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Aug 14, 2013

चार लघुकथाएँ

1. अनुत्तरित
-सुदर्शन रत्नाकर
जब भी जनरल स्टोर पर जाता। वह छोटा-लड़का मुस्कुराकर मेरा स्वागत करता और ग्राहक खड़े रहते पर वह भाग-भाग कर मेरे द्वारा बताया सामान ले कर आता उस चेहरे पर भोलापन था, एक विशेष आकर्षण। ऐसे समय में जब उसकी आयु वर्ग के बच्चे पढऩे के लिए जाते हैं वह काम  करता था। मैंने अवसर देख कर एक दो बार उससे कहा कि वह पढ़ने क्यों नहीं जाता।
 बस यूँ ही- छोटा-सा उत्तर देकर वह चुप हो जाता।
 पिछले ही सप्ताह एक सेमिनार पर जाना था। विषय था 'बाल श्रमिक मुक्त जि़लाज् नगर के नेता, समाजसेवी,उद्योगपति सभी एकत्र थे। ज़ोर शोर से भाषण हो रहे थे कि एक वर्ष के भीतर ही हम अपने जि़ले को 'बाल मुक्त जि़लाज् बना लेंगें। इसके लिए सभी का सहयोग मिलेगा, तभी सम्भव हो सकेगा। फ़ार्म भी भरवाए गए, जिसमें कुछ नियम थे कि वे घर,  फैक्टरी दुकान पर बाल श्रमिक नहीं रखेंगे। जहाँ देखेंगे, उन्हे मुक्त करवाने का प्रयत्न करेंगे। मैंने भी फ़ार्म भरा। नया-नया जोश था। सबसे पहले इसी बालक का ध्यान आया। इसे अवश्य मुक्त करवाऊँगा। यही सोच कर मैं स्टोर पर गया। मौक़ा देखकर उसके घर का पता ले लिया।
 रात में उसके बताये पते पर पहुँच गया। स्लम एरिया में संकरी गलियों से निकलता हुआ किसी तरह वहाँ पहुँचा। द्वार पर टाट टँगा था। आवाज़ देकर अंदर चला गया। वह अभी घर नहीं पहुँचा था। सीलन भरा छोटा-सा कमरा। मध्यम रोशनी में चारपाई पर अधेड़ उम्र का एक व्यक्ति लेटा था। शायद यह उस लड़के का पिता होगा। उसी कमरे में स्टोव पर एक औरत खाना बना रही थी। आठ-दस वर्ष की एक लड़की उसके पास बैठी थी।
मैंने अपना परिचय दिया और उन्हें समझाया कि आपका लड़का अभी बहुत छोटा है। उसे इस तरह स्टोर पर नौकरी के लिए नहीं  भेजना चाहिए। यह उम्र तो उसके पढऩे की है। मैं आपके बच्चे की पढ़ाई या काम सिखाने का प्रबंध कर दूँगा आप दोनों भी तो कमाते होंगे। आपको उससे काम नहीं करवाना चाहिए।
वह आदमी उठ कर बैठ गया था। उसने बताया वह एक सीमेंट $फैक्टरी में काम करता था। सीमेंट की धूल से उसे टी.बी हो गई है। मालिक ने उसका इलाज क्या करवाना था, नौकरी से ही निकाल दिया। उसकी माँ भी बीमार रहती है। दो जून की रोटी भी नहीं मिलती; इसीलिए लड़का नौकरी करता है। साब उसके पढऩे का इंतज़ाम तो आप कर देंगे। पर क्या साब आप हमारे घर का जि़म्मा भी लेंगे- कह कर वह चुप हो गया
मैं उसे क्या उत्तर देता। पानी पत्तों को नहीं, जड़ों में देना होगा।  
2. मैल
पुल के नीचे भीख माँगने वाले छोटे-छोटे बच्चे जिन्होंने तन पर नाम मात्र के मैले कुचैले कपड़े पहने हुए थे, भीड़ जमा किए खड़े थे। उनके साथ कुछ की माएँ भी थीं। कुछ सामान बेचने वाले, पुस्तकें, मैग्ज़ीन बेचने वाले भी उचक-उचक कर कुछ पा लेने को आतुर थे। उन सबके बीच चमचमाता कुर्ता- पायजामा पहने तथा कंधे पर शाल ओढ़े, वह एक एक बच्चे को एक स्वेटर तथा खाने का पैकेट दे रहे थे तथा सिर पर हाथ रख रहे थे। लोग उनको प्रशंसा की दृष्टि से देख रहे थे और मीडिया के लोग उन्हें घेरे खड़े थे। वह मुस्करा कर उन ग़रीबों को दान के रूप में सामान बाँट रहे थे। यह खेल पंद्रह मिनट तक चला। उन लोगों के बीच में से निकल कर वह कार में आकर बैठ गए। मीडिया के लोग उनके पास आ गए थे। वह उनसे कह रहे थे, कल के समाचार पत्र में यह  ख़बर चित्र के साथ आ जानी चाहिए। बाद में मुझसे दफ़्तर में आकर मिल लेना।
उनके जाते ही वह ड्राइवर से बोले, जल्दी से घर चलो, जाकर नहाना है। कम्बख़्त कितने मैले कुचैले थे सब।
3. घर की लक्ष्मी
 हमारी बुआ गाँव में रहती हैं। पहले तो हमारे पास शहर में रहने आ जाती थीं। इधर कई बरसों से आ नहीं पाईं। हम में से ही कोई तीज-त्योहार पर उनके पास चला जाता है। इस बार छुट्टियों में मैंने जाने का मन बना लिया। शहरी जीवन की ऊब, अशांत वातावरण से दूर रहना चाहती थी। बुआ के घर जाना अच्छा लगा। बुआ की बेटी सुनीता मेरी हम उम्र है, वह भी अपने बच्चों के साथ आ रही थी।
 बुआ मेरे आगमन पर बहुत ख़ुश हुईं। घर में त्योहार जैसा माहौल बना रहता। कब दिन होता, कब रात ढलती पता ही नहीं चलता। पर इस सारे ख़ुशी के माहौल में मुझे एक बात खटकती रहती। मुझसे या सुनीता से कोई $गलती हो जाती या हम काम नहीं करतीं तो बुआ हमें तो डाँटती नहीं थीं। पर भाभी को बात-बात पर डाँट देती। यह बात कुछ दिन तो मैंने अनदेखी, अनसुनी कर दी लेकिन अब बुआ का डाँटना अखरने लगा था। मन में कुछ चुभता रहता था। पर मैं कुछ कह भी नहीं सकती थी। उनका निजी मामला था। भाभी डाँट खाकर भी ख़ुश रहती। काम में जुटी रहतीं। समय निकाल कर हमारे पास भी बैठ जातीं।
 एक सप्ताह कब समाप्त हो गया, पता ही नहीं चला। विदाई का दिन भी आ गया। बुआ ने कई उपहार मुझे दिए। उनका स्नेहिल व्यवहार बहुत अच्छा लगा; लेकिन एक कसक, एक टीस-सी मन में थी कि ऐसी स्नेहिल बुआ अपनी बहू को इतना डाँटती क्यों हैं?
चलने लगी तो बुआ ने गले लगा लिया। मैं अपने मन की बात छुपा नहीं पाई और बुआ से पूछ ही तो लिया बुआ ग़लती तो हम करती थीं; पर आप हमें न डाँट कर केवल भाभी को ही क्यों डाँटती हैं।
बुआ बोलीं, तुम मेरी बेटियाँ हो, पर हो तो पराई। तुम दोनों को क्यो डाँटती और क्या काम करवाती। बहू तो मेरी अपनी है, इस घर की लक्ष्मी है। तुम दोनों से इस पर परम्परागत अधिकार अधिक है। जिस पर अधिकार होता है, उसी को तो डाँटा जाता है।
भाभी मुस्कुरा रही थीं ।
4. उड़ान
वसंत  ऋतु थी चारों ओर रंग-बिरंगे फूलों की महक। उन पर उड़ती तितलियाँ, मँडराते भँवरे। मंद-मंद सुगंधित पवन। आम के पेड़ों पर बौर और कूकती कोयल। यह समय पक्षियों के प्रजनन का भी होता है। मेरे घर के आँगन में लगे पेड़ पर चिडिय़ों ने एक-एक तिनका चुनकर घोंसला बनाया। चिडिय़ा-चिड़ा चोंच मिला कर मनुहार करते। चिडिय़ा सारा समय अंडों को सेती चिड़ा दाना चुग कर लाता। कुछ दिनों पश्चात चिडिय़ा के अंडों  को फोड़कर दो नए जीव बाहर आ गए। उस दिन चिड़िया-चिड़ा कुछ अधिक ही चहक रहे थे।
बच्चे थोड़े बड़े हुए। उनके पंख निकल रहे थे। चिड़ा प्रतिदिन की भाँति दाना लाता, चिड़िया बच्चों की चोंच में दाना डालती। दोनों बच्चे अब धीर-धीरे उडऩा सीख रहे थे। चिड़िया उनको देखती। फिर दोनों को साथ लेकर दूर की उड़ान सिखाने लगी। अब वे अच्छा उडऩा सीख गए थे। चिड़िया के बिना भी उडऩे जाने लगे। साँझ ढले वापिस आ जाते।
कुछ दिन बाद दोनों बच्चे उडऩे के लिए गए लेकिन साँझ को वापिस नहीं आए। चिड़िया -चिड़ा रात भर इधर-उधर अँधेरे में उड़ते रहे, बच्चों को ढूँढते रहे, पर वे उन्हें नहीं मिले। पूरी रात उनकी चीं-चीं की आवाज़ आती रही।
अगले दिन उनकी तालाश उसी तरह जारी रही और फिर तीसरे दिन चिड़िया -चिड़ा ने विपरीत दिशा की उड़ान भरी और फिर कभी वापिस नहीं आए।
मैं और पत्नी अभी अपने घर में बैठे हैं। बच्चे अपनी अपनी राह पर चले गए हैं। हम चिड़ियों ।की भाँति उड़ान भरकर कहीं भी नहीं जा सकते। समय आने पर ही उड़ेंगे। तब तक अपने घोंसले में समय की प्रतीक्षा करनी होगी।

लेखक के बारे में: जन्म- ११ सितम्बर, १९४२ (पानीपत), शिक्षा- एम ए (हिन्दी), सन् १९६२ से कविता, कहानी, उपन्यास, लघुकथा, हाइकु, माहिया  आदि में रचनाकर्म। कई कविता- संग्रह, उपन्यास और कहानी संग्रह, प्रकाशित।  हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित। केन्द्रीय विद्यालय संगठन द्वारा हिन्दी- प्रवक्ता का राष्ट्रीय प्रोत्साहन पुरस्कार। सम्प्रति स्वतन्त्र लेखन।
 संपर्क: सुदर्शन रत्नाकर,  ई -29, नेहरू ग्राउंड, फरीदाबाद (हरियाणा)2912100, मो. 09811251135


2 comments:

Anonymous said...

Sudarshan ji,

sabhi kahaniyan bahut acchhi lagin. lekin ghar ki lakshmi to bahut hi sundar hai....iski sakaratmak vichardhara ne to saas-bahu ke rishte ko bahut madhur bana diya.

saadar
Manju

Anita Lalit (अनिता ललित ) said...

सभी लघु कथाएँ दिल को छू गयीं...

~सादर!!!