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Sep 26, 2013

चार लघुकथाएँ

१.मस्तराम जिन्दाबाद
-कमलेश भारतीय
वे बेकार थे और सड़कों से अधिक दफ्तारों के चक्कर लगाते थे। भूखे थे और घर से पैसे आने बंद थे।
एक होटल में पहुँचे और आवाज़ लगाई- मस्तराम को बुलाओ।
मस्तराम हाजि़र हुआ। वहाँ काउंटर पर सब्जियों से भरे पतीले थे और वे सुबह से भूखे थे, पर ललचाई दृष्टि से देखते तो मस्तराम को शक पड़ जाता। ज़रा रौब से बोले, मस्तराम, हमें एक समारोह करना है। वो सामने वाला हॉल बुक करवा लिया है। लगभग दो सौ आदमियों का खाना इन्तज़ाम मतलब खाने-पीने का तुम्हारा रहेगा। ठीक है?
जी, साहब! यह तो आपने कल भी फरमाया था।
अच्छा, आज खाना चेक कराओ, ये हमारे बड़े संयोजकों में से एक हैं। ये तुम्हारा खाना देखेंगे...ठीक
नहीं, साहब, आप कहीं और इन्तजाम कर लें। मैं रोज़-रोज़ मुफ्त खाना चेक नहीं करवा सकता।
अरे, बेवकूफ, कल ये तुम्हें एडवांस दे जाएँगे। इसलिए दिल्ली से विशेष रूप से आए हैं।
ठीक है साहब लगवाता हूँ ।
दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ मुस्कराकर देखा और योजना की सफलता पर आँखों ही आँखों में बधाई दी। डटकर खाना खाया। उठकर चलने से पहले खाने के बारे में अपनी राय बताई कि कल से थोड़ा अच्छा है; पर उस दिन तुम जानते हो बाहर से लोग आएँगे, काफी अच्छा बनाना। मस्तराम जी साहब, जी साहब करता गया। वे बाहर चले गए और सड़कों पर नारे लगाने लगे-मस्तराम जिंदाबाद!
२.विभाजन
बहुत भारी बहसों में भाग लेने व सुनने का मौका मिलता रहा कि हमारे यहाँ अमीरी व गरीबी के बीच बहुत फासला है। हम इसे कैसे दूर कर सकते हैं? कर भी सकते हैं या नहीं? दीवाली का दिन आया। सब घरों में दीवाली से कुछ दिन पहले ही रंग बिरंगी लडिय़ाँ जगमगा कर अपनी अमीरी का परचम लहराने लगीं। हमारे पड़ोस का घर अँधेरे में ही डूबा रहा। वे लोग दुकानों पर छोटे-मोटे काम करने सुबह ही निकल जाते हैं और घर की औरतें भी कोई न काम कर घर का सहारा बनती हैं। मेरा नाती आर्यन उनके हमउम्र बच्चे विक्की से पूरी तरह हिलमिल चुका है। हर वक्त उसे खेलने के लिए बुला लाता है। वह खेलकर अपने घर चला जाता है।
दीवाली आ गई। मेरे नाती का मन था कि वह अपने हमउम्र से मिल कर पटाखे छोड़े। पर वह उसे कहीं दिखाई नहीं दिया नाती ने अपनी माँ से पूछा- विक्की क्यों नहीं आया? माँ ने उसे प्यार से समझाया कि शायद उसके पास पटाखे न हों।
क्यों? आर्यन ने मासूम सवाल पूछा।
शायद उनके पापा इतने पैसे खर्च न कर सकते हों। माँ ने वैसा ही भोला- सा जवाब दिया।
तो मम्मी मैं विक्की को अपने पटाखों में से कुछ पटाखे दे दूँ?
हाँ-हाँ, क्यों नहीं।
आर्यन दौड़ कर विक्की के घर गया और सोने का बहाना कर रहे विक्की को उठाकर ले आया और अपने हिस्से के पटाखे उसे देकर खुद ताली बजाने लगा। पर क्या यह विभाजन दूर करना इतना सरल हैं? दीवाली की रोशनी में यह विभाजन और भी बुरी तरह चमकने ही नहीं बल्कि चुभने लगा। चुभता रहता है, हर दीवाली पर।

३.मेरे अपने
अपना शहर व घर छोड़े लगभग बीस साल से ज़्यादा वक्त बीत चुका। इस दौरान बिटिया सयानी हो गई। वर ढूँढा और हाथ पीले करने का समय आ गया। विवाह के कार्ड छपे, सगे-सम्बन्धियों व मित्रों को भेजे। शादी के शगुन शुरू हुए आँखें द्वार पर लगी रहीं। इस आस में कि दूर- दराज़ के सगे-सम्बन्धी आएँगे। वे सगे सम्बन्धी, जिन्होंने उसे गोदी में खिलाया और जिन्हें बेटी ने तोतली ज़ुबान में पुकारा था। पण्डित जी पूजा की थाली सजाते रहे। मैं द्वार पर टकटकी लगाए रहा। मोबाइल पर सगे सम्बन्धियों के सन्देश आने लगे। सीधे विवाह वाले दिन ही पहुँच पाएँगे जल्दी न आने की मज़बूरियाँ बयान करते रहे।
मैं उदास खड़ा था। इतने में ढोलक वाला आ गया। उसने ढोलक पर थाप दी। सारे पड़ोसी भागे चले आए और पण्डित जी को कहने लगे- और कितनी देर है? शुरू करो न शगुन!
पण्डित जी ने मेरी ओर देखा। मानो पूछ रहे हों कि क्या अपने लोग आ गए? मेरी आँखे खुशी से नम हो गईं। परदेस में यही तो मेरे अपने हैं। मैंने पण्डित जी से कहा-शुरू करो शगुन, मेरे अपने सब आ गए!
४.इस बार
इधर बच्चों के इम्तहान शुरू होते उधर नानाजी के खत आने शुरू हो जाते- इम्तहान खत्म होते ही बच्चों को माँ के साथ भेज देना- फौरन। यह हमारा हुक्म है। साल भर बाद तो पढ़ाई को बोझ उतरता है। मौज मस्ती कर लेंगे। हम भी इसी बहाने तुम लोगों से मिल लेंगे।
पिछले कई सालों से यह लगभग तयशुदा कार्यक्रम था जिसमें उलट- फेर करने की हमारी न इच्छा थी, न हिम्मत पड़ती थी। बच्चे भी इम्तहान खत्म होते-होते 'नानी के घर जाएँगे’  की रट लगाने लगते। बीच-बीच में उन्हें नाना-नानी का प्यार-दुलार, मामा-मामी का सैर-सपाटा कराना याद आ जाता। वे और उतावले हो उठते। इस बार इम्तहान शुरू होने की जैसे किसी को खबर ही न हुई, कोई चिट्ठी - पत्री नहीं। पत्नी रोज़ रात को पूछे- दफ्तर के पते पर कोई चिट्ठी नहीं आई?
आखिर चिट्ठी आई, लिखा था- इस बार आप लोगों को बुलाना चाहकर भी बुला नही पाएँगे। हालात खराब हैं। गोली-सिक्का बहुत बरस रहा है। पता नहीं कब, कहाँ, क्या हो जाए। हवा भी दरवाजे पर दस्तक देती है तो मन में बुरे ख्याल आने लगते हैं। आप जहाँ हैं, वहीं खुश रहो, सुखी रहो। हमारी बात का बुरा मत मानना। कौन माँ-बाप अपनी बेटी से मिलना न चाहेगा? पर इस बार अपने ही घर छुट्टियाँ मनाना। बच्चों को प्यार अपनी राजी खुशी की चिट्ठी लिखते रहो करो।

 सम्पर्क: उपाध्यक्ष, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, अकादमी भवन,पी-16, सेक्टर-14, पंचकूला 134113, फोन-0172-2585521,  Email- bhartiyakamlesh@yahoo.com

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