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Aug 14, 2013

आपके पत्र

...विनाशलीला
उदंती का नेट संस्करण देखा बहुत अच्छा लगा। इस अंक में आपने उत्तराखंड की विनाशलीला को प्रमुखता दी है इसके लिए आपको मेरा साधुवाद।          
        -प्रोफ़ेसर अश्विनी केशरवानी
 ashwinikesharwani@gmail.com

सबक नहीं लिया तो...?
मासिक पत्रिका उदंती के जुलाई अंक  के संपादकीय च्ये कैसा विकास है! के साथ-साथ  शेखर पाठक के लेख  नदियाँ दिखा रही हैं अपना रौद्र रूप और डॉ. खडग सिंह वल्दिया के लेख ...और इसलिए बच गया केदार नाथ मंदिर ,  विकास की उस अवधारणा को अनावृत करते हैं जो प्रकृति को रौंदते हुए सुख के साधन जुटाने में यकीन करती है। दरअसल,  आज उत्तराखंड सहित देश के दूसरे पर्वतीय राज्यों में जो कुछ हो रहा है, वह उस अवैज्ञानिक विकास का फल है जिसके लिए हम लोग अक्सर आतुर दिखते हैं। देव भूमि को पर्यटन स्थल और रिहायशी घरों को होटल में तब्दील करने के लालच ने हमें कहीं का न छोड़ा। हम देवताओं की पूजा भी ऐयाशी से करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारा हेलीकाप्टर सीधे भगवान के समीप उतरे। चूल्हे तक सड़क पहुँचाने की होड़ में हम ब्लास्ट कर हिमालय को तोड़ते रहे और प्राकृतिक रूप से तय धाराओं के रुख को मोड़ते रहे। ठेकेदार और उनके कारिंदे एक पेड़ की जगह दस पेड़ काटकर अपनी जेब भरते रहे और सरकार द्वारा नियुक्त वनाधिकारी रिश्वत से समाज में अपना रुतबा बढ़ाते रहे।
हमने अपनी नदियों का अपमान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उत्तराखंड में पानी के बहाव वाले सभी जगहों पर कभी समाजवाद के नाम पर, कभी दलित राजनीति के बहाने तो कभी भूमिहीन संगठन के झंडों तले लोगों ने कब्ज़ा जमाया और सरकार की नाक के नीचे नदियों की जमीन को हथियाई। इसके अलावा डायनामाइट दाग-दाग कर हम पहाड़ी चोटियों के दिलों को चोट पहुँचाते रहे और तय करते रहे कि नदियाँ किधर से बहें। अपने तीर्थ स्थानों का हम सिर्फ पर्यटन स्थलों के हिसाब भोग करते रहे और भूल गए कि प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है।
 परेशानी की बात यह है चाहे नेता हों या सामान्य लोग, सभी स्वार्थ में अंधे होकर हिमालय को नुकसान पहुँचाते रहे हैं।  उत्तराखंड के स्थानीय लोग भी यह नहीं समझ पाते हैं कि उनका हित किस बात में हैं? उनमें वैज्ञानिक चेतना का अभाव है। उत्तराखंड में घटित प्राकृतिक आपदा से हमारे समूचे देश को आजकल जिस संकट का सामना करना पड़ रहा है, उससे  यदि हमने सबक नहीं लिया तो फिर हम कभी भी अपनी समझदारी में इज़ाफा न कर पाएँगे।
              -सुभाष लखेड़ा, नई दिल्ली   subhash.surendra@gmail.com

शिक्षाप्रद लेख
अनकही में प्राकृतिक आपदा पर आपने समाज को शिक्षा देता बहुत बढ़िय़ा लेख लिखा है । बहुत बधाई ! पत्रिका में सुमित जी का व्यंग्य भी काफी अच्छा है।
       -अन्नपूर्णा बाजपेयी, कानपुर   annapurna409@gmail.com

लघुकथाएँ मानव मन का दर्पण
उदंती के जुलाई अंक में सुकेश साहनी जी की लघुकथाएँ- जिन्दगी, बेटी का खत, जागरूकता, ओएसिस पढ़कर वर्तमान समाज की स्थिति व मानव मन के भावों का दर्पण देख मन द्रवित हो गया। सुकेश जी की वर्षो पहले लिखी हुई कहानी इमिटेशन भी याद आ गई , जिसे पढऩे के बाद ही से लघुकथाओं के प्रति मेरा एक विशेष आकर्षण प्रारम्भ हुआ था। आज भी वह लघुकथा मेरे ज़हन में अंकित है। लघुकथा जागरूकता और जिन्दगी पढ़कर बस वाह! ही निकलती है। सुकेश जी जैसा लेखक ही मानव -मन व स्थितियों का इतना सुन्दर चित्रण कर सकता है। वह सदा  यूँ ही लिखते रहें।
  - सीमा स्मृति, दिल्ली

नजर नहीं फेरी जा सकती
इस अंक में प्रकाशित सुकेश साहनी की चार लघु-कथाएँ मार्मिकता लिए हुए दिल को गहरे छू गए... पर वास्तविकता से नजर नहीं फेरी जा सकती ।
          -सुनीता अग्रवाल दिल्ली

भारत- निमार्ण...विनाश की ओर?
 जुलाई अंक में प्राकृतिक आपदा पर अनकही बहुत सटीक काफी अध्ययन के बाद लिखा गया है किन्तु जिनको पढऩा और उस पर कार्य करना चाहिए वे आँख-कान बंद कर कुर्सी पर विराजमान हो कर्त्तव्य की इतिश्री समझते है... बस हो रहा है भारत -निर्माण...विनाश की ओर... इस विस्तृत लेख के लिए धन्यवाद...
-जनार्दन प्रसाद

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