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Jan 21, 2016

उदंती- जनवरी- 2016

उदंती- जनवरी- 2016

किताबें मित्रों में सबसे शांत और स्थिर हैंवे सलाहकारों 
में  सबसे सुलभ और बुद्धिमान हैंऔर शिक्षकों में सबसे धैर्यवान हैं। 
-चार्ल्स विलियम एलियोट

संस्मरण विशेष

Jan 20, 2016

बचपन की यादों में देशप्रेम का जज़्बा

    बचपन की यादों में देशप्रेम का जज़्बा

- डॉ. रत्ना वर्मा

यादों के झरोखों से यदि बचपन में झाँक कर देखने की कोशिश करूँ और उसमें भी अपने पढ़ाई के दिनों की तो देश प्रेम का ज़ज़्बा हमारे लिए गर्व और मस्तक ऊँचा उठाकर चलने वाली भावना से जुड़ा होता था। चाहे समय 26 जनवरी का हो या 15 अगस्त का तथा इन अवसरों पर रंगमंच पर प्रस्तुत किए जाने वाले नृत्यनाटक या फिर गीत का हो।
   तब सुबह की प्रभात फेरी में शामिल होना आवश्यक होता थाया यह कहना अधिक उचित होगा कि छुट्टी मनाने जैसी बात तब मन में आती ही नहीं थी और उसकी तैयारी तो पूछि मत- सफेद यूनिफॉर्म के साथ पॉलिश किए हुए सफेद मोज़े और जूते। चार दिन पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती थी। कपड़ों के जूतों में सफेद पॉलिश के लिए तब चॉक जैसा बारकेक लाया जाता थाजिसे पानी में भीगोकर जूतों को चमकाया जाता था। हमारे पीटी शूज़ एकदम नए की तरह चमक जाते थे। दोस्तों और भाई- बहनों के बीच होड़ लगी होती थी कि मेरी यूनिफॉर्म और मेरा जूते तुम्हारे जूते से ज्यादा सफेद है। पर वह सब किसी विज्ञापन की तर्ज पर मात्र सफेदी की चमकार नहीं होती थीवह सब हम बच्चों की आपसी नोकझोंक के साथ देश के प्रति आदर का भाव भी होती थी।
   इस तरह सवेरे- सवेरे तिरंगा झंडा हाथों में लेकर जब- झंडा ऊँचा रहे हमारा.... गाते हुए कदम- ताल मिलाते हुए चलते थे तो भीतर से कहीं देशप्रेम का ज़ज़्बा हिलोरे लेते था।  प्रभात फेरी में बच्चों की आन- बान- शान देखते ही बनती थी।  कड़क कपड़ों और चमकते सफेद जूतों की आभा ओज़ बनकर सबके चेहरे पर भी चमकती थी।  जनवरी में तब कड़ाके की ठंड और अगस्त में बारिश का मौसम होता थापर बच्चों के उत्साह को न ठंड रोक पाती थी न बारिश। ( अब तो कब कौन -सा मौसम होता हैपता ही नहीं चलताहमने अपने पर्यावरण को भी तहस-नहस जो कर दिया है) देशभक्ति के गीतों के साथ पूरे शहर का चक्कर लगाते हुए यदि अपने घर के सामने से जूलूस निकलता था तो नज़रें स्वत: ही उधर घूम जाती थीं कि माता- पिता के साथ आस- पास के कितने लोग हमें अपने देश के लिए नारा लगाते देख रहे हैं।
   दिन भर रेडियो में देश भक्ति केगीतों की गूँज सुनाई पड़ती थी।  जहाँ डाल- डाल पर सोने की चिडिय़ा करती है बसेरा...ऐ मेरे वतन के लोगों.....ऐ मेरे प्यारे वतन....ऐ वतन ऐ वतन हमको तेरी कसम..... जैसे ओज से भरे गीत सुनकर ही यह अहसास हो जाता था कि गुलामी के बाद की आजादी कितनी सुकून- भरी और आनंददायी होती है।
   देश प्रेम का ज़ज़्बा संभवत: इसी तरह बचपन से पने आप ही पैदा होता चला जाता था। न कुछ कहने की ज़रूरतन कुछ करने की। जीवन की चाल ही इस तरह चलो कि देश प्रेम अपने आप ही पैदा हो। आजादी के लिए अपने आपको कुर्बान कर देने वाले वीरों की कथाएँ तो पढ़ाए ही जाते थे।
   वीरों की कथाओं से मुझे याद आया मेरे बाबूजी जिन्होंने स्वयं आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और नागपुर में वकालत की पढ़ाई करते समय भूमिगत रहने के कारण एक साल परीक्षा नहीं दे पाए। वे हमारे लिए आजादी के मतवालों की कथाओं वाली छोटी-छोटी पॉकेट बुक लाया करते थे-  जिसमें झाँसी की रानीभगतसिंहबिस्मिलचंद्रशेखर आजादराजगुरूसुखदेवमहात्मा गाँधीसरोजिनी नायडूनेहरूसरदार पटेल आदि न जाने कितनी महान विभूतियों की कहानियों के साथ नंदनपराग और मोटू- पतलू जैसी कॉमिक्स की किताबें साथ होती थीं, जिन्हें पढ़ते हुए हम बड़े हुए। पढऩे और लिखने की आदत बचपन में पढ़ी गई इन किताबों का ही नतीजा है। 
   समाज के प्रति एक जिम्मेदार नागरिक बनाने में तब अभिभावक के साथ शिक्षा और शिक्षक की जो भूमिका होती थी, वह आज की व्यावसायिक शिक्षा- व्यवस्था में कहीं गुम हो गई है। अब तो बच्चों को पूछो आजादी का दिन है स्कूल में कोई कार्यक्रम नहीं हैतो वे कहते हैं कल हो गया नआज तो छुट्टी है। यानी आजादी भी एक दिन पहले ही मना ली जाती है।
   कहने का तात्पर्य यही कि  बीज तो तभी बो दिया जाता है, चाहे वह देश के प्रति जिम्मेदारी का हो चाहे अभिव्यक्ति की आजादी का। इसके लिए अलग से किसी किताब की अलग से विचार या अलग से कोई प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती।
   देश की सुरक्षा के लिए सियाचिन ग्लेशियर में तैनात हनुमनथप्पा जैसे जवान की जब मौत होती हैतब आँखें सबकी नम हो जाती हैं और हाथ सैल्यूट के लिए उठ जाते हैं। फिर आज ऐसा क्या हो गया कि देश के प्रति भक्ति को लेकर सवाल उठने लगेचूक कहाँ हो रही है कौन लोग हैं जो देश को कमजोर करने में लगे हैं?  बलिदानियों के लिए कुछ की आँख में न एक क़तरा आँसू हैन शर्म है। क्या आँख का पानी भी मर गया है ? देश को क्षति पहुँचाने वालोंशर्मनाक बयानबाजी करने वालों और भारत के संविधान तक को चुनौती देने वालों के समर्थन में ये कौन लोग खड़े हो रहे हैंक्या ये बुद्धिजीवी हैं या वे हैं जिनकी बुद्धि का दिवाला ही निकल गया हैआज इस ज्वलन्त प्रश्न पर विचार करना ज़रूरी है कि हम बड़े हैं या देश बड़ा है।

बच्चन जी के साथ: विदेश मंत्रालय में छह वर्ष

बच्चन जी के साथ:
विदेश मंत्रालय में छह वर्ष

      - अजित कुमार

मेरे जीवन का अधिकतर हिस्सा- लगभग 75 वर्षों में 45 वर्ष -नौकरी करते बीता है । इनमें से 39 साल मैंने अध्यापन किया और 6 साल भारत सरकार के विदेश मत्रालय में डा0 बच्चन के मातहत अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद-कार्य- जिसके बारे में उस समय भले ही यह ध्यान न किया होपर आज सोचने पर महसूस होता है कि नियमित किन्तु मन्थर गति से बहती हुई मेरी नदी अपने प्रवाह के क्रम में देर-सवेर जाकर जब भी अनन्त-अथाह सागर में विलीन होगीतब होगी… पर यदि उसमें कभी कोई द्वीप था- तो निश्चय ही वह उन्हीं छ्ह वर्षों की अवधि के दौरान रहा होगा। 
सन 1956 से 1962 तक का यह समय केवल इस नाते स्मरणीय नहीं कि एक छात्र ने अपने एक अध्यापक को सरकारी ज़िम्मेवारी निभाने में सहयोग दिया – इसमें विशेष यह है कि वह छात्र था- अजित शंकर चौधरी ,जिसे तब तक थोडी-बहुत लेखकीय ख्याति अजितकुमार के नाम से मिल चुकी थी और वह गुरु थे- प्रसिद्ध हिन्दी कवि डा हरिवंश राय बच्चन जो प्रयाग विश्वविद्यालय में अनेक वर्ष अंग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक रह विदेश जा केम्ब्रिज से आयरिश कवि येटस के तंत्रवाद पर अपना शोध-कार्य पूरा कर हाल में ही स्वदेश लौटे थे और जिन्हें सन 1955 में तत्कालीन प्रधान मन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हिन्दी का विशेषाधिकारी बना दिल्ली-स्थित विदेश मन्त्रालय में नियुक्त किया था।
उस अवधि का और अपनी उन दिनों की मानसिक स्थिति का विशद वर्णन बच्चन जी आत्मकथा में कर चुके है जिसे दोहराना यहाँ ज़रूरी नहीं। पर जो बहुत सी बातें अनकही रह गईंउनमें से कुछ का हवाला यहाँ  देना शायद प्रासंगिक होगा।
तब मैं डीएवी कालेजकानपुर में सुखपूर्वक अध्यापन करते हुए लेखन तथा परिवार के परिवेश में पूरी तरह मगन और संतुष्ट थाकिन्तु नियति मुझे खींचकर दिल्ली ले आई जहाँ मैं 1956 से लेकर अब तक न केवल अटका हुआ हूँ; बल्कि जान पड़ता हैयहीं दम भी तोड़ूँगाजबकि मुझे घसीटकर दिल्ली लाने वाले बन्धु ओंकारनाथ श्रीवास्तव और गुरुवर बच्चनजी क्रमश: लंदन और बम्बई में संसार से बिदा ले गए। अब इसका रोना कहाँ  तक रोया जाए कि हम जिनके भरोसे गफ़लत में पड़े सोए रहते हैंवे अकसर बीच में ही उठ कर चले जाते हैं। तो धीरज रखने का उपाय यही है कि उनसे जुडी यादें हमें जब-तब प्रेरित करती रहें। औरजहाँ  तक इन दोनो का सम्बन्ध हैसंक्षेप में यही कहूँगा कि चारो ओर घिर रही रात में उनका स्मरण मुझ ऊँघते को रह-रह कर जगाता है।
ओंकार सन 1948 से 1953 तक प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्रावास केपीयूसी में मेरे प्रिय साथी रहे। बच्चनजी उनके क्लासटीचर और मेरे सेमिनार टीचर थे। सबसे पहले उन्हींके साथ मैं बच्चनजी के घर गया था। कालान्तर में जब ओंकार को आकाशवाणीदिल्ली में काम मिला और पता चला- विदेश मन्त्रालय में बच्चनजी को एक सहायक चाहिएमुझे कानपुर से बुलाया गया और इस तरह हम तीनो फिर एक ही नगर में इकट्ठे हो गये। यह सम्मिलन धीरे-धीरे किस तरह बढ़ता गया और अपने छात्रों के पारिवारिक जीवन में गुरुवर ने कैसी सार्थक भूमिका निभाईइसका रोचक वर्णन ओंकार ने अपने लेख कोई न कभी मिलकर बिछुडे में किया है जिसका शीर्षक बच्चनजी के उस गीत पर आधारित था जिसमें ये पंक्तियाँ आती हैं- सब सुख पावेंसुख सरसावें। भलेही समय ने हमारे अनेक सुख हमसे छीन लिये हों,- यह तथ्य कि गुरु-दम्पती के सान्निध्य में हम अनेक छात्रों ने भरा-पूरा जीवन जिया- अपनेआप में उल्लेखनीय है।
मेरा अतिरिक्त सौभाग्य यह था कि मैंने विदेश विभाग में हिन्दी अनुवाद करते हुए लगभग छह साल उनके साथ बिताए और जाना कि मैं कलम और बन्दूक चलाता हूँ दोनों’ गानेवाला कवि दफ़्तर का उबाऊ काम भी कैसी निष्ठा और लगन से करता था । इसमें सन्देह नहीं कि वे प्रथमत: और प्रमुखत: कवि थे पर यह कभी नहीं हुआ कि इसे उन्होंने दफ़्तरी अनुशासन या दायित्व पर हावी होने दिया हो।
डा बच्चन ने आत्मकथा के दूसरे खंड नीड का निर्माण फिर ‘ में तनिक विस्तार से विदेश मन्त्रालय में विशेषाधिकारी- हिन्दी बनकर आने की स्थितियाँ बयान की हैंजहाँ वे 1955 से लेकर 1965 तक रहे। उन्होंने तो इसका ज़िक्र कहीं नहीं कियापर जब 1956 में हिन्दी अनुवादक बनकर मैं विदेश मन्त्रालय में आयातब मुझसे और बच्चनजी के पहले से वहाँ  हिन्दी एकांश में कार्यरत श्री राधेश्याम शर्मा ने मुझे वह कथा सुनाई थी ,जो समय से कुछ पूर्व ही बच्चनजी के विदेश मन्त्रालय में नियुक्त हो जाने का निमित्त बनी थी।
उक्त आत्मकथा के पाठक जानते ही हैं कि विदेश से उच्च उपाधि लेकर लौटने पर अपने विभाग और विश्वविद्यालय में बच्चनजी को जो उदासीनता और दुर्भावना झेलनी पडीउससे वे आहत थे और जिन पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस पढाई में उनकी सहायता की थीउनके मन में यह विचार आया था कि भारत सरकार में वे उनके लिए यथावसर कोई उपयुक्त पद बनाएँगे।
श्री राधेश्याम शर्मा के अनुसार यह अवसर संयोगवश सन 1955 में निकल आयाजब श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित सोवियत संघ में भारत की राजदूत होकर पहुंचीं और उन्होंने अपने पद का सत्यांकन पत्र सम्बद्ध अधिकारी को सौंपने की पेशकश करनी चाही ताकि वे अपना राजनयिक दायित्व विधिवत् आरम्भ कर सकें। लेकिन इसमें बाधा यह आ पड़ी कि रूसियों ने सत्यांकन पत्र की भाषा- अंग्रेज़ी- को लेकर ऐसी आपत्ति खड़ी कर दी जिसका तत्काल समाधान किये बिना श्रीमती पंडित की नियुक्ति सत्यापित नहीं हो सकती थी। वह शीतयुद्ध के चरमोत्कर्ष का काल था और दोनो गुट एक-दूसरे को नीचा दिखाने के मौक़े खोजते ही रहते थे। रूसियों ने चाहा कि सत्यांकनपत्र या तो भारत की राषट्रभाषा हिन्दी में होया सोवियत सघ की राष्ट्रभाषा रूसी मेंजो एक ऐसी माँग थीजिसका तर्कसंगत उत्तर यही हो सकता था कि सरकारी प्रलेखों के लिए अंग्रेज़ी के सर्वमान्य उपयोग वाली प्रचलित पद्धति अपनाए रखने की जगह वह कागज़ हिन्दी में तैयार किया जाए और जब तक यह नहीं हो जाताहमारी राजदूत बीच में अटकी रहें।
राधेश्यामजी ने बताया था कि उन दिनों का दफ़्तरी तनाव तब और बढ़ गया था- जब उक्त आलेख का हिन्दी अनुवाद शिक्षा मन्त्रालय के सहयोग से हिन्दीभाषी अधिकारियों द्वारा तैयार कराकैलिग्राफ़िस्ट अर्थात क़ातिब से सुन्दर अक्षरों मेंउम्दामोटे कागज़ पर लिखवामास्को भेजा गया – जो सत्यांकन पत्र की मानक विधि थी- किन्तु अधिकारी चकित रह गए;जब रूसी विद्वानों ने उस पाठ में भाषा तथा वर्तनी की अनेक गलतियों पर निशान लगाउसे वापस कर दियाजिसका सीधा असर यह तो हुआ ही कि हमारी राजदूत अपना काम-काज शुरू न कर पाईऊपर से यह खिसियाहट भी झेलनी पड़ी कि हमारी अपनी भाषा को हमारी अपेक्षा विदेशी विद्वान सीनियर बरान्निकोव- चेलिशेव आदि ज़्यादा अच्छी तरह जानते हैं।
सम्भवत: यही वह स्थिति रही होगीजब पंडित नेहरू ने हस्तक्षेप किया और डा0 बच्चन के पास संदेश गया कि वे दिल्ली आकर सरकार को इस भारी धर्मसंकट से उबारें। बच्चन जी ने बडी कुशलता से उस कार्य को सम्पन्न किया और इस सिलसिले में जो लम्बी-चौड़ी दफ़्तरी कारगुज़ारी हुईउसका नतीजा यह निकला कि भारत सरकार के विदेश मंत्रालय म्रें यह नीतिगत निर्णय लिया गया कि भविष्य में भारतीय राजदूतों के सत्यांकन पत्र हिन्दी में ही जारी किए जाएँगे। अत: तत्कालीन हिन्दी एकांश को कुछ बढाबाबूटाइपिस्टआशुलिपिक आदि अमला जोड हिन्दी सेक्शन’ गढ़ा गया और चिट्ठी-पत्री सम्बन्धी उसकी भाषायी ज़िम्मेवारियों में एक और काम- सत्यांकन पत्र की तैयारी ‘- भी शामिल हुआ। मुझे यह भी पता चला कि इकाई’ या एकांशजैसी निर्वैयिक्तकता से उसको मुक्त कर बच्चनजी ने उसे विभाग’ का स्वरूप देने पर बल दिया और सरकारी कागज़ों में वह कुछ भी रहा होउनके लिए वह इसी भाँति बनाभले ही सरकारी तौर पर उसे फुलाने-फैलानी की कला न उन्हें आती थी और न उन्हें वैसा करने में कोई दिलचस्पी थीजिसको विदेशियों ने पीटर’ और पार्किन्सन नियमों-सिद्धान्तों जैसे नामो से जोड़कर प्रतिष्ठा भले दी होपर जिसके मूल में हमेशा की तरह भावना सीधी -सी यह रही कि अफ़सर वही बड़ा माना जाएगा जिसकी गर्दन में मातहतों की छोटी-बड़ी भरपूर मालाएँ पड़ी हुई हों। आज यह कहते हुए मुझे विशेष गर्व होता है कि विदेश मन्त्रालय में काम करने के पूरे छ: वर्षों के दौरान एक बार भी मैंने बच्चनजी को इस आकांक्षा से ग्रस्त नहीं पाया और सौभाग्यवश मुझे भी ऐसा कोई दंश नहीं हुआ कि सरकारी सीढ़ियों के एक निचले पायदान पर मैं इतने सालों अटका पड़ा रहा। ज़रूर हीइसके पीछे गुरु और शिष्य की मानसिकता का एक स्तर पर तालमेल काम कर रहा होगा गोकि यहाँ  ठहरकर मैं जोड़ना चाहूँगा कि मुझमें और उनमें जो बहुत से फ़र्क थे- मसलन उनकी सुचारुता-व्यवस्थाप्रियता और मेरा ढीलाढालापन- उसे भी निकट से जानने का मुझे अवसर मिला जिसे बहुत शुरू से ही भांपकर वे मुझे दीर्घसूत्री‘ अर्थात विलम्ब से काम पूरा करने वाला कहने लगे थे। पर उस सबकी चर्चा फिर कभी करूंगाअभी वह सूत्र जोड़ता हूं जिसके बीच में छूट जाने का भय है।
विदेश मन्त्रालय में हिन्दी के विशेषाधिकारी की भांति बच्चन जी की नियुक्ति का तात्कालिक संदर्भ- शर्मा जी के अनुसार- यही था। 1956 के आरंभिक महीनों मेजब मैं हिन्दी अनुवादक बनकर दिल्ली पहुँचा और हिन्दी विभाग में सहायक की भाँति कार्यरत शर्मा जी से मित्रता हुई तो एक रोज़ किसी लेटर आफ़ क्रीडेंस’ में स्पेलिंग की गल्तियो पर पेंसिल से निशान लगाते समय मुझे खीझते देख उन्होंने यह कथा सुनाई थी। मेरी शिकायत मुख्यत: यह थी कि पहली बार मार्क की हुई गलतियाँ ठीक करना तो दूरक़ातिब ने कितनी ही नयी गलतियाँ कर दी हैंजिन्हें ठीक करने का मतलब होगा- महँगे- उम्दा- मोटे कागज़ की और भी ज़्यादा बर्बादी। इसपर जहाँ  उन्होंने समझाया था कि सरकारी काम-काज में ऐसे अपव्यय तो होते ही रहते हैं और कि सुलेख के धनी ये लोग आमतौर से होते हैं अनपढ़ हीवहीं लगे हाथों पूरी पृष्ठभूमि भी मुझे बताना उन्होंने ज़रूरी माना था। 
छह वर्षजो मैंने वहाँ  बिताए- तनिक से काम और ढेर से आराम के वर्ष थे । मुख्य दायित्व वहाँ  सत्यांकनपत्रों के अलावा संसद के प्रश्नों का हुआ करता था- यानी उन प्रश्नों का जो हिन्दी में पूछे जाते थे और जिनका उत्तर भी हिन्दी में ही दिये जाने का प्रावधान था। आज की बात तो मैं नहीं जानता पर उन दिनों इससे जुडी समूची प्रक्रिया मुझे हास्यास्पद मालूम होती थी । आज़ादी के उन शुरुआती सालों में संसद मे वैसे तो काफ़ी कारवाई होती थी पर उसका अधिकतर माध्यम अंग्रेज़ी रहती थी। हिन्दी में कोई इक्का-दुक्का ही सवाल पूछा जाता था और विदेश मन्त्रालय से जुडा प्राय: एक ही सवाल गाहे-बगाहे कोई हिन्दीभाषी उठा देता था कि हमारे कितने दूतावासों का काम हिन्दी में होता है।
इसे निबटाने का बहुत रोचक ढंग बनाया गया था। पहले हम हिन्दी विभाग में उस प्रश्न का अनुवाद अंग्रेज़ी में कर प्रशासन के पास भेजतेजो उसका उत्तर अंग्रेज़ी में लिख हमारे पास लौटाता, ताकि हम फिर उसका अनुवाद करअपने प्रशासन के माध्यम से संसद को सुलभ करा सकें। मुझे हैरानी होती थी कि जब सीधा सा जबाब यह हुआ करता था कि सूचना एकत्र की जा रही है और सुलभ होते ही सदन की मेज़ पर रख दी जाएगी’ तो इसके वास्ते हर बार नाक हाथ घुमाकर क्यों पकड़ी जाती है पर यह दफ़्तरी मामला था जिसमें नाक घुसा दखल देने की गुंजाइश नहीं थी इसलिए ऐसे मौक़ों पर हमारे विभाग के सभी सदस्य- ओएसडी (आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी) से लेकर एलडीसी(लोयर डिविज़न क्लर्क) और चपरासी तक मिलकर चींटी को मशीनगन से मारने में मशगूल हो जाते थे; क्योंकि दफ़्तरी मामलो में हमारे सलाहकार राधेश्याम जी ने बताया था कि संसदीय प्रश्न को निबटाना प्रथम सरकारी वरीयता है और इस टाप प्रायोरिटी‘ से छुट्टी पाकर ही किसी दूसरे काम में हाथ लगाया जा सकता है।
इस निर्देश का पालन करने का मतलब हमारे लिए आम तौर से यह होता था कि संसद का सत्र होने पर ही हम कभी-कभी थोड़ी देर के लिए तनिक- सा व्यस्त होते थेबाकी समय किसी हिन्दी में आए पत्र /आवेदनपत्र का अनुवाद करना होतो करतेअन्यथा चाय पीतेअखबार पढ़ते और आपस में या फ़ोन पर गपशप करते थे। हमारे एक मात्र अधिकारी बच्चनजी का अपना स्वतंत्र कमरा थाजहाँ  हम चपरासी के जरिए कागज़ हस्ताक्षर के लिए भेज देते या कोई फ़ौरीज़रूरी काम निपटाना होता तो अनुवाद विषयक फाइल लेकर मैं और दफ़्तरी कारवाई संबन्धी फाइल के साथ शर्मा जी बच्चनजी के पास दस्तखत कराने जाते थे। शुरू-शुरू में तो हमारा दफ़्तर सेक्रेटेरियट के साउथ ब्लाक में थाजहाँ  स्वयं नेहरू जी प्रधान मंत्री की हैसियत से और विदेश मंत्रालय के अन्य वरिष्ठ अधिकारी बैठते थे। उस समय का एक रोचक प्रसंग आज तक मुझे गुदगुदाता है।
हुआ यों कि जब मैं डी ए वी कालेजकानपुर से बिदा हो दिल्ली पहुँचा तो पता नहीं कैसे मेरे छोटे से कस्बे उन्नाव में मुझे जाननेवाले कई लोगों को खामखयाली सी हो गयी कि राजधानी में प्रधान मंत्री नेहरू के बाद बच्चनजी का दर्जा है और उनके बाद अजित का। इसकी जानकारी मुझे तब हुई जब दो-चार महीने काम करने के बाद कुछ रोज की छुट्टी ले मैं घर पहुंचा । एक बालबंधु ने मिलते ही पूछा –‘पंडित जी से तो रोज ही मुलाकात होती होगीजिसका उत्तर सादा सा मुझे यही देना पड़ा कि नहीं भाईएकाधबार संयोगवश उन्हें आते-जाते देखा भर है।‘ फिर मैं उन्हे काफ़ी देर तक सरकारी तंत्र के बारे में बताता रहा कि चपरासी से लेकर राष्ट्रपति तक फैली जंजीर में कितनी ज़्यादा कड़ियाँ होती हैं और कि उनके बीच मुझ नान-गज़ेटेड और गुरुवर जैसे अंडर सेक्रेटरी अधिकारी की भूमिका दाल में जीरे के एक दाने से भी कितनी कम है- जिसे तो वे मित्र पता नहीं कितना समझे… पर जब मैंने भारत सरकार के हाहाहूती कार्यालयों- साउथ- नार्थ ब्लाकोंससद भवन,राष्ट्रपति भवनराजपथकनाटप्लेस आदि के बारे में बताना शुरू किया तो दिखा कि उनकी आँखेंनाक-कान सब खुले के खुले रह गए हैं।
जैसा मैंने बताया- शुरू में हिन्दी विभाग साउथ ब्लाक में था जहाँ  मेरा साक्षात्कार बच्चनजी के अलावा विदेश मन्त्रालय में तब संयुक्त सचिव श्री टी एन कौल ने लिया था जो एक समय उन्नाव में ज़िलाधीश भी रह चुके थे और उनकी विशेष याद मुझे इस नाते भी थी कि स्कूल में उनके हाथों मुझे जीवन का पहला पुरस्कार मिला था और विश्वयुद्ध के दौरान उनकी पहल पर उन्नाव में आयोजित संगीत सम्मेलन में पहली बार मैंने उस्ताद फ़ैयाज़ खाँनारायणराव व्यासओंकारनाथ ठाकुर जैसे महान गायकों को सुन जीवन की धन्यता महसूस की थी । यह तो खैर बहुत बाद में जाना कि इस तरह के जलसों का असली मक़सद लडाई के लिए धन इकट्ठा करना होता था लेकिन ‘ दूर खेलन मत जावहमारे मन ‘ और पलँगा ना चढौगी ‘ आदि की गूँज आज साठ- पैसठ साल बाद भी मुझे मगन करती रहती है।… साक्षात्कार के दौरान तो इस सबकी चर्चा का अवसर था नहीं और बाद में भी कभी कौल साहब से मुलाकात या बातचीत नहीं हो पाई; लेकिन उनके अनजाने मैं आज भी उनके साथ अपने मन का गहरा जुड़ाव यदि महसूस करता हूं तो शायद इसलिए कि एक तो उनके नाते बचपन में गहरा सुख मिला थादूसरे- सन 1956 से लेकर आज सन 2008 तक मेरी जीवन की जो भी गतिविधिआशानिराशा-हताशा रही हैउसमें अप्रत्यक्ष रूप से सही कुछ न कुछ भूमिका उनकी भी थी। कालान्तर में मैंने यह भी जाना कि जहाँ  मैने जीवन में लगातार पिछड़ते जाने का रास्ता अपने लिए चुनावहाँ अन्य बहुतेरे आईसीएस अधिकारियों की भाँति श्री कौल अपने कैरियर में ऊची-दर-ऊँची सीढ़ी चढ़ते गए थे।
बहरहालहिन्दी विभाग के काम की चर्चा के सिलसिले में यह बताना फिर ज़रूरी है कि दफ़्तरी तत्परता और संलग्नता के बावजूद बच्चनजी की रुचि अपना अमला बढ़ाने में न थी और इसके लिए ज़रूरी दफ़्तरी हथकंडे भी उन्हें मालूम न थे ,इसलिए उनके कार्यकाल में तो उनके समेत कुल सात जने ही वहाँ  रहे लेकिन बाद में अन्य अधिकारी उसे दोगुना दस गुना बढ़ाने में समर्थ हुए। आज के काम काज की स्थिति तो मैं नहीं जानताएक बार वह कार्यालय छोड़ने के बाद दोबारा उसमें जाने का मन नहीं हुआ।


लेखक परिचय: जन्म- 9 जून 1933, लखनऊ (उत्तर प्रदेश), विधाएँ- उपन्यास- छुट्टियाँकहानी- छाता और चारपाईआलोचना- इधर की हिन्दी कविता- कविता का जीवित संसारसंस्मरण- दूर वन मेंसफरी झोले मेंनिकट मन मेंयहाँ से कहीं भीअँधेरे में जुगनूजिनके संग जियासंपादन- अकेले कंठ की पुकारबच्चन निकट सेआचार्य रामचंद्र शुक्ल विचार कोशहिन्दी  की प्रतिनिधि श्रेष्ठ कविताएँ (दो खंड)आठवें दशक की श्रेष्ठ प्रतिनिधि कविताएँबच्चन रचनावली (नौ खंड)सुमित्राकुमारी सिन्हा रचनावलीबच्चन की आत्मकथाबच्चन के चुने हुए पत्रकीर्ति चौधरी की कविताएँकीर्ति चौधरी की कहानियाँकीर्ति चौधरी की समग्र कविताएँनागपूजा और ओंकारनाथ श्रीवास्तव की अन्य कहानियाँबच्चन के साथ क्षण भरदुनिया रंग बिरंगीओंकारनाथ के बीबीसी प्रसारण का संचयन। सम्पर्क: 166, वैशालीपीतमपुरादिल्ली- 110034, 011 - 2731 4369, 09811225605,  Email- ajkumar1933@yahoo.co.in

आज भी गिरने से बचाती है उनकी स्नेह भरी उँगली

आज भी गिरने से
बचाती है उनकी 

स्नेह भरी उँगली

-अनुपम मिश्र

थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना पिताजी से ही सीखा पर उन पर कभी कुछ लिखा नहीं। उन्हें गए आज 27 बरस हो रहे हैंलेकिन उनके बारे में कभी 27 शब्द भी नहीं लिखे।
कारण कई थे। पहला तो वे खुद थे। कुछ के लिए वे जरूर 'गीतफरोशरहे होंगेपर हमारे लिए तो वे बस पिता थे। हर पिता पर उसके बेटे-बेटी कुछ लिखें- यह उन्हें पसंद नहीं था। कुल मिला कर हम सब के मन में भी यह बात ठीक उतर गई थी। मन्ना ने एकाध बार बहुत ही मजे-मजे में हमें बताया था कि कोई भी पिता अमर नहीं होता। पिता के मरते ही उसके बेटे-बेटी उनकी याद में कोई स्मारिका छाप बैठेंखुद लेख लिखेंदूसरों से लिखाते फिरेंउनकी स्मृति को स्थायी रूप देने हेतु उनके नाम से कोई संस्थासंगठन खड़ा कर दें- यह सब बिलकुल जरूरी नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद हमने इस बात को पूरी तरह निभायान खुद लिखान लिखवाया।
दूसरा कारण उनकी एक कविता थी - कलम अपनी साधमन की बात बिलकुल ठीक कह एकाध।तो मन की बात ठीक एकाध कभी सूझी नहीं। सूझी भी तो मन्ना की शर्त 'तेरी भर न होलागू करने के बाद कभी कुछ ऐसा बचता नहीं था लिखने लायक।
हम सब उन्हें मन्ना कहते थे। भाषा को बिगाड़ने का कुछ पाप जिन संबोधनों से लगता होवैसे संबोधन पिता के लिए तब प्रचलित नहीं हुए थे। लेकिन तब के नाम बाबूजीपिताजीबाबा आदि से भी हम और वे बच गए थे। खूब बड़े भरे-पूरे परिवार में मँझले भाई थे। पिताजी के बड़े भाई उन्हें प्यार से सिर्फ 'मँझलेकहते और फिर दादा-दादी से ले कर सभी छोटे बहन-भाईयानी हमारे चाचाबुआ आदि भी उन्हें आदर से 'मँझले भैयाही कहने लगे थे। मुझसे बड़े दो भाई सन 1942 में जब पिताजी को पुकारने लायक उम्र में आ रहे थे कि वे जेल चले गए। जेल में लिखी उनकी कविता 'घर की यादमें इस भरे-पूरे परिवार काउसके स्नेह काआँखें गीली करने लायक वर्णन है। दो-तीन बरस बाद जब वे जेल से छूट कर लौटनेवाले थेतब ये दोनों बेटे अपने पिता को किस नाम से पुकारेंगे - इस बारे में नरसिंहपुर (मध्य प्रदेश) के घर में बुआओंचाचाओं में कुछ बहस चली थी। पर जब पिता सामने आ कर अचानक खड़े हुएसंबोधन कूद के पार कर लिए थे और सहज ही 'मँझले भैयाकह कर उनकी तरफ दौड़ पड़े थे। दोनों बच्चों को कुछ सलाहनिर्देश भी दिए गए थे। बेटों के लिए भी वे 'मँझले भैयाबने रहे।
फिर जन्म हुआ मुझसे बड़ी बहन नंदिता का। जीजी से 'मँझले भैयाकहते बना नहींउनने उसे अपनी सुविधा के लिए 'मन्ने भैयाकिया। फिर मन्ने भैया और थोड़ा घिस कर चमकते-चमकते 'मन्नेऔर अंत में 'मन्नाहो गया। जब मेरा जन्म 1948 में वर्धा में हुआ तब तक पिताजी जगत मन्ना बन चुके थे - सिर्फ हमारे ही नहींआस-पड़ोस और बाहर के छोटे-से लेकिन आत्मीय जगत के।
बचपन की यादें कोई खास नहीं। शायद घटनाएँ भी खास नहीं रही होंगी - उस दौर में एक साधारण पिता के जो  साधारण तौर पर अपने बच्चों से रहते हैंठीक वैसे ही सम्बन्ध  हमारे परिवार में रहे होंगे।
मेरे जन्म के बाद हम सब वर्धा से हैदराबाद आ गए थे। वे दिन हमारे लिए यह सब जानने-समझने के थे नहीं कि मन्ना कहाँ क्या काम करते हैं। पर एक बार वे घर से कुछ ज्यादा दिनों के लिए बाहर कहीं चले गए थे। तब शायद मैं पहली कक्षा में पढ़ता था। वे तब मद्रास गए थे। लौटे तो उनके साथ एक सुंदर चमकीला चाकू आया था। मन्ना को सब्जी काटने का खूब शौक था। सब्जी खरीदने का भी यह शौक कभी-कभी अम्मा की परेशानी में बदल जाता। ढेर के ढेर उठा लाते; क्योंकि बेचनेवाली का बच्चा छोटा थावह सब कुछ बेच जल्दी घर लौट सकती थी। बचपन में हमने उन्हें न तो कविता लिखते देखान पढ़ते-सुनाते। मद्रास के उस स्टील के चाकू से खूब मजा लेकर सब्जी काटते थे - इसकी हमें याद बराबर है।
यह दौर था जब वे मद्रास में ए.वी.एम. फिल्म कंपनी के लिए कुछ गीत और संवाद लिखने गए थे। सब्जी खरीदने में बहुत ही प्रेम से भाव-ताव करनेवाले मन्ना ए.वी.एम. के मालिक चेट्टियार साहब से अपने गीत बेचते समय कोई भाव-ताव नहीं कर पाए थे। गीत बेचने की इस उतावली में उनका लक्ष्य पैसा कमाना नहीं; बल्कि कुछ पैसा जुटा लेना भर था। बड़े परिवार में दो-तीन बुआओं का विवाह करना था। रजतपट के उस प्रसंग में उन पर कुछ कीचड़ भी उछला होगा। उसी दौर में उन्होंने 'गीतफरोशकविता लिखी थी। हमने तब घर में रजतपट के चमकीले किस्से कभी सुने नहीं। किस्से सुने ए.वी.एम. के होटल के जहाँ रोज इतनी सब्जी कटती थी कि अच्छे से अच्छे चाकू कुछ ही दिनों में घिस जाते थेफिर फिंक जाते थे। रजतपट की सारी चमक हमारे घर में इसी चाकू में समा कर आई थी मद्रास से।
चेट्टियार साहब से किसी विवाद के बाद वे गीत बेचने की दुकान बढ़ाकर घर लौट आए। 'गीतफरोशमें किसिम-किसिम के गीतों में एक गीत 'दुकान से घर जानेका भी है। शायद जब वे तरह-तरह के गीत बेच रहे थेतब उनके मन में घर आने का गीत 'ग्राहककी मर्जी से बँधा नहीं था।
ए.वी.एम. की वे फिल्मेंजिनमें मन्ना ने गीत और संवाद लिखे थेडिब्बे में बंद नहीं हुईं। वे हैदराबाद के सिनेमाघरों में भी आई होंगीपर मन्ना ने उन्हें अपनी उपलब्धि नहीं माना। हम लोगों कोअम्मा को सजधजकर उन्हें दिखा लाने का कभी प्रस्ताव नहीं रखा। शायद उनके लिए ये गीत 'मरणके थेफिल्मी दुनिया में रमने के नहींमरने के गीत थे।
साहित्य में रुचि रखनेवालों के लिए मन्ना का वह दौर प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'कल्पनाका दौर था। पर हम बच्चों की कल्पना कुछ और ही थी। घर में कभी शराब नहीं आई पर हैदराबाद में हम शराब के ही घर मेंमुहल्ले में रहते थे। मुहल्ले का नाम थाटकेरवाड़ी। चारों तरफ अवैध शराब बनती थी। उसे चुआने की बड़ी-बड़ी नादें यहाँ-वहाँ रखी रहती थीं। यों हमारे मकान मालिक ;जिन्हें हम बच्चे शीतल भैया मानते थेखुद इस धंधे से एकदम अलग थे ; पर चारों तरफ इसी धंधे में लगे लोग छापा पड़ने के डर से कभी-कभी कुछ सामाननाद आदि हमारे घर के पिछवाड़े में पटक जाते। चार-पाँच बरस के हम भाई-बहनों की क्या ऊँचाई रही होगी तब। हम इन नादों में छिपकर तब की ताजा कहानी 'अली बाबा और चालीस चोरका नाटक खेल डालते थे।
कभी-कभी मन्ना हमें बदरी चाचा (श्री बदरीविशाल पित्ती) के घर ले जाते। घर क्याविशाल महल था। शतरंज के दो बित्ते के बोर्ड पर सफेद-काले रंग का जो सुंदर मेल हमने कभी अपने घर में देखावह यहाँ बदरी चाचा के पूरे घर मेंआँगन मेंकमरों के फर्श में सभी जगह पूरी भव्यता से फैला मिलता। बदरी चाचा के घर ऐसे मौकों पर बड़े-बड़े लोग जुटते थेपर हम उन सबको उस रूप में पहचानते नहीं थे। बदरी चाचा सचमुच विशाल थे हम सब के लिए। कभी-कभी वे हम सब को हैदराबाद से थोड़ी दूर बसे शिवरामपल्ली गाँव ले जाते। वहाँ तब विनोबा का भूदान आंदोलन शुरू हुआ था। बदरी चाचा अच्छे फोटोग्राफर भी थे। उस दौर में उनके द्वारा खींचे गए चित्र आज भी हमारे मन पर ज्यों के त्यों अंकित हैं - कागजवाले प्रिंट जरूर कुछ पीले-भूरे और धुँधले पड़ गए हैं।
मन्ना कविता लिखते थेपढ़ने भी लगे थेशायद रेडियो पर भी। लेकिन हमें घर में कभी इसकी जानकारी मिली हो - ऐसा याद नहीं आता। तब तक घर में रेडियो नहीं आया था। हैदराबाद रेडियो स्टेशन से हर इतवार सुबह बच्चों का एक कार्यक्रम प्रसारित होता था। हम एकाध बार वहाँ मन्ना के साथ गए थे। ऐसे ही किसी इतवार को नन्दी जीजी ने लकड़हारे की कहानी माइक के सामने सुना दी थी। जिस दिन उसे प्रसारित होना थाउसके एक दिन पहले मन्ना एक रेडियो खरीद लाए थे। रेडियो सेट मन्ना की कविता के लिए नहींजीजी की कहानी सुनाने के लिए घर में आया था - इसे आज रेडियो में ही काम करनेवाली नंदिता मिश्र भूली नहीं हैं।
हैदराबाद से मन्ना आकाशवाणी के बंबई केंद्र में आ गए थे। तब मैं तीसरी कक्षा में भर्ती किया गया था। उस स्कूल में हमें दूसरों सेअध्यापकों के व्यवहार से पता चला था कि हमारे पिताजी को घर से बाहर के लोग भी जानते हैं। क्यों जानते हैंक्योंकि वे कविताएँ लिखते हैं। हमारे मन्ना कवि हैं!
कवि कालदर्शी होता हैहमें नहीं मालूम था। कल क्या होगा बच्चों काउनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी करनी है - बहुत ही बड़े माने गए ऐसे प्रश्न हमारे कवि पिता ने कभी सोचे नहीं होंगे। जब एक शाम मैं और नन्दी स्कूल से घर लौटे थे ,तो मन्ना ने हमें बताया कि अगले दिन हम सब बंबई से बेमेतरा जाएँगे। बड़े भैया के पास। मन्ना के बड़े भैया मध्य प्रदेश के दुर्ग जिले की एक छोटी-सी तहसील बेमेतरा में तब तहसीलदार थे। हम सब बेमेतरा जा पहुँचे। दो-चार दिन बाद पता चला कि मन्ना और अम्मा वापस बंबई लौट रहे हैं और अब हम यहीं बेमेतरा में बड़े भैया के पास रहकर पढ़ेंगे। हैदराबाद में एक बार सीढ़ियों से गिरने पर काफी चोट लगने से मैं खूब रोया था। तब के बाद अब की याद है - बेमेतरा में खूब रोयाउनके साथ वापस बंबई लौटने को। आँखें तो उनकी भी गीली हुई थीं पर हम वहीं रह गएमन्ना-अम्मा लौट गए। ताऊजी यानी बड़े भैया का प्यार मन्ना से बड़ा ही निकाला। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि बड़े पिताजी के छह में से पाँच बेटे बड़े होकर कॉलेज हॉस्टल आदि में चले गए थे और उन्हें अपना घर सूना लगने लगा थाइसलिए उस सूने घर में रौनक लाने के लिए मँझले भाई मन्ना ने हम दोनों को उन्हें सौंप दिया था।
बंबई से मन्ना दिल्ली आकाशवाणी आ गए। तब हम भी एक गर्मी में बेमेतरा से शायद चौथी-पाँचवीं की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली बुला लिये गए। हैदराबादबंबई की यादें धुँधली-सी ही थीं। बेमेतरा छोटा कस्बा था और बड़े भैया सरकार के बड़े अधिकारी थेइसलिए बाजार आना-जानाखरीदारीडबलरोटी - ऐसे विचित्र अनुभवों से हम गुजरे नहीं थे। दिल्ली आने पर मन्ना के साथ घूमनेखुद चीजें खरीदने के अनुभव भी जुड़े। एक साधारणठीक माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भरती किया। सातवीं-आठवीं-नौवीं में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मुहल्ले में मिल गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मन्ना ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया - नए मुहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलनेवाले एक छोटे-से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्ली की ठंड-गर्मी में आठ-दस मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरेयह उन्हें पसंद नहीं था। यहाँ विज्ञान भी नहीं था। मैं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्या खोते हैं - पाते हैं। यहीं नौवीं में हिन्दी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिन्दी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानी प्रसाद मिश्र का बेटा हूँ तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते होकह दिया था। बाद में उनने मुझसे भी लगभग उसी तेज आवाज में पिता का नाम पूछा था। घर का पता पूछा थाफिर किसी शाम वे घर भी आए। अपनी कविताएँ भी मन्ना को सुनाईं। मन्ना ने भी कुछ सुनाया था। उस टेंटवाले स्कूल में ऐसे कवि का बेटामन्ना की प्रसिद्धि हमें इन्हीं मापदण्डोंप्रसंगों से जानने मिली थीं।
श्री मोहनलाल वाजपेयी यानी लालजी कक्कू मन्ना के पुराने मित्र थे। मन्ना ने उनके नाम एक पूरी पत्रनुमा कविता लिखी भी। बड़ा भव्य व्यक्तित्व। शांति निकेतन में हिन्दी पढ़ाते थे। शायद सन 1957 में वे रोम विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग की स्थापना करने बुलाए गए थे। वहाँ से जब वे दिल्ली आएएक बार तो एक बहुत ही सुंदर छोटा-सा टेपरिकॉर्डर लाए थे मन्ना के लिए। नाम था जैलेसी। जैली यानी ईर्ष्या। उसमें छोटे स्पूल लगते थे। उन दिनों कैसेटवाले टेप चले नहीं थे। शहर का न सहीशायद मुहल्ले का तो यह पहला टेपरिकॉर्डर रहा ही होगा! इसका हमारे मन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। विज्ञान के आगे मैंने तो माथा ही टेक दिया था। क्या गजब की मशीन थी। हर किसी की आवाज कैद कर लेफिर उसे ज्यों का त्यों वापस सुना दे! शायद लालजी कक्कू ने यह यंत्र इसलिए दिया था कि मन्ना इस पर कभी-कभी अपना काव्य पाठ रिकार्ड करेंगे। पर वैसा कभी हो नहीं पाया। एक तो ऐसे यंत्र चलाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थीऔर फिर अपनी कविता खुद बटन दबा कर रिकार्ड करनाउसे खुद सुननादूसरों को सुनाना - उन्हें पसंद नहीं था। बाद में हमारे एक बड़े भाई बंबई से वास्तुशास्त्र पढ़कर जब दिल्ली आए तो जैलेसी पर मुकेशकिशोर कुमार और लता के गाने जरूर जम गए थे। आज भी हमारे घर में मन्ना की एक भी कविता का पाठ रिकार्ड नहीं है। कभी-कभी नितांत अपिरिचित परिवार में परिचय होने के बाद सन्नाटागीतफरोशघर की यादसतपुड़ा के घने जंगल आदि कविताओं के पाठ की रिकार्डिंग हमें सुनने मिल जाती हैं। ये कविताएँ उन शहरों में मन्ना ने पढ़ी होंगी। वहीं वे रिकार्ड कर ली गईं। हमें ऐसे मौकों पर लालजी कक्कू के जैलेसी की याद जरूर आ जाती हैपर ईर्ष्या नहीं होती।
कविकर्म जैसे शब्दों से हम घर में कभी कहीं टकराए नहीं। मन्ना कब कहाँ बैठकर कविता लिख लेंगे - यह तय नहीं था। अक्सर अपने बिस्तरे परकिसी भी कुर्सी पर एक तख्ती के सहारे उन्होंने साधारण से साधारण चिट्ठों परपीठ कोरे (एक तरफ छपे) कागजों पर कविताएँ लिखीं थीं। उनके मित्र और कुछ रिश्तेदार उन्हें हर वर्ष नए साल पर सुंदरमहँगी डायरी भी भेंट करते थे। पर प्रायः उनके दो-चार पन्ने भर कर वे उन्हें कहीं रख बैठते थे। बाद में उनमें कविताओं के बदले दूध कासब्जी का हिसाब भी दर्ज हो जाताकविता छूट जाती। भेंट मिले कविता संग्रह उन्हें खाली नई डायरी से शायद ज्यादा खींचते थे। हमें थोड़ा अटपटा भी लगता था पर उनकी कई कविताएँ दूसरों के कविता संग्रहों के पन्नों की खाली जगह पर मिलती थीं। पीठ कोरे पन्नों से मन्ना का मोह इतना था कि कभी बाजार से कागज खरीद कर घर में आया हो - इसकी हमें याद नहीं। फिर यह हम सब ने भी सीख लिया था। आज भी हमारे घर में कोरा कागज नहीं आता।
परिचित-अपरिचितपाठकश्रोतारिश्तेदार - उनकी दुनिया बड़ी थी। इस दुनिया से वे छोटे-से पोस्टकार्ड से जुड़े रहते। पत्र आते ही उसका उत्तर देते। कार्ड पूरा होते ही उसे डाक के डिब्बे में डल जाना चाहिए। हम आसपास नहीं होते तो वे खुद उसे डालने चल देते। फोन घर में बहुत ही बाद में आया। शायद सन 1968 में। इन्हीं पोस्टकार्डों पर वे संपादकों को कविताएँ तक भेज देते।
बचपन से ले कर बड़े होने तक मन्ना को किसी से भी अंग्रेजी में बात करते नहीं देखासुना। जबलपुर में शायद किसी अंग्रेज प्रिंसिपलवाले तब के प्रसिद्ध कालेज राबर्टसन से उन्होंने बी.ए. किया था। फिर आगे पढ़े नहीं। लेकिन अंग्रेजी खूब अच्छी थी। घर में अंग्रेजी साहित्यअंग्रेजी कविताओं की पुस्तकें भी उनके छोटे-से संग्रह में मिल जाती थीं। पर अंग्रेजी का उपयोग हमें याद नहीं आता। बस एक बार संपूर्ण गाँधी  वांङ्मय के मुख्य संपादक किसी प्रसंग में घर आए। वे दक्षिण के थे और हिन्दी बिलकुल नहीं आती थी उन्हें। मन्ना उनसे काफी देर तक अंग्रेजी में बात कर रहे थे - हमारे लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। दस्तखतखत-किताबत सब कुछ बिना किसी नारेबाजी केआंदोलन के - उनका हिन्दी में ही था और हम सब पर इसका खूब असर पड़ा। घर मेंपरिवार में प्रायः बुंदेलखंडी और बाहर हिन्दी - हमें भी इसके अलावा कभी कुछ सूझा भी नहीं। हमने कभी कहीं भी हचककरउचककर अंग्रेजी नहीं बोलीअंग्रेजी नहीं लिखी।
कोई भी पतनगड्ढा इतना गहरा नहीं होताजिसमें गिरे हुए को स्नेह की उँगली से उठाया न जा सके - एक कविता में कुछ ऐसा ही मन्ना ने लिखा था। उन्हें क्रोध करतेकड़वी बात करते हमने सुना नहीं। हिन्दी साहित्य में मन्ना की कविता छोटी है कि बड़ी हैटिकेगी या पिटेगीइसमें उन्हें बहुत फँसते हमने देखा नहीं। हाँ अंतिम वर्षों में कुछ वक्तव्य वगैरह लोग माँगने लगे थे। तब मन्ना इन वक्तव्यों में कहीं-कहीं कुछ कटु भी हुए थे। एक बार मैं चाय देने उनके कमरे में गया था ,तो सुना कि वे किसी से कह रहे थे, 'मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती हैआलोचक की नहीं!'
हम उनके स्नेह की उँगली पकड़कर पले-बढ़े थे। इसलिए ऐसे प्रसंग में हमें उन्हीं की सीख से खासी कड़वाहट दिखी थी। पर उन्हें एक दौर में गाँधी  का कवि तक तो ठीकबनिए का कवि भी कहा गया तो ऐसे अप्रिय प्रसंग उनके संग जुड़ ही गए एकाध। फिर अपनी एक कविता में उन्होंने लिखा है कि 'दूध किसी का धोबी नहीं हैं। किसी की भी जिन्दगी दूध की धोई नहीं है। आदमकद कोई नहीं है।कवि के नाते उनका कद क्या था - यह तो उनके पाठकआलोचक ही जानें। हम बच्चों के लिए तो वे एक ठीक आदमकद पिता थे। उनकी स्नेह भरी उँगली हमें आज भी गिरने से बचाती हैं।


लेखक परिचय:  महाराष्ट्र के वर्धा में श्रीमती सरला मिश्र और प्रसिद्ध हिन्दी कवि भवानी प्रसाद मिश्र के यहाँ सन् 1948 में जन्म ।  यह दिल्ली विश्वविद्यालय से 1968 में संस्कृत में स्नातकोत्तर की उपाधि। गाँधी शांति प्रतिष्ठान दिल्ली में उन्होंने पर्यावरण कक्ष की स्थापना की तथा इस प्रतिष्ठान की पत्रिका गाँधी मार्ग के संस्थापक और संपादक। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास पर महत्त्वपूर्ण काम किया है। वे 2001 में दिल्ली में स्थापित सेंटर फॉर एनवायरमेंट एण्ड फूड सिक्योरिटी के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। चंडी प्रसाद भट्ट के साथ काम करते हुए उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वे जल-संरक्षक राजेन्द्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। प्रमुख किताबें-  राजस्थान की रजत बूँदेंसाफ माथे का समाजआज भी खरे हैं तालाब (ब्रेल लिपि सहित तेरह भाषाओं में प्रकाशित) इस किताब को उन्होंने शुरू से ही कॉपीराइट से मुक्त रखा है। सम्पर्क: संपादक- गाँधी मार्गगाँधी  शांति प्रतिष्ठानदीनदयाल उपाध्याय रोड/ आई टी ओनई दिल्ली- 110002, फोन- 011 2323749123236734

चन्दन की खुशबूः शल्या मौसी

चन्दन की खुशबूः 
शल्या मौसी 
- डॉ. सुधा ओम ढींगरा

कड़वी और मीठी यादों का एक समंदर मेरे भीतर समाया हुआ है। कड़वी यादें समंदर के धरातल में कहीं छिपी रहती हैंकभी-कभार ही वे वहाँ से निकलती हैं। पर सुखद यादों की लहरें अक्सर उठ-उठकर उल्लासित करती हैं और मैं उनसे भीग-भीग जाती हूँ। मेरी प्रज्ञाचक्षु मौसीजिनका नाम कौशल्या शर्मा था और प्यार से जिन्हें हम शल्या मौसी कहते थेहर लहर के साथ उभर कर मेरे सामने आ खड़ी होती हैंविशेषकर जब मैं कुछ लिखने बैठती हूँ। ऐसा क्यों होता है?  विचारणीय प्रश्न था। एक दिन सोचा क्यों न अतीत खंगाल कर देखा जाए। शायद उसके गर्भ से इसका कारण पता चल जाए। ढूँढ़ ही लिया मैंने इसका कारण। मौसी जी का मेरे जीवन में माँ की तरह ही बहुत महत्त्व है। अगर यह कहूँ कि मैं ज़िंदा ही उनकी बदौलत हूँ ,तो ज़रा भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। माँ ने जन्म दिया था तो मौसी ने जीवन। वे दृष्टि वाले लोगों की तरह काम करती थीं। उन्हें वैसा काम करते देखकर लोग अक्सर ही धोखा खा जाते थे। 
  वैसे वे जन्मांध नहीं थीं। तीन वर्ष की थींजब चेचक से उनकी आँखें चली गईं। वे मेरी माँ से तीन वर्ष छोटी थीं। बेहद प्रतिभावानशास्त्रीय संगीत और कई विषयों की ज्ञाता थीं। उनसे परिचय करवाने के लिएआपको वहाँ ले जा रही हूँजहाँ से मेरा और मौसी जी का जीवन सफ़र शुरू हुआ।
  अतीत के बहुत से पन्ने पलट कर उस समय में पहुँच गई हूँजब मेरा जन्म हुआ था। मेरे जन्म के बाद मेरी माँ को तेज़ बुखार हो गया था और एक दिन की बच्ची को शल्या मौसी ने अपनी गोद में ले लिया था। कुछ ही दिनों में माँ का बुखार बिगड़ गया और मौसी की गोद मेरा पालना बन गई। नियति ने मेरे साथ बहुत खेल खेले। तीन माह की थीजब मेरी बाईं टाँग को पोलियो हो गया। पापा डॉक्टर थे। मेरी टाँग भंग होने से तो बचा ली गई पर वह टाँग बहुत कमज़ोर हो गई थी। शीघ्र ही माँ का बुखार टीबी में बदल गया। उस समय टीबी घातक और जानलेवा बीमारी मानी जाती थी। छुआ-छूत का पूरा ध्यान रखा जाता था। इतनी छोटी बच्ची को माँ के पास रख नहीं सकते थेदोनों के लिए खतरा था और माँ से दूर रखना भी कष्टदायक था। परिवार बेहद चिंतित था। मुझे और माँ को लेकर सभी अत्यधिक परेशान हो गए थे। चार माह की पोलियो की मार से बचाई गई कमज़ोर बच्ची को कैसे पाला जाए?  कड़ी चुनौती थी। पर मौसी ने मुझे पालने का सारा ज़िम्मा अपने पर ले कर सब को बेफ़िक्र कर दिया। पापा अपना क्लीनिक छोड़कर माँ की सेवा में जुट गए थे और मौसी मेरी देख-रेख में। 
  जन्म के एक दिन बाद अपनी गोद में लेकर उन्होंने मुझे ऐसे सीने से लगाया कि भूख से रोती-बिलखती मैं चुप हो गई। अपना एक स्तन उन्होंने मेरे मुँह में डाल दिया और रुई के फाहों को दूध में भिगो कर बूँद-बूँद दूध अपने स्तन पर निचोड़तीं और मैं मज़े से दूध पीने लगी। कई दिन उन्होंने मुझे इसी तरह दूध पिलाया। बड़े होने पर माँ मुझे अक्सर बताती थीं कि ऐसा दृश्य देखकर कोई नहीं कह सकता थामौसी को दिखाई नहीं देता। उन दिनों मौसी जी सितार और शास्त्रीय गायन में विशारद कर रही थीं। घर में गुरु हरिश्चंद्र बाली के बेटे राज बाली तबले की संगत के साथ रियाज़ करवाने आते ,तो मौसी जी मुझे गोद में लेकर ही रियाज़ करतीं। सिर्फ सितार बजाते समय मुझे मेरे छोटे मामा की गोद में डालतीं पर उन्हें सख्त हिदायत होती थी कि वे पास ही बैठें। मुझे एक पल के लिए भी अपने से दूर नहीं करती थीं। बड़ी होकर मैं गायिका नहीं बनीकोई साज़ भी नहीं बजा पाई पर स्वरों पर खासी पकड़ है और स्वरों की भटकन झट से पकड़ लेती हूँ। शायद यह उसी समय की देन है। खूब संगीत सुनती हूँखासकर शास्त्रीय संगीत में बँधी धुनें मुझे बहुत भाती हैं। 
  उन्हीं दिनों वे साहित्यरत्न की परीक्षा भी दे रही थीं। एक लड़का और लड़की अलग-अलग समय पर मौसी जी को साहित्यरत्न के कोर्स की किताबें पढ़कर सुनाने के लिए आते थे। वे विद्यार्थी थे और कॉलेज के बाद आते थे। इससे उन्हें पॉकेट मनी मिल जाती थी और मौसी जी की साहित्यरत्न की तैयारी हो जाती थी। परिवार से सुना था कि वे उस समय भी मुझे अपने साथ लेकर बैठती थीं। मैं कभी उनकी बाँहों में होती थी या कभी उनकी गोद में। अपने से अलग नहीं रहने देती थीं। मेरी आँखें खुली भी नहीं थीं और संगीत तथा शब्दों की ध्वनियाँ कानों में पड़ने लगी थीं। शायद तभी शब्दों से इश्क हो गया और साहित्य से प्यार। मैंने छोटी उम्र में ही कलम पकड़ ली थी।
  बड़े होने पर पापा ने बताया था कि एक दिन कुछ रिश्तेदार माँ का हालचाल पूछने और मुझे देखने आएतो उनमें से एक महिला ने मुझे देखते ही कह दिया कि यह लड़की तो मनहूस है। जन्म लेते ही माँ बीमार पड़ गई और खुद भी पिंगली हो गई। यह सुनते ही मौसी का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। उन्होंने मुझे अच्छी तरह से कम्बल में  लपेट कर सीने से लगा लिया ; ताकि कोई भी मुझे देख नहीं सके और उन रिश्तेदारों को घर से चले जाने का निवेदन किया और हिदायत दी कि वे फिर कभी उस घर की दहलीज़ पर कदम न रखें। माँ बड़े गर्व से कहा
करती थी कि मौसी ने उस दिन भविष्यवाणी की थी कि जिसे मनहूस कहा गया है, एक दिन मेरी 'मुन्नापर सब नाज़ करेंगे। यही रिश्तेदार इस पर नाज़ करेंगे। उस दिन से ही सभी मुझे 'मुन्नापुकारने लगे थे। उन दिनों हम नाना जी के घर में रहते थे और मौसी जी का उस घर में बहुत दबदबा था। उनके रहते वे रिश्तेदार कभी उस घर में आ नहीं पाए। बड़ी होकर जब मैं पत्रकार बनी ,तब वे रिश्तेदार हमारे घर आए थे। उनका बेटा किसी झूठे केस में फँस गया थाउसे छुड़वाना था। उनका बेटा तो छुड़वा दिया गया, पर मौसी जी ने पापा और माँ के मना करने के बावजूद उन्हें एहसास दिलवाया कि यह वही लड़की हैजिसे आपने मनहूस कहा था और इसी ने आपके बेटे को बचाया है। उन्होंने मौसी जी से माफ़ी माँगी। मौसी जी का तर्क थाअगर घटिया मानसिकता को उनके गलत कर्मों के बारे में टोका नहीं जाएगा तो उनकी सोच में सुधार नहीं आएगा। बाद के जीवन में भी मैंने उन्हें अन्याय और शोषण के विरुद्ध खड़े होते देखा।
  पापा की अनथक मेहनत से माँ तीन साल में ठीक हो गईं। तब मौसी ने मुझे माँ को सौंपा और कहा 'दीदी पहले इसे गले लगाएँ और चूमें। यह इस के लिए तरस रही है।सुना था कि मैं हर रात माँ से मिलने की ज़िद करती थी। बीमारी की वजह से मेरी माँ का कमरा अलग था।
  मौसी उस कमरे के बाहर मुझे खड़ा करके कहती थीं- 'देखो वह तुम्हारी माँ है। बीमार हैंजब ठीक हो जाएँगी तो मिलना।'
  उत्तर में मैं कहा करती थी- 'हाँजब मेरी माँ ठीक हो जाएँगी तो मैं कसकर उनके गले से लिपटूँगी और चूमूँगी।यह तकरीबन हर रात को सोने से पहले होता था।
   माँ के ठीक होने के उपरांत माँ और मौसी ने मिलकर मुझे पाला। साहित्यरत्न के बाद मौसी ने बी ए किया। अपनी पढ़ाई करते हुए मौसी हर समय मुझे गोद में लिटा कर तरह-तरह के तेलों से मालिश करती रहतीं। वे तेल आयुर्वेदिक संस्थान से मँगवाए जाते थे। बारह वर्ष तक मेरी शिक्षा घर पर हुई और मालिश करने वाले घर पर आकर मालिश करते। मौसी जी अपनी देख-रेख में मालिश करवातीं। किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते मेरी टाँग मज़बूत हो गई। मुझे कदम उठाने की ट्रेनिंग मौसी ऐसे देतीं थीं ,जैसे कोई आँखों वाला देता है। अब मुझे देखकर कोई जान भी नहीं सकता कि मैं पोलियो सरवाइवल हूँ। किस्मत के साथ-साथ यह मौसी जी की मेहनत और लगन का भी परिणाम है।
  हमारे घर का एक मौखिक नियम था कि जो कोई भी कुछ पढ़ेगा, वह ऊँची आवाज़ में पढ़ेगा ताकि मौसी जी भी सुन सकें। बारह वर्ष तक घर में रहने का लाभ यह हुआ कि सुबह के अख़बार से लेकर देश-विदेश के लेखक की हर पुस्तक ,जो मौसी जी को सुनाई जातीमैं भी सुनती थी। फिर मैं मौसी जी को पढ़कर सुनाने लगी। पढ़ने की जो रुचि पैदा हुई वह आज तक कायम है। घर का एक और नियम थाजिसका सब पालन करते थे। बाहर से घर आकर मौसी को पूरी बात कहानी की तरह बताई जाती थी। मैं उनसे आगे बढ़ गई और अभिनय करके घटना या बातें बताने लगी। फिल्म देखने के बाद घर में उस फिल्म की कहानी के साथ-साथ हर पात्र का अभिनय भी करती थी। वे बड़ी तन्मयता से सुनतीं और मुझे प्रोत्साहित करतीं कि उनकी आँखों के आगे दृश्य उभार दिए मैंने। बाद में रंगमंच पर पात्र जीते हुए और कहानी में उन्हें बुनते हुए यह आदत बहुत काम आई।
  वे अमृतसर के अंधकन्या विद्यालय में अध्यापिका बनकर वहाँ चलीं गईं। साथ छूट गया। मैं उनके साथ ही सोती थी। अगर वे कहानी की तरह बात को सुनती थीं ,तो उन्हें कहानी सुनाने का भी बहुत शौक था। वे बेहतरीन क़िस्सागो थीं। हर रात सोने से पहले उनसे कहानी सुनी जाती थी। कहानियाँ सुनने-सुनाने की आदत ने मेरे भीतर के कहानीकार को कब जाग्रत कर दिया पता ही नहीं चला।
  गर्मीं की छुट्टियों में मेरी छोटी मौसी के बच्चे भी हमारे पास रहने आ जाते थे। तब रात को कहानियों का दौर लम्बा होता था। तिमंजिले घर की ऊपरी छत पर लेटे हुए ,जब वे किसी कहानी में सप्त ऋषियों का या ध्रुव तारे का ज़िक्र कर आकाश की ओर इशारा करके बतातीं तो हम बच्चे हैरान हो जाते। हमें यकीन नहीं होता था मौसी सही बता रही हैं। हम किसी और से पूछते तो मौसी का इशारा सही होता था। तब हम उनकी आँखों में झाँककर देखते और कहते-'मौसी को दिखता है।सुनकर वे हाथ से ताली बजा कर हँस पड़तीं। शायद उन्हें अंदर से ख़ुशी होती होगी कि वे सही हैं या हमारी नादानी पर हँसती थींमैं आज तक समझ नहीं पाई।  
 अमृतसर का स्कूल  बंद हो गया। वे दिल्ली के अंध कन्या विद्यालय की अध्यापिका बन गईं और वहीं से रिटायर हुईं। जीवन के अंतिम साँस तक वे मेरे पापा और भैया के साथ रहीं और नेत्रहीन औरतों के हक़ के लिए लड़ती रहीं। ब्रेल पत्रिका में लेख लिख कर भेजती थीं। अन्य पत्रिकाओं में भी उनके लेख छपते थेजो वे बोलती थीं और दूसरे लोग उन्हें लिखते थे। उन्होंने शादी नहीं की हालाँकि उनकी प्रतिभा को देखकर दृष्टिवालों और नेत्रहीन दोनों के बहुत-से रिश्ते आए थे। उन्होंने शादी ही करने से इंकार कर दिया था। उन्होंने ऐसा निर्णय क्यों लियामैं जानना चाहती थी। उनके भावों को समझना चाहती थी। जिन्होंने मुझ पर इतनी ममता लुटाई, क्या वे स्वयं माँ नहीं बनना चाहती थींइस विषय पर उन्होंने चुप्पी ओढ़ ली थी। खामोश रह कर उन्होंने भावों की अभिव्यक्ति के द्वार बंद दिए। हाँ एक बात निस्संकोच कहूँगी कि उन्होंने अपना सारा ममत्व मुझ पर लुटा दिया। वे मेरी दूसरी माँ थीं। सहेली थीं। गुरु थीं। सबसे बढ़कर साथी थींजिनसे मैं सब कुछ साझा कर सकती थी। मेरी ढाल बनकर अपने जीवन के अंतिम प्रहर तक मेरी रक्षा करती रहीं। मशीन पर कपड़े सिलनास्वेटर बुननागोल रोटी बेलना मैंने सब उन्हीं से सीखा। रोटी सेंकने तक को तैयार हो जाती थीं। मौसी को ऐसे काम करते देखते हुए मैं अक्सर सोचा करती थी कि दृष्टिहीनता की अस्वीकृति कभी उन्हें चोट न पहुँचा दे। उन्होंने एक तरह से अपनी नेत्रहीनता को नकार दिया था।
  विश्व के प्रतिष्ठित नेत्रहीन लेखक वेद मेहता (जो अमेरिका में रहते हैं) की पुस्तक 'Face To Face' पढ़ी तो एहसास हुआप्रज्ञाचक्षु लोगों के भीतर का संसारप्रज्ञा दृष्टि बेहद सजग और जाग्रत होती हैवे महसूस ही नहीं कर पाते कि वे देख नहीं सकते। ध्वनियाँप्रतिध्वनियाँसाएपरछाइयाँ कैसे उन्हें रास्ता दिखातीं हैंइसका विस्तृत वर्णन है उस पुस्तक में। मौसी के प्रत्यक्ष और जीवन्त जीवन पर वेद मेहता की पुस्तक ने मोहर लगा दी।
   उनके बदन से चन्दन की खुशबू आती थी। बचपन से ही वह खशबू मुझे बहुत आकर्षित करती। वे चंदन के साबुन से नहाती थीं। मुझे भी पर्फ़्यूम्ज़ का बहुत शौक है। तरह-तरह के इत्रों और पर्फ़्यूम्ज़ का प्रयोग मैं भी बहुत करती हूँ। यह जान गई हूँ कि परोक्ष-अपरोक्ष कुछ आदतें स्वभाव में परिवेश से आ जाती हैं; जिनका मनुष्य को एहसास भी नहीं होता। जिस इंसान से बचपन में आप बहुत प्रभावित होते हैंउसकी आदतें तक व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती हैं। मौसी किसी भी घटना या दुर्घटना के बारे में सुनते हुए पूछती थीं कि मुझे कैसा लगावहाँ क्या अच्छा था और क्या बुराबुराई को दूर करने के लिए क्या किया जाना चाहिए। मैं खुल कर बताती थी। इससे मुझे अपने भाव स्पष्ट करने आ गये। युवावस्था से लेकर अब तक मैं सोशल एक्टिविस्ट हूँ। इसमें उनका बहुत बड़ा योगदान है। युवावस्था में दिया गया उनका प्रोत्साहन आज भी मेरे साथ है। शादी के बाद मैं जब भी अपने बच्चे को साथ लेकर मायके जाती। उनके साथ बातें कर अपना बचपन ज़रूर दोहराती थी। अपने बच्चे के साथ उनसे एक कहानी ज़रूर सुनती थी। उनकी सुगंध अपने साथ ले आती थी। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। आज उनके बारे में लिखते हुए मुझे वही सुगंध आ रही है और सुधियों के समंदर से निकल कर जब वे सामने आ खड़ी होती हैं...... उससे पहले उनकी खुशबू मुझे आने लगती है।

लेखक परिचय: पंजाब के जालंधर शहर में जन्मी डॉ. सुधा ढींगरा हिन्दी और पंजाबी की सम्मानित लेखिका हैं। वर्तमान में वे अमेरिका में रहकर हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु कार्यरत हैं। कहानी संग्रह- दस प्रतिनिधि कहानियाँकमरा नंबर 103, कौन सी ज़मीन अपनीवसूली। उपन्यास- नक्काशीदार केबिनेट। काव्य संग्रह- सरकती परछाइयाँधूप से रूठी चाँदनीतलाश पहचान कीसफ़र यादों कामाँ ने कहा था (काव्य सी.डी)। संपादन- वैश्विक रचनाकार: कुछ मुलभूत जिज्ञासाएँ (साक्षात्कार संग्रह)इतर (प्रवासी महिला कथाकारों की कहानियाँ)सार्थक व्यंग्य का यात्री: प्रेम जनमेजयमेरा दावा है (अमेरिकी शब्द-शिल्पियों का काव्य संकलन)गवेषणाप्रवासी साहित्य: जोहान्सबर्ग के आगे (संपादन सहयोग)परिक्रमा (पंजाबी से अनूदित हिन्दी संकलन)कई कहानियाँ अंग्रेज़ी में अनूदित। 45 संग्रहों में कविताएँकहानियाँआलेख प्रकाशित। सम्प्रति: ढींगरा फाउण्डेशन की उपाध्यक्ष एवं सचिव। केंद्रीय हिन्दी संस्थानआगरा द्वारा 2014 की पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार। उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थानलखनऊ द्वारा 2013 का स्पंदन प्रवासी कथा सम्मान। सम्पर्क: Email- sudhadrishti@gmail.com, मोबाइल:+:1-919-801-0672