले कहीं ज्यादा कारगर और पर्यावरण के संरक्षक उपाय थे। वे हम सबको यही बताने की कोशिश करते रहे कि हम परम्परागत जल- संरक्षण के उपाय को अपनाकर ही पीने के पानी की समस्या से उबर सकते हैं। वे ये सारे काम बिना हो-हल्ला किए चुपचाप करते चले जा रहे थे। जन -चेतना जगाने का उनका तरीका सबसे अलग था।
 जब उदंती के संस्मरण अंक की तैयारी कर रही थी तब, पिता भवानी प्रसाद मिश्र पर उनका लिखा एकमात्र संस्मरण उदंती में प्रकाशित करने की अनुमति हेतु जब मैंने फोन किया ,तो उनसे बात नहीं हो पाई। मुझे उनके सहयोगी ने बताया कि वे बीमार हैं और अस्पताल में हैं। मैंने उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना की और उदंती के जनवरी 2016 के संस्मरण अंक  के प्रकाशन के बारे में जानकारी दी।  उन्होंने कहा -आप उनका संस्मरण प्रकाशित कर सकती हैं, हाँ अंक अवश्य भिजवा दीजिएगा। तब मैंने कल्पना भी नहीं कि अनुपम जी की बीमारी इतनी गंभीर होगी और 19 दिसम्बर को उनके न होने की दुखद खबर मिलेगी।  दिल को जबरदस्त सदमा लगा। उन्हें तो अभी बहुत कुछ करना था, आज के युवाओं को बताना था कि अपने देश के पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर है। अभी बहुत कुछ करना है। अब हम सबके सामने एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि कौन अब दिखाएगा रास्ता।
 यह हम सबके लिए बेहद दुख: की बात है कि पर्यावरण के प्रति चिंता व्यक्त करने वाले अनुपम जी असमय ही हम सबको छोड़कर चले गए। पानी का रखवाला चला गया, लेकिन उनके विचार उनकी बातें, पानी और पर्यावरण पर उनकी चिंता उनके शब्दों के रुप में उनके किताबों में अब भी जिंदा हैं, जिनपर अमल करते हुए हमें आगे बढऩा है। पर्यावरण की रक्षा करनी है। अगर हम ऐसा कर पाए तो यही हम सबकी उनके प्रति सच्ची और खरी श्रद्धांजलि होगी। उदंती के इस अंक को सादर नमन के साथ मैं अनुपम जी को समर्पित कर रही हूँ, जो उनके द्वारा लिखे लेखों और वक्तव्यों पर आधारित है।                                                                                                      

विचार

सुनहरे अतीत से सुनहरे भविष्य तक
- अनुपम मिश्र, सर्वोदय प्रेस सर्विस, नवम्बर 2011
गाँधी विचार शाश्वत रूप से प्रवाहमय हैं। उनके अनुरूप आचरण की आवश्यकता आज जितनी है, उतनी इसके पहले कभी नहीं थी। गाँधीजी ने सन् 1920 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और जीवनपर्यंत इसके कुलपति बने रहे। इस वर्ष विद्यापीठ का दीक्षांत उद्बोधन गाँधीवादी चिंतक अनुपम मिश्र ने दिया। उनका सम्बोधन हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के बारे में सोचने को बाध्य करता है। खासकर शिक्षा व सामाजिक नजरिए के परिप्रेक्ष्य से। अनुपम जी जिस सहजता से सामाजिक विरोधाभासों को हमारे सामने रखते हैं वह वास्तव में अभिनव है। प्रस्तुत है उनके दीक्षान्त उद्बोधन का पहला भाग- 


पहले दो शब्द अपने बारे में। फिर दो शब्द आज के इस भव्य और पुनीत समारोह के बारे में और फिर दो शब्द हमारे आस-पास बन गई, खड़ी हो रही एक नई-सी दुनिया के बारे में। इस दुनिया से न तो हम ठीक से जुड़ पा रहे हैं और न इससे पूरी तरह अलग हो पाते हैं। हम त्रिशंकु की तरह अधर में लटके रह जाते हैं। अधर की यह अटकन हमें बहुत सालती है, तंग करती रहती है। इसलिए इसे भी थोड़ा समझने की कोशिश करेंगे।
तो इस तरह दो-दो-और दो-कुल छह शब्द ही तो होंगे। पर होंगे कुछ हजार शब्द! यह कैसा जोड़ है? यह कैसा गणित है? यह गणित थोड़ी-सी नई पढ़ाई पढ़ गए संसार का गणित है और उसे यह गणित खूब भाता है, पसंद आता है। वह अपने छोटे-छोटे प्राय: ओछे-ओछे कामों का बखान खूब जोर शोर से करता है और अपनी छोटी-सी दुनिया के अलावा जो एक बहुत बड़ा संसार है, उसके बड़े-बड़े कामों को एक तो जोड़ता तक नहीं, जोड़े भी तो जोड़ का परिणाम बहुत कम करके आँकता है। यह गणित गाँधीजी को जरा भी पसंद नहीं था।
तो पहले दो शब्द अपने बारे में। वह भी इसलिए नहीं कि मुझे अपना कुछ बखान बढ़ा-चढ़ाकर करना है। एकदम साधारण जीवन। न तो आज की आधुनिक पढ़ाई पढ़ी और न बुनियादी तालीम से कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। मामूली-सी उपाधि, डिग्री। वह भी साधारण से नंबरों वाली। इतनी मामूली कि उसे दीक्षांत समारोह में जाकर लेने की भी हिम्मत नहीं हुई। वह उसी विश्वविद्यालय में कहीं सुरक्षित रखी होगी या क्या पता अब तक कूड़े में, पस्ती में, रद्दी में बेच दी होगी।
अब दो शब्द आपके इस पुनीत समारोह के बारे में-
आज का यह उत्सव आपके जीवन का एक नया मोड़ है। दीक्षांत यानी दीक्षा का अंत। लेकिन मेरा विनम्र निवेदन है कि वास्तव में आज से आपकी दीक्षा का प्रारंभ होने जा रहा है ; इसलिए इस दीक्षांत समारोह को अब दीक्षारंभ समारोह मानें। गुजराती में इसका नाम बहुत अच्छा है- पदवीदान। वैसे देखा जाए तो आपको यह पदवी दान में नहीं मिल रही। इसे तो आपने अपने श्रम से, बौद्धिक श्रम से अर्जित किया है। पर मैं पदवीदान का शाब्दिक अर्थ नहीं ले रहा। उसका एक अर्थ यह भी है कि जो पदवी आपने अर्जित की है, अब आज यहाँ से बाहर निकलने पर उस पदवी का आप समाज में दान करें। यानी जो ज्ञान आपने अर्जित किया है, अब उसे आप समाज में उनके बीच बाँटने निकलें, जो कई कारणों से ऐसा ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते थे। यह ज्ञान आपके लिए ऐसा रामरतन बन जाना चाहिए कि जिसका जितना उपयोग आप करेंगे, वह उतना ही बढ़ता जाए, कभी कहीं भी कम न हो।
विद्यापीठ की स्थापना के समय सन् 1920 में गाँधीजी ने यहीं पर जो पहला भाषण दिया था, उसमें उन्होंने कहा था कि इसकी स्थापना हेतु केवल विद्यादान नहीं है, विद्या देना नहीं है। विद्यार्थी के लिए गुजारे का साधन जुटाना भी एक उद्देश्य है। इस वाक्य को पूरा करते ही उन्होंने आगे के वाक्य में कहा था कि इसके लिए मैं जब इस विद्यापीठ की तुलना दूसरी शिक्षण संस्थाओं से करता हूँ तो मैं चकरा जाता हूँ। उन्होंने इस विद्यापीठ की तुलना उस समय के बड़े माने गए, बड़े बताए गए दूसरे विद्यालयों से करते हुए एक भिन्न अर्थ में इसे अणुविद्यालय, एक लघु यानी छोटा-सा विद्यालय कहा था। यहाँ के मुकाबले दूसरी संस्थाओं में ईंट-पत्थर, चूना कहीं ज्यादा लगा था- ऐसा भी तब गाँधीजी ने कहा था। लेकिन इस मौके पर हम यह दुहरा लें कि अणु दिखता छोटा-सा ही है पर उसके भीतर ताकत तो अपार होती है।
लेकिन अभी उस अणु की शक्ति और ईंट-पत्थर, चूने की बात यहीं छोड़ें। वापस लौटें गुजारे के साधन पर। तब गाँधीजी चकरा गए थे। आज होते तो वे न जाने कितना ज्यादा चकरा जाते। आज तो इसी शहर में ऐसी अनेक शिक्षण संस्थाएँ हैं, जिनमें पदवीदान से पहले ही, उपाधि हाथ में आने से पहले ही 2-5 लाख रुपए की पगार हर महीने मिल सके- ऐसी नौकरी उन छात्रों की गोद में डाल दी जाती है।
ऐसी वैभवशाली नौकरियों की तरफ लालच- भरी निगाह से देखेंगे, और पता चलेगा कि वैसी पगार तो हमें मिलने नहीं वाली ,तो हमें निराशा हो सकती है। एक आशंका यह भी है कि ये अंगूर हमें 'खट्टेलगें। पर एक तीसरा रास्ता है। वैसी नौकरियों और उससे जुड़े एक छोटे से संसार का पूरे विवेक के साथ विश्लेषण करें, अच्छी तरह से उसकी पड़ताल करें , तो हममें सबको न सही, कुछ को तो यह लगेगा ही कि यह सुनहरा-सा दिखने वाला रास्ता जरूरी नहीं कि हमें खूब सुख और खूब संतोष की तरफ ले जाए।
यह रास्ता पश्चिम के देशों, अमीर मान लिये गए जिन देशों के जिस मिट्टी, पत्थर और डामर से बना है, उसकी मजबूती की कोई पक्की गारंटी नहीं है। पिछले दो-पाँच वर्षों में आप सबने देखा ही है कि समृद्धि की सबसे आकर्षक चमक दिखाने वाले अमेरिका जैसे देश भी भयानक मंदी के शिकार हुए हैं और वहाँ भी इस अर्थव्यवस्था ने गजब की तबाही मचाई है। अमेरिका के बाद ग्रीस, स्पेन भी भयानक मंदी में डूबे हैं। उधारी की अर्थव्यवस्था में डूबे इन सभी देशों को तारने के लिए किफायत की लाइफ़ जैकट नहीं फेंकी गई है। उन्हें तो विश्वबैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बड़े महाजनों ने और उधार देकर बचाना चाहा है।
हम सब प्राय: यहाँ साधारण घरों से ही आते हैं। हमारे माँ-पिता ने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे बचाए होंगे, ताकि हम पढ़-लिखकर कुछ बन जाएं और उनके कंधों पर जो घर का बड़ा भार टिका है, उसे थोड़ा ही सही, हल्का करें। इसलिए यहाँ से निकल कर कोई ठीक नौकरी मिले तो अच्छा ही होगा। पर मैं आप सबसे एक छोटा-सा निवेदन करूँगा, इस विषय में।
हिंदी में और गुजराती में भी दो शब्द हैं- एक नौकरी दूसरा शब्द है चाकरी। नौकरी कीजिए आप जीविका के लिए ,पर जो भी काम करें उसमें अपना मन ऐसा उंडेल दें कि वह काम आपका खुद का काम बन जाए- किसी दूसरे के लिए किया जाने वाला काम नहीं बने। नौकरी में चाकरी का भाव जितना सध सकेगा आपसे, उतना आनंद आने लगेगा और तब आप उसे केवल पैसे के तराजू पर तोलने के बदले संतोष के तराजू पर तोलने लगेंगे- यह साधना थोड़ी-सी आगे बढ़ी नहीं कि फिर आपको इस तराजू की भी जरूरत नहीं रह जाएगी। आप तोलने वाले सारे बाँ भी फेंक देंगे।
विद्यापीठ बनी सन् 1920 में। इस तरह यह आज हमें काफी पुरानी लगेगी। पर देश में दो और पुरानी विद्यापीठों का मैं कुछ उल्लेख आपके सामने करना चाहूँगा। उनकी उमर देखेंगे तो यह विद्यापीठ एकदम ताजी, आज की लगेगी।
हमारे सुनहरे बताए गए इतिहास में एक विद्यापीठ थी नालंदा और दूसरी थी तक्षशिला। संस्कृत के विद्वान इनके नामों का जो भी अर्थ निकालें, वे जानें। पर इन विद्यापीठों के आसपास रहने वालों ने इनके नामों को अपने हिसाब से सरल कर देखा था- ना-अलम-दा- यानी कम मत देना। ज्ञान कम मत देना। हम तुम्हारी इस विद्यापीठ नालंदा में आए हैं तो हमें खूब ज्यादा से ज्यादा ज्ञान देना।
दूसरी विद्यापीठ का अर्थ है तक्ष यानी तराशना, शिला यानी पत्थर, या चट्टान। अनगढ़ पत्थर में से यानी साधारण से दिखने वाले पत्थर में थे, शिक्षक, अध्यापक अपने सधे हाथों से, औजारों से एक सुंदर मूर्ति तराश कर निकालें। मामूली से छात्र को एक उपयोगी, संवेदनशील नागरिक के रूप में तराश कर उसके परिवार और समाज को वापस करें।
समाज अपनी धुरी पर कायम है
गाँधी विचार पर शोध में ऊर्जा की कमी वास्तव में विचलित करने वाला तथ्य है। अपने आस-पास फैली अनेक बुराइयों के बावजूद अंतत: यह विश्वास हमें ढाँढस बँधाता है कि बहुसंख्य समाज आज भी बेहतर मानवीय संकल्पनाओं से ओतप्रोत है। प्रस्तुत आलेख अनुपम मिश्र द्वारा दिए गए दीक्षान्त भाषण का दूसरा एवं अंतिम भाग है।
नालंदा और तक्षशिला इन दो नामों के साथ छात्र शब्द की भी एक व्याख्या देंखे- जो गुरु के दोषों को एक छत्र की तरह ढंक दे- वह है छात्र। तो इन नामों का यह सुंदर खेल कुछ हजार बरस पहले चला था और हमें आज भी कुछ प्रेरणा दे सकता है। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि नालंदा और तक्षशिला जैसी इतनी बड़ी-बड़ी विद्यापीठ आज खंडहर बन गई हैं और बहुत हुआ तो पर्यटकों के काम आती हैं। संस्थाएँ, खासकर शिक्षण संस्थाएँ केवल ईंट-पत्थर, गारे, चूने से नहीं बनतीं। वे गुरु और छात्रों के सबसे अच्छे संयोग से बनती हैं, उसी से बढ़ती हैं और उसी से टिकती भी हैं। यह बारीक संयोग जब तक वहाँ बना रहा, ये प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान भी चलते रहे। आप सब जानते ही हैं कि इनमें से कैसे-कैसे बड़े नाम उस काल में निकले। कैसे-कैसे बड़े-बड़े प्राध्यापक वहा पढ़ाते थे, चाणक्य जैसी विभूतियाँ वहाँ थीं, जिनका लिखा लोग इतने सैकड़ों बरस पहले भी पढ़ते थे और उनके लिखे वे सारे अक्षर आज भी क्षर नहीं हुए हैं, आज भी मिटे नहीं हैं। लोग उन्हें आज भी पढ़ते हैं।
आप बहुत भाग्यशाली हैं कि आपको एक ऐसी विद्यापीठ में प्रवेश का संयोग मिला जिसे खुद गाँधी जी ने बनाया था। जो खुद सन् 1920 से अपनी आखिरी साँस तक इसके कुलपति रहे और उस बेहद कठिन दौर में देश की आजादी से लेकर बीमार की सेवा तक के हजारों कामों को करते हुए भी इस विद्यापीठ का पूरा ध्यान रखा। उन्हें इसके भविष्य के बारे में बहुत आशा थी। उन्होंने इसी आँगन में एक बार कहा था कि मैं खुद तो बूढ़ा हूँ, पका हुआ पत्ता हूँ। दूसरे कामों में फँसा हुआ हूं। मेरे जैसा पका हुआ पत्ता अगर झड़ जाए तो उससे (इस) पेड़ को कोई आँच नहीं आएगी। आचार्य और अध्यापक भी इस पेड़ के पत्ते ही हैं, हालाँकि वे अभी कोमल, मुलायम हैं। कुछ समय बाद वे भी पके पत्ते बनकर शायद झड़ जाएंगे। लेकिन विद्यार्थी इस सुंदर पेड़ की डालियाँ हैं और इन डालियों से भविष्य में आचार्य और अध्यापकों के रूप में पत्ते फूटने वाले हैं।
मैं आप सबके बीच एक तरह से पहली बार ही आया हूँ ;इसलिए यहाँ कि शोध की व्यवस्था के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है मुझे। लेकिन यह निवेदन करना चाहता हूँ कि शोध में यदि श्रद्धा का भाव नहीं जुड़ेगा तो वह कितना ही अच्छा हो, हमें एक डिग्री जरूर देगा पर हमारे समाज को उससे कुछ ज्यादा नहीं मिलेगा। हर वर्ष यहाँ से होने वाले शोध अध्ययनों में से एक दो इस दर्जे के होने ही चाहिए कि वे पूरे देश में अपना झंडा फहरा दें। आखिर आप किसी मामूली विद्यापीठ से नहीं हैं। इसके पीछे गाँधी का झंडा है, जिसने उस अंग्रेजी साम्राज्य का झंडा झुकवा दिया था, जहाँ कभी सूर्यास्त ही नहीं होता था।
मुझे यह बताते हुए अटपटा ही लग रहा है, अच्छा नहीं लग रहा पर पूरे देश में गाँधी विचार की शोध में कोई चमक, उत्साह, आनन्द नहीं दिखता। गांधी अध्ययन केंद्रों की संख्या खूब है और वहाँ से शोध कर उपाधि पाए शोधार्थियों की संख्या भी खूब है- इन आँकड़ों पर हमें गर्व भी हो सकता है पर क्या हम सचमुच कह सकते हैं कि ये शोध, ये शोधार्थी समाज के कुछ काम आ सकेंगे? गुजराती में एक शब्द है- बेदिया ढोर। हम ऐसे ढोर न बने, ऐसे गधे न बनें, जिसकी पीठ पर कुछ वेद रखे हैं। गाँधी का वेद बहुत वजनी है। उसे निरर्थक नहीं ढोना है। तो गाँधी विचार की शोध तो ऐसी हो जो हमें भी तारे और हमारे समाज को भी तारे। हम दोनों को वह इस प्रलय में से बचाकर ले जाए।
आज हमारे अखबार, टेलीविजन के सात दिन-चौबीस घंटे चलने वाले एक-दो नहीं सौ चैनल अमंगलकारी समाचारों से भरे पड़े हैं। तो क्या हम सचमुच ऐसे अनिष्टकारी युग से गुजर रहे हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। गांधीजी ने हिन्दस्वराज में जैसा कहा था यह ठीक वैसा ही है- यह तो किनारे की मैल है। बीच बड़ी धारा तो साफ है। समाज के उस बड़े हिस्से के बारे में गाँधीजी ने सौ बरस पहले बड़े विश्वास से कहा था कि उस पर न तो अंग्रेज राज करते हैं और न आप राज कर सकेंगे। हाँ आज वह लगातार उपेक्षित रखे जाने पर शायद थोड़ा टूट गया है, पर अभी भी अपनी धुरी पर कायम है। तो अपनी धुरी से न हटे समाज पर हमारा शोध कितना है? यह हमारी कसौटी बननी चाहिए।
थोड़े पहले विद्यापीठ के वर्णन के उस रूपक में जड़ों का उल्लेख छूट-सा गया था। जड़ों की मजबूती से ही पूरे पेड़ की मजबूती होती है। अब विद्यापीठ की जड़ें कहाँ होंगी? कौन-सी होंगी? उत्तर हमें गांधीजी से ही मिल सकता है। इसी विद्यापीठ में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि हिन्दुस्तान का हरेक घर विद्यापीठ है, माता-पिता आचार्य हैं। यह बात अलग है कि घर ने, माता-पिता ने आज वह अपनी विशिष्ट भूमिका खो दी है। लेकिन यहाँ से बाहर निकल जब आप अब अपने नया घर बनाएँ तो उसमें इस विचार की, विद्यापीठ के विचार की जड़ें जरूर पनपने दें। अंग्रेजी भाषा का एक शब्द मुझे बहुत छूता है, बहुत ही आकर्षक लगता है- वह शब्द है पिगमेलियन। यह एक बड़ा विचित्र अर्थ लिये हुए है। हम जो हैं नहीं, पर कोई प्यार से कह दे कि तुम तो ये हो तो हमारा मन हमें वैसा ही बना देना चाहता है। इस शब्द को शीर्षक बनाकर अंग्रेजी के एक बहुत ही बड़े लेखक बर्नाड शॉ ने एक बहुत ही सुंदर नाटक लिखा था और फिर बाद में हालीवुड ने इसी नाटक को आधार बनाकर एक बहुत ही सुंदर फिल्म भी बनाई थी। फिल्म का नाम था माई फेयर लेडी
विनोबा ने भी कहा है हमें सभी बताते हैं कि हम दूसरों के पहाड़ जैसे दोषों को तिल की तरह छोटा बना कर देखें और अपने तिल जैसे दोषों को पहाड़ जितना बड़ा करके देखें। पर विनोबा ने कहा यह सब तो बहुत हो गया। अब दूसरों के भी गुण देखो और दूसरों से भी आगे बढ़ अपने भी गुण देखो- इसे उन्होंने गुणदर्शन नाम दिया है। हम अपने साथियों में गुण देखें, अपने में भी गुण देखें। जो गुण नहीं भी होंगे, उन्हें भी देखेंतो वे हममें धीरे-धीरे आने भी लगेंगे।
जब यह विद्यापीठ बनी थी, तब हम गुलाम थे। इसलिए इसके कुलपति के नाते गाँधीजी जो भी भाषण यहाँ देते थे, उसमें प्राय: सरकार से असहयोग की बात भी करते ही थे। आज हम आजाद हैं पर यह आजादी बड़ी विचित्र है। हम, हमारा समाज इस आजादी को ठीक से समझ ही नहीं पा रहा है। इसलिए आज जो ज्ञान हमने यहाँ अर्जित किया है, उसे यहाँ से बाहर निकल समाज में बाँटने के काम में हम लग सकें तो अच्छा होगा। आज समाज से सहयोग का रास्ता आप बनाएँ। नौकरी जरूर करें पर चाकरी इस समाज की करें।
तब समाज के हर अंग में आपको तिल-तिल गाँधी दिखने लगेंगे। उन तिलों को एकत्र करते जाएँ। पौराणिक किस्सा बताता है कि ब्रह्माजी ने सृष्टि की उत्तमोत्तम चीजों से तिल-तिल जमाकर तिलोत्तमा नामक एक पात्र की रचना की थी। उसी तरह आप समाज में से उत्तम, उत्तम तिल एकत्र कर तिलोत्तम बनें- ऐसी हम सबकी शुभकानाएँ हैं।
अंत में मैं एक बार फिर विनोबा के एक सुंदर कथन से आज के इस पावन प्रसंग को समेटना चाहूँगा। विनोबा कहते हैं कि पानी तो निकलता है, बहता है समुद्र में मिलने के लिए। पर रास्ते में एक छोटा-सा गड्ढ़ा आ जाए, मिल जाए तो वह पहले उसे भरता है। उसे भर कर आगे बढ़ सके तो ठीक नहीं तो वह उतने से ही संतोष पा लेता है। वह किसी से ऐसी शिकायत नहीं करता, कभी ऐसा नहीं सोचता कि अरे मुझे तो समुद्र तक जाने का एक महान उद्देश्य, एक महान लक्ष्य, एक महान सपना पूरा करना था। और वह महान लक्ष्य तो पूरा हो ही नहीं पाया!
तो हम बहना शुरू करें। जीवन की इस यात्रा में छोटे-छोटे गड्ढ़े आएँगे, खूब प्यार के साथ उन्हें भरते चलें। उसी को यहाँ के अच्छे शिक्षण का एक उम्दा परिणाम मानें। इतनी विनम्रता हमें विद्यापीठ से मिली शिक्षा सिखा सके, तो शायद हम समुद्र तक जाने की शक्ति भी बटोर लेंगे।

नदियों को बचाने का अर्थ है समाज को बचाना

नदियों को बचाने का अर्थ है
समाज को बचाना
28 नवम्बर 2016 को भारतीय नदी सप्ताह के अवसर पर दिया गया अनुपम मिश्र जी का अंतिम व्याख्यान:
अत्यधिक दुख:द समाचार है कि अनुपम मिश्र जी नहीं रहे।  19 दिसंबर 2016 को प्रात: 05.27 पर दिल्ली के एम्स अस्पताल में  उनका देहांत हो गया। पानी के मुद्दों और भारत की नदियों पर स्पष्ट विचारों वाले, सरल किन्तु प्रभावशाली भाषाशैली के धनी, अत्यंत उदार और विनम्र अनुपम जी समान व्यक्तित्व दुर्लभ है।  जैसा रवि चोपड़ा जी ने कहा है वे सही में अनुपम थे। अनुपम जी भारतीय नदी सप्ताह 2016 के आयोजन समिति के अध्यक्ष थे और वर्ष 2014 भागीरथी प्रयास सम्मान चुनाव समिति के सदस्य थे और वर्ष 2015 में इस समिति के अध्यक्ष बने। खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे भारतीय नदी सप्ताह की आयोजन समिति की बैठकों में वे लगातार उपस्थित रहें, अंतिम बार सितंबर 2016 की बैठक में वे मौजूद थे और भारतीय नदी सप्ताह 28 नवंबर 2016 के शुभांरभ के समय भी वे उपस्थित  रहे , जहाँ पर हमेशा की तरह उन्होंने अपना सरल, स्पष्ट किंतु मर्मस्पर्शी व्याख्यान दिया। वे शाररिक रूप से थके और कमजोर थे, इस सबके बावजूद वे आए जो पर्यावरण के प्रति उनके समर्पण की मिसाल है।
व्यक्तिगत तौर पर वे मेरे (हिमांशु ठक्कर) प्रति बहुत उदार थे और मुझे हमेशा प्रेरित करते रहते थे। हमने कभी भी नहीं सोचा था कि एक दिन हमें उनसे अलग होना पड़ेगा। उनके चले जाने से देश और पर्यावरण को हुई क्षति की भरपाई नामुमकिन है। परंतु उनकी प्रकृति शिक्षा और अनुभव उनके द्वारा रचित स्पष्ट, सरल और सारंगर्भित लेखों और पुस्तकों के माध्यम से हमेशा हमारा मार्गदर्शन करती रहेंगी। किताबों के समान उनके व्याख्यान भी ज्ञान और अनुभव से भरे हुए प्ररेणास्रोत है। उनके दिखाए मार्ग पर आगे बढ़ते रहने के लिए, दु:ख की घड़ी में हम, उनके द्वारा भारतीय नदी दिवस (28-30 नवंबर 2016) में दिए गए उनके अंतिम व्याख्यान को, उन्हें श्रद्धांजलि के तौर पर अर्पित करते हुए, आपके साथ सांझा कर रहे हैं-
सबसे पहले तो आप सबसे माफी माँगता हूँ कि मैं इतने सरस और तरल आयोजन में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। देश भर की छोटी-बड़ी नदियों की चिंता में आप सब यहाँ हैं-इसलिए मेरी कोई कमी नहीं खलेगी।
नदियों पर सरकारों का ध्यान गए अब कोई चालीस बरस पूरे हो रहे हैं। इन चालीस वर्षों में इस काम पर खर्च होने वाली राशि भी लगातार बढ़ती गई है और तरह-तरह के कानून भी बनते गए हैं। और अब यह भी कहा जा सकता है कि राशि के साथ-साथ सरकार का उत्साह भी बढ़ा है। पहले के एक दौर में शोध ज्यादा था, अब शोध भी है और श्रद्धा भी।
तंत्र यानी ढाँचा तब भी वही था जो आज है, पर तंत्र में अब मंत्र भी जुड़े हैं, धर्म भी जुड़ गया है। यह सब पहले से अच्छे परिणाम लाएगा क्या -इस पर अभी चर्चा करने का समय नहीं है।
नदी का भी अपना एक धर्म होता है। एक स्वभाव होता है। नदी का धर्म है बहना। बहते रहना। पिछले एक दौर में हमने विकास के नाम पर, तकनीक की सहायता से नदी के इस धर्म को पूरी तरह बदल दिया है। खेती, उद्योग और शहर में पीने का पानी जुटाने हमने गंगा समेत हर नदी से पानी खींच लिया है। साफ पानी लिया है और फिर इन तीनों गतिविधियों से दूषित हुआ पानी गंगा में वापस डाल दिया है। इस परिस्थिति के रहते भला कौन-सी योजना, कौन-सा मंत्र, आरती, तकनीक, यंत्र गंगा को सचमुच साफ कर पाएगा?
नदी को शु़द्ध साफ पानी मिलता है वर्षा से। केवल ऊपर से गिरने वाली वर्षा नहीं। दोनों किनारों पर, नदी के पनढाल (Catchment) क्षेत्र में बनाए जाते रहे असंख्य तालाबों से रिसकर आया जल भी वर्षा का मौसम बीत जाने पर नदी में शेष महीनों में पानी देता रहता था। ये तालाब बहुत बड़े आकार के भी होते थे और बहुत छोटे आकार के भी।
ताल शब्द हम सबने सुना है जैसे: नैनीताल। पर इस ताल शब्द से ही मिलते-जुलते दो शब्द और थे- चाल और खाल। ये हिमालय के तीखे ढलानों पर भी आसानी से बनाए जाते थे, गाँव के ही लोगों द्वारा। इन तालों, खालों और चालों से वहाँ की पानी की सारी जरूरते पूरी हो जाती थीं और शेष जलराशि रिसकर भूजल का संवर्धन कर दूर बह रही नदी में मिलती थी।
इसी तरह मैदानों में गाँव-गाँव, शहर-शहर में बने अंसख्य तालाबों से खेती-बाड़ी, उद्योग और पेयजल की आपूर्ति होती थी। नदी से इन कामों के लिए जलहरण नहीं होता था। शहर उद्योग और खेती से भी इतना जहर नहीं निकलता था। हमारी विकास की नई शैली ने गंगा की जलराशि का ऊपर बताए तीन कामों से हरण किया है और उसमें से निकलने वाला जहर मिलाया है।
इस बुनियादी गतिविधि की तरफ ध्यान नहीं गया तो नदियों के गंगा के घाटों की सफाई तो हो जाएगी, तटों पर नए पत्थर, नए बिजली के खंबे भी लगेगें, लाउडस्पीकर पर सुबह-साँझ सुरीली कहीं बेसुरी आरती वगैरह भी बजेगी ,पर गंगा और यमुना का पानी कितना बदल पाएगा- कहा नहीं जा सकता। नदियों से कुछ साफ पानी तो निकलना स्वाभाविक है, समाज की जरूरत है पर साथ में कुछ पानी भी नदी में भी डालना होगा। गंगा समेत हर बड़ी नदी इसी कारण गंदी हुई है। और छोटी सहायक नदियाँ तो सुखा ही दी गई हैं, मार दी गई हैं।
मुख्य बड़ी नदी के साथ उसकी सहायक नदियों को भी चिंता और योजना के दायरे में लाना होगा। आज यह नहीं है। गंगा की सभी सहायक नदियाँ उत्तराखण्ड में बरसात में उफनती हैं और गर्मी में सूख जाती हैं। इस वर्ष बंगाल में बाढ़ का एक बड़ा कारण तो वहाँ की छोटी-छोटी नदियों की घोर उपेक्षा थी। सब बड़ी नदियों में, गंगा में भी कई लुप्त हो चुकी छोटी गंगाएँ मिलाना होगा। छोटी गंगाओं को बचाए बिना बड़ी गंगा नहीं बच पाएगी। विकास भी नहीं हो पाएगा। चुराया गया पानी, चुराया गया पैसा विकास नहीं करता। बस झगड़े खड़े करता है। ये झगड़े हरियाणा, पंजाब और कर्नाटक, तमिलनाडु के बीच में कितने साफ ढंग से नज़र आ रहे हैं। साफ पानी नदी में तालाबों से ही जाएगा। आज तो देश के कुछ हिस्सों के तालाबों को भी नदियों के, नहरों के पानी से भरा जा रहा है। यह पद्धति कुछ समय के लिए लोकप्रिय हो सकती है पर पर्यावरण के लिहाज से बिल्कुल अच्छी नहीं है।
जमीन की कीमतें तो आसमान छू रही हैं, इसलिए तालाब न गाँवों में बच पा रहे हैं न शहरों में। अंग्रेज जब यहाँ आए थे ,तो पाँच लाख गाँवों और शहरों के इस देश में कोई 25 से 30 लाख बड़े तालाब थे।
नदियों की इस चर्चा में शहर चेन्नै का स्मरण अटपटा लगेगा पर चेन्नै जेसा आधुनिक शहर तालाबों के नष्ट हो जाने से ही डूबा था। वहाँ आज से पचास बरस पहले तक जितने तालाब थे उनके कारण नदी से पानी हरण नहीं होता था। इसलिए गंगा और देश की सभी नदियों को बचाने से भी बड़ा प्रश्न है ,अपने को बचाना। खुद को बचाना; इसलिए नदियों को बचाने का अर्थ है अपना पुनरुद्धार ।
अगले तीन दिनों तें देश की नदियों को लेकर जो भी काम आपके सबके सामने आएगा, उसके पीछे इस आयोजन समिति के सदस्यों- मनोज मिश्र, सुरेश बाबू, हिमांशु ठक्कर, रवि अग्रवाल, मनु भटनागर और जयेश भाटिया ने सचमुच पूरे एक साल काम किया। पिछला सम्मेलन खत्म होते ही आज के इस आयोजन की तैयारी शुरू हो गई थी।
आप देखेंगे कि इस बार के आयोजन में देश के विभिन्न प्रदेशों में बहने वाली नदियों के ड्रेनेज मैप पर विशेष तौर पर काम किया है। ये नक्शे बताते हैं कि इन नदियों को प्रकृति ने कितनी मेहनत से कितने लाखों वर्षों में एक रूप दिया है। इसे कुछ बाँधो से तोडऩे, मोडऩे की योजनाएँ कितना कहर ढाएँगी, उसकी झलक भी हर साल प्रकृति देती है।
यह पूरी टीम, आप सब इसे समझ रहे हैं, इस पर संवाद कर रहे हैं- यह हम सबका सौभाग्य ही है। सबसे अंत में हम नमन करते हैं, स्मरण करते हैं इस काम के जनक और मार्गदर्शक स्वर्गीय श्री रामस्वामी जी। आज भी वे अदृश्य रूप से हमारे साथ खड़े हैं।

यह अनुपम आदमी

यह अनुपम आदमी
-प्रभाष जोशी 
 परिषद साक्ष्य धरती का ताप, जनवरी-मार्च 2006
यह कागद मैं उन्हीं अनुपम मिश्र और उनके काम पर काले कर रहा हूँ, जिनका जिक्र आपने कई बार देखा और पढ़ा होगा। यह जीने का वह रवैया है ,जिसे पहले समझे बिना अनुपम मिश्र के काम और उसे करने के तरीके को समझना मुश्किल है। जो बहुत सीधा-सपाट और समर्पित दिखता है वह ,वैसा ही होता तो जिन्दगी रेगिस्तान की सीधी और समतल सड़क की तरह उबाऊ होती।
आप, हम सब एक पहलू के लोग होते और दुनिया लम्बाई चौड़ाई और गहराई के तीन पहलुओं वाली बहुरूपी और अनन्त सम्भावनाओं से भरी नहीं होती। विराट पुरुष की कृपा है कि जीवन-संसार अनन्त और अगम्य है।
कितना अच्छा है कि अपने हाथों की पकड़, आँखों की पहुँच और मन की समझ से परे इतना कुछ है कि अपनी पकड़, पहुँच और समझ में कभी आ ही नहीं सकता। ऐसा है, इसीलि तो जाना, करना और खोजना है। ऐसा न हो तो जीने और संसार में रह क्या जाएगा?
मन में कहीं बैठा था कि अनुपम से मुठभेड़ सन इकहत्तर में हुई। लेकिन यह गलत है। गाँधी शताब्दी समिति की प्रकाशन सलाहकार समिति का काम सम्भालने के बाद देवेन्द्र भाई यानी राष्ट्रीय समिति के संगठन मन्त्री ने कहा कि भवानी भाई ने गाँधी जी पर बहुत-सी कविताएँ लिखी हैं। वे उनसे लो और प्रकाशित करो। उन्हें लेने के जुगाड़ में ही भवानी प्रसाद मिश्र के घर जाना हुआ और वहीं उनके तीसरे बेटे यानी माननीय अनुपम प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र या पमपम से मिलना हुआ। भवानी भाई की ये कविताएँ गाँधी पंचशतीके नाम छपीं, इसमें पाँच सौ से ज्यादा कविताएँ हैं।
गाँधी शताब्दी समाप्त होते-होते एक दिन देवेन्द्र भाई ने कहा कि अनुपम आने वाले हैं, उनका हमें गाँधी मार्ग और दूसरे प्रकाशनों में उपयोग करना है। फिर राधाकृष्ण जी ने कहा कि किसी को भेज रहा हूँ, जरा देख लेना। अनुपम को देखा हुआ था। लेकिन किसी के भी भेजे हुए को अपन दूर ही रखते हैं। जब तक कोई भेजा हुआ आया हुआ नहीं हो जाता तब तक वह अपनी आँखो में नहीं चढ़ता। बहरहाल, अनुपम ने काम शुरू किया- सेवक की विनम्र भूमिका में। सर्वोदय में सेवकों और उनकी विनम्र भूमिकाओं का तब बड़ा महत्त्व होता था। सीखी या ओढ़ी हुई विनम्रता और सेवकाई को मैं व्यंग्य से ही वर्णित कर सकता हूँ। विनम्र और सेवक होते हुए भी अनुपम सेवा को काम की तरह कर सकता था।
सेवा का पुण्य की तरह ही बड़ा पसारा होता है। विनम्र सेवक का अहं कई बार तानाशाह के अहं से भी बड़ा होता है। तानाशाह तो फिर भी झुकता है और समझौता करता है, क्योंकि वह जानता है कि ज्यादती कर रहा है; लेकिन विनम्र सेवक को लगता है कि वह गलत कुछ कर ही नहीं सकता, क्योंकि अपने लि तो वह कुछ करता ही नहीं है ना। अनुपम में अपने को सेवा का यह आत्म औचित्य नहीं दिखा, हालाँकि काम वह दूसरों से ज्यादा ही करता था। लादने वाले को ना नहीं करता था और बिना यह दिखाए कि शहीद कर दिया गया है - लदान उठाए रहता। तब उसकी उम्र रही होगी इक्कीस-बाईस की। संस्कृत में एम ए किया था और समाजवादी युवजन सभा का सक्रिय सदस्य रह चुका था। संस्कृत पढ़ने वाले का पोंगापन और युवजन सभा वाले की बड़बोली क्रान्तिकारिता- माननीय अनुपम मिश्र में नहीं थी।
भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया छोड़कर गाँधी संस्था करने का एहसान भी वह दूसरों पर नहीं करता था। ऐसे रहता, जैसे रहने की क्षमा माँग रहा हो। आपको लजाने या आत्मदया में नहीं, सहज ही। जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलि चाहता हो कि आप उसे माफ कर दें। जैसे किसी पर उसका कोई अधिकार ही न हो और उसे जो मिला है या मिल रहा है वह देने वाले की कृपा हो। मई बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लि चम्बल घाटी शान्ति मिशन ने हमें एक जीप दे दी। हम चले तो अनुपम चकित। उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है। सच, इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी। ऐसे विनम्र सेवक का आप क्या कर लेंगे? समझ न आए, तो अचार भी डाल कर नहीं रख सकते। अनुपम मिश्र से बरतना आसान नहीं था। अब भी नहीं है।
बहरहाल, गाँधी शताब्दी आई-गई हो गई और गाँधी संस्थाओं ने उपसंहार की तरह गाँधी जी का काम फिर शुरू किया। विनोबा क्षेत्र संन्यास लेकर पवार के परमधाम में बैठे और बी से बाबा और बी से बोगस कहकर ग्राम स्वराज कायम करने की निजी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए।
सबको लगता था कि अब यह काम जेपी का है। और जेपी को लगने लगा कि ग्राम स्वराज सर्वेषाम् अविरोधेन नहीं आगा। संघर्ष के बिना आन्दोलन में गति और शक्ति नहीं आएगी और अन्याय से तो लडऩा ही होगा। बाबा के रास्ते से जेपी कुछ करना चाहते थे, लेकिन लक्ष्य उनका भी ग्राम स्वराज ही था। मुसहरी में जेपी ने नक्सलवादी हिंसा का सामना करने का एलान किया। फिर बांग्लादेश के संघर्ष और चम्बल के डाकुओं के समर्पण में लग गए।

सर्वोदयी गतिविधियों का दिल्ली में केन्द्र  गाँधी शान्ति प्रतिष्ठानहो गया और अनुपम और मैं आन्दोलन के बारे में लिखने, पत्रिकाएँ निकालने और सर्वोदय प्रेस सर्विस चलाने में लग गए। उसी सिलसिले में अनुपम का उत्तराखण्ड आना-जाना होता। भवानी बाबू गाँधी निधि में ही रहने आ गए थे, इसलिए कामकाज दिन-रात हो सकता था। फिर चमोली में चंडी प्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने  'चिपकोकर दिया। चिपको आन्दोलन पर पहली रपट अनुपम मिश्र ने ही लिखी। चूँकि सर्वोदयी पत्रिकाओं की पहुँच सीमित थी इसलिए वह रपट हमने रघुवीर सहाय को दी और  दिनमानमें उन्होंने उसे अच्छी तरह छापा। चिपको आन्दोलन को बीस से ज्यादा साल हो गए हैं, लेकिन अनुपम का उत्तराखण्ड से सम्बन्ध अब भी उतना ही आत्मीय है। जिसे आज हम पर्यावरण के नाम से जानते हैं, उसके संरक्षण का पहला आन्दोलन चिपको ही था और वह किसी पश्चिमी प्रेरणा से शुरू नहीं हुआ। पेड़ों को कटने से रोकने के लिए शुरू हुए इस आन्दोलन और इससे आई पर्यावरणीय चेतना पर कोई लिख सकता है, तो अनुपम मिश्र। लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं ,तो अनुपम मिश्र हाथ जोड़ लेंगे। अपना क्या है जी, अपन जानते ही क्या हैं!
लेकिन इसके पहले कि अनुपम मिश्र पूरी तरह पर्यावरण के काम में पड़ते, बिहार आन्दोलन छिड़ गया। हम लोग गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से एवरीमैन्सहोते हुए 'एक्सप्रेसपहुँच गए और  'प्रजानीतिनिकालने लगे। तब भी दिल्ली के एक्सप्रेस दफ्तर में कोई विनम्र सेवक पत्रकार था तो अनुपम मिश्र। सबकी कॉपी ठीक करना, प्रूफ पढऩा, पेज बनवाना, तम्बाकू के पान के जरिये प्रेस को प्रसन्न रखना और झोला लटकाकर पैदल दफ्तर आना और जब भी काम पूरा हो पैदल ही घर जाना। प्रोफेशनल जर्नलिस्टों के बीच अनुपम मिश्र विनम्र सेवक मिशनरी पत्रकार रहे। इमरजेंसी लगी, 'प्रजानीतिऔर फिर  आसपासबन्द हुआ तो अनुपम को इस मुश्किल भूमिका से मुक्ति मिली। 'जनसत्तानिकला ,तो रामनाथ जी गोयनका की बहुत इच्छा थी कि अनुपम उसमें आ जाएँ। अपन ने भी उसे समझाने-पटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अनुपम बन्दा लौट कर पत्रकार नहीं हुआ।
प्रोफेशनल पत्रकार हो सकने की तबीयत अनुपम मिश्र की नहीं है। क्यों नहीं है? यह आगे समझ में आएगा। इमरजेंसी में 'एक्सप्रेससे भी बुरा हाल गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान का था। बाबूलाल शर्मा की सेवाएँ अब भी वहीं थी, वे वहाँ चले गए। मैं भी किसी तरह वहीं लौटा। लेकिन अनुपम मिश्र फ्रीलांसर हो गए। आपने बहुतेरे फ्रीलांसर देखे होंगे। अनुपम उनकी छवि में कभी फिट नहीं हो सकता। लेकिन इमरजेंसी के उन दिनों में जो भी करने को मिल जाए और अच्छा और काफी था। अनुपम और उदयन शर्मा इधर-उधर लिखकर थोड़ा-बहुत कमा लेते। अनुपम फोटोग्राफी भी कर सकता है। लेकिन फोटो- पत्रकारिता से कोई आमदनी नहीं होती।
इमरजेंसी उठी और चुनाव में जनता पार्टी की हवा बहने लगी ,तो कई लोग कहते कि अब हम लोगों के वारे-न्यारे हो जाएँगे। किसी को यह भी लगता कि प्रभाष जोशी तो चुनाव लड़के लोकसभा पहुँच जाएगा। जेपी से निकटता को भला कौन नहीं भुनागा। लेकिन अपन  'एक्सप्रेसमें चुनाव सेल चलाने में लगे और अनुपम वहाँ भी मदद करने लगा। जनता पार्टी जीती तो गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान से सरकारी दमन का साया हटा। अनुपम आखिर प्रतिष्ठान में काम करने लगा। अपना एक पाँव एक्सप्रेसमें और दूसरा शान्ति प्रतिष्ठान में। उन्हीं दिनों नैरोबी से राष्ट्रसंघ के पर्यावरण कार्यक्रम का पत्र मिला कि क्या गाँधी शांति प्रतिष्ठान भारत की स्वयंसेवी संस्थाओं का एक सर्वे करके दे सकता है ? हम इतने डॉलर सर्वे के लिए दे सकेंगे। यह भी ख्याल रखिए कि क्या ये संस्थाएँ पर्यावरण का काम करने में रुचि ले सकती हैं। राधाकृष्ण जी और मुझे लगा कि यह सर्वे तो अनुपम ही सबसे अच्छा कर सकता है। काम उसे दिया गया और निश्चित समय में न सिर्फ पूरा हुआ बल्कि जितना खर्च मिला था , उसका एक तिहाई भी खर्च नहीं हुआ। उस सर्वे से अनुपम का देश की स्वयंसेवी संस्थाओं और पर्यावरण के काम में लगी विदेशी संस्थाओं से जो सम्पर्क हुआ वह न सिर्फ कायम है ; बल्कि जीवन्त चल रहा है।
लेकिन एक बार राधाकृष्ण जी ने अनुपम से कहा कि फलाँ-फलाँ विदेशी संस्था से इतना पैसा इस प्रोजेक्ट के लिए मिला है और हमारी इच्छा है कि इसमें से तुम पाँच-छ हजार रुपया महीना ले लो। तब अनुपम के मित्र इससे ज्यादा वेतन सहज ही पाते थे और प्रोजेक्ट करने वाले को तो वे पैसे मिलने ही थे;लेकिन अनुपम घबराया-सा मेरे पास आया। वह प्रतिष्ठान की सात सौ रुपल्ली के अलावा कहीं से भी एक पैसा लेने को तैयार नहीं था। विदेशी पैसा है, मैं जानता हूँ इफरात में मिलता है। इसे लेने वालों का पतन भी मैने देखा है। अपने देश का काम हम दूसरों के पैसे से क्यों करें?
अगर आप अनुपम को जानते हों तो उसका संकोच एकदम समझ में आ जाएगा। नहीं तो उसके मुँह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू कहने वालों में आप भी शामिल हो सकते हैं। पिछले तीन साल से होशंगाबाद में नर्मदा के किनारे उसके लि पर्यावरण की कोई संस्था खड़ी करने के जुगाड़ में हूँ। इसलिए भी कि देश के पर्यावरण के लिए नर्मदा योजना आर-पार की साबित हो सकती है। लेकिन अनुपम को सरकारी जमीन और पैसा नहीं चाहिए। विदेशी पैसे को वह हाथ नहीं लगाएगा, और तो और, गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान छोड़कर अपना बनाया गाँधी शान्ति केन्द्र चला रहे, राधाकृष्ण जी से भी वह संस्था खड़ी करने के लिए एकमुश्त पैसा नहीं लेगा। कुछ उद्योगपतियों से पैसा ला सकता हूँ, लेकिन मुझे मालूम है कि वे पैसा क्यों और कैसे देते हैं। और वह लाना अनुपम के साथ छल करना होगा।
पर्यावरण का काम आजकल विदेश यात्रा का सबसे सुलभ मार्ग है। अनुपम एक-आध बार तो नैरोबी गया, क्योंकि पर्यावरण सम्पर्क केन्द्र के बोर्ड में निदेशक बना दिया गया था। कुछ और यात्राएँ भी वैसे ही की जैसे आप-हम मेरठ, अलवर या चण्डीगढ़ हो आते हैं। झोला टांगा और हो आए। मैं नहीं जानता कि बाहर बैठक में अंग्रेजी कैसे बोलता होगा? बोलना ही नहीं चाहता। मुंह टेढ़ा करके अमेरिकी स्लैंग में अंग्रेजी बोलना तो अनुपम के लिए पाप-कर्म होगा। धीरे-धीरे उसने बहुत जरूरी विदेश यात्राएँ भी बन्द कर दीं। पिछले साल रियो में हुए विश्व सम्मेलन का कार्यक्रम तय करने के लिए पिछले साल फ्रांस सरकार की मदद से पर्यावरण सम्पर्क केंद्र ने पेरिस में सम्मेलन किया था। अनुपम को ही लोग भेजते थे। उसने भेजे पर खुद ऐन मौके पर ना कर गया। रियो भी नहीं गया।
भारत सरकार या राज्य सरकारों को पर्यावरण पर सलाह वह नहीं देता। कमेटियों और प्रतिनिधिमंडलों में शामिल नहीं होता। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में चुपचाप सिर गड़ाए मनोयोग से काम करता रहता है। उसकी पुरानी कुर्सी के पीछे एक स्टिकर चिपका है- पॉवर विदाउट परपज- सता बिना प्रयोजन के। अनुपम के पास प्रयोजन ही नहीं सत्ता का स्पर्श भी नहीं है। आज तक वैसे ही तंगी में यात्रा करता है ,जैसे हम जेपी आन्दोलन के समय झोला लटकाए किया करते थे। और ज्यादातर यात्राएँ बीहड़, सुनसान, रेगिस्तान या जंगलों से।
अनुपम को लड़कपन में गिलटी की टीबी हुई थी। इस बीच उसके दिल ने भवानी बाबूवाला रास्ता पकड़ लिया था। नाड़ी कभी पचास हो जाए और कभी एक सौ पचास। दिल का चलना इतना अनियमित हो गया कि सब परेशान, कौन जाने कब क्या हो जाए! लड़-झगड़कर डॉक्टर खलीलुल्लाह को दिखाया। उन्होंने गोली दी और कहा कि पेस मेकर लगवा लो। मन्ना यानी भवानी बाबू को लगा ही था। लेकिन अनुपम ने न गोली ली न पेस मेकर लगवाना मंजूर किया। निमोनिया कभी भी हो जाए। मुझे और बनवारी (जो कि अनुपम के कॉलेज के दोस्त हैं) को लगे कि अनुपम में शहीद होने की इच्छा है; लेकिन अनुपम अपनी बीमारी से पर्यावरण काम करते हुए और किताबे निकालते हुए लड़ रहा है। 
'देश का पर्यावरउसने कोई नौ-दस साल पहले निकाली। सम्पादित है। लेकिन क्या तो जानकारी, क्या भाषा, क्या सज्जा और क्या सफाई! जिस दिलीप चिंचालकर ने जनसत्ताका मास्टर,हेड बनाया, अखबार डिजाइन किया उसी दिलीप ने इस किताब का ले आऊट, स्केचिंग और सज्जा की है। हिन्दी में ही नहीं, इस देश में अंग्रेजी में भी ऐसी किताब निकली हो तो बताना! लेकिन अनुपम ने किताब निकालने में भी शान्ति प्रतिष्ठान का पैसा नहीं लगाया। फोल्डर छपाया। संस्थाओं और पर्यावरण में रुचि रखने वाले लोगों से अग्रिम कीमत मँगवाई। उसी से कागज खरीदा, छपाई करवाई। फिर खुद ही चिट्ठी लिख-लिखकर किताब बेची। दो हजार छपाई थी, आठ हजार लागत लगी। दो लाख कमाकर अनुपम ने प्रतिष्ठान में जमा कराया।
4 साल बाद 'हमारा पर्यावरणनिकाली। 'देश के पर्यावरणसे भी बेहतर इसका भी फोल्डर छपवाकर अग्रिम कीमत इकट्ठी की। इस बार खर्च डेढ़ लाख के आस-पास हुआ। पुस्तक छपी 6 हजार। फिर चिट्ठियाँ लिखकर बेची। शान्ति प्रतिष्ठान में जमा कराए (कमाकर) नौ लाख रुपए। आज ये दोनों किताबें दुर्लभ हैं और मजा यह है कि पर्यावरण मन्त्रालय ने इन पुस्तकों को नहीं खरीदा। हिन्दी के किसी भी राज्य ने किताबों की सरकारी खरीद में इसे नहीं खरीदा। किसी प्रकाशक ने वितरण और बिक्री में कोई मदद नहीं की। पिछले दस साल के देश के पर्यावरण पर हिन्दी में ऐसी किताबें नहीं निकलीं। अनुपम ने न सिर्फ लिखी और छापी, बेची भी और कोई दस लाख कमाकर संस्था को दिया।

और अनुपम मिश्र ने 'आज भी खरे हैं तालाबनिकाली है यह संपादित नहीं है अनुपम ने खुद लिखी है। नाम कहीं अन्दर है छोटा सा, लेकिन हिन्दी के चोटी के विद्वान ऐसी सीधी, सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिन्दी तो जरा लिखकर बताएँ! जानकारी की तो बात कर ही नहीं रहा हूँ। अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रख कर देखा है। समझा है। अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह की पिरोया है। कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता था। लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, पर्यावरणविद् नहीं, शोधक विद्वान नहीं, भारत के समाज और तालाब से उसके सम्बन्ध को सम्मान से समझने वाला विनम्र भारतीय। ऐसी सामग्री हिन्दी में ही नहीं अंग्रेजी और किसी भी भारतीय भाषा में आप को तलाब पर नहीं मिलेगी। तालाब पानी का इंतजाम करने का पुण्य कर्म है जो इस देश के सभी लोगों ने किया है। उनको उनके ज्ञान को और उनके समर्पण को बता सकने वाली एक यही किताब है। आप चाहें तो कोलकाता का राष्ट्रीय सभागार देख लें। यह किताब भी दूसरी किताबों की तरह ही निकली है। वृक्ष मित्र पुरस्कारजिस साल चला अनुपम को दिया गया था। पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है। उसके जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं। यह उसका और हमारा- दोनों का सौभाग्य है।