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Mar 10, 2013

एक अनुकरणीय पहल


एक अनुकरणीय पहल
-डॉ. रत्ना वर्मा
अच्छे काम की हमेशा सराहना होती है और समाज के लिए अनुकरणीय बनती है। समाज में व्याप्त किसी भी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए समाज के ही व्यक्तियों को आगे आना होता है। पिछले दिनों समाचार पत्रों में एक ऐसी खबर पढऩे को मिली जिसे मैं यहाँ सबके साथ बाँटना चाहती हूँ- 
स्वागत में गुलाब, दहेज में किताब!  इस शीर्षक से प्रकाशित समाचार में एक ऐसे डॉक्टर की बेटी की शादी का उल्लेख था; जिसमें बारातियों का स्वागत गुलाब के फूल और दहेज में किताबें भेंट करने की बात कही गई थी। यह खबर अमृतसर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. श्याम सुंदर दीप्ति की बेटी की शादी को लेकर थी। वे डॉक्टर होने के साथ लेखक और शायर भी हैं उन्होंने लगभग दो दर्जन किताबें लिखीं हैं और इतनी ही संपादित भी की हैं। उनकी बेटी ऋतु माता कौलाँ अस्पताल में मेडिकल अफसर हैं । उसकी  शादी नवाँशहर जिले के राहों कस्बे के डॉ. राकेश पाल से गत माह 23 फरवरी को सपन्न हुई है। 
उनकी इस अनोखी पहल पर शुभकामनाएँ देते हुए मैंने उन्हें ईमेल किया और पिछले दिनों उनसे फोन पर बात भी की।  उन्होंने बताया कि मैं जब भी अपने समाज में या परिचित के यहाँ शादी में जाता था तो शादी में होने वाले फिज़ूलखर्ची को देखकर मुझे लगता था यह सब बंद होना चाहिए। आजकल एक मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी की शादी में 30 से 35 लाख रुपये आसानी से खर्च हो जाते हैं। बात बहुत छोटी- छोटी होती हैं जैसे ये कैसी परम्परा है कि दूल्हा पूरा रास्ता तो कार में सफर करके तय करता है फिर दुल्हन के द्वार पर पँहुच कर घोड़ी पर चढ़कर जाता है? भला इसका क्या औचित्य। इसी तरह बारातियों को, दूल्हे के पूरे परिवार को मिलनी (उपहार) देने की परम्परा है। ऐसी न जाने किनती परम्पराएँ हमारे समाज में व्याप्त हैं  ,जिसके लिए लड़की वाले अपनी हैसियत से ऊपर जाकर खर्च करते हैं। मैं चूंकि इन्हीं सामाजिक विषयों पर लिखता रहा हूँ, तो मैंने सोचा मैं अपने बच्चों के विवाह पर ऐसी कोई फिज़ूलखर्ची नहीं करूँगा। मैंने लोगों को इसी सोच से बाहर निकालने के लिए यह शुरुआत की। मैंने बारातियों का स्वागत गुलाब के फूलों से किया और उपहार में अपनी किताब भेंट में दी।
डॉ. दीप्ति ने जो कहा, जो सोचा, जो लिखा उसे करके भी दिखाया।  इसकी शुरुआत उन्होंने शादी का निमंत्रण पत्र भेजने के साथ ही कर दी थी- अपनी किताब 'मिलन का आनंद’ (सेलिब्रेटिंग टुगेदरनेस) को निमंत्रण पत्र के साथ में भेज कर। वे मनोरंजन के लिए बाहर से पैसा देकर बैंड और डांस ग्रुप बुलाने के पक्ष में भी नहीं हैं। शादी हमारी व्यक्तिगत और पारिवारिक खुशी होती है इसमें बाहर वाले आकर कैसे खुशियाँ बाँटेंगे? मेरी बेटी की शादी में मैंने नाच गाने पर खर्च भले ही नहीं किया पर नाच-गाना नहीं हुआ ,ऐसी बात नहीं है, परिवार के लोगों ने ही मिलकर कार्यक्रम तैयार किया और खूब जमकर नाच-गाना भी हुआ। इससे जो खुशी मिली वह दूसरों के नाचने-गाने में कहाँ। हाँ मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि मेरे इस व्यक्तिगत कदम को मीडिया में जगह मिल जाएगी और देश भर में इतनी सराहना मिलेगी। पर समाचार पत्रों में यह खबर छप जाने से लोगों की अच्छी प्रतिक्रियाएँ मिलीं- जैसे जालंधर के एक 70 वर्षीय व्यापारी कुलदीप महाजन स्वयं इस तरह की फिज़ूलखर्ची और अनावश्यक रीति रिवाजों के बिना विवाह करने हेतु नवयुवकों को प्रेरित करते हैं । उनका फोन आया- उन्होंने इस संदेश को साथ मिलकर आगे बढ़ाने के लिए कहा  । मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूँ। लेकिन इन सबके लिए जरूरी है संदेश लोगों तक पहुँचे। आजकल की फिल्मों और टीवी धारावाहिकों में तो ऐसे दृश्य दिखाए जाने लगे हैं ;जो फिज़ूलखर्ची वाले विवाह को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। जिनके पास खर्च करने की हैसियत नहीं है वह भी मात्र दिखावे के लिए फिज़ूलखर्ची वाली शादी करने लगे हैं। भव्य सजावट, शाही खान-पान, मनोरंजन के लिए डीजे, दिखावे के लिए भारी भरकम दहेज, दुल्हन के लिए लाखों के लहँगे जो वह केवल जयमाल में ही पहनती है ,बाद में उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। यदि खर्च ही करना है तो बेटी के उज्ज्वल भविष्य के लिए कीजिए या उस पैसे को समाज के किसी बेहतर काम में लगाइए।
प्रश्न यह उठता है कितने ऐेसे लोग हैं जो ऐसा अनुकरणीय कदम उठाते हैं बिना यह सोचे कि समाज या रिश्तेदार क्या कहेंगे। हम अपने आप को कितना ही आधुनिक और पढ़ा- लिखा कह लें ; लेकिन समाज की जो तस्वीर है वह किसी से छिपी नहीं है । दहेज रूपी दानव ने आज के मध्यमवर्गीय समाज को ग्रस लिया है। आजकल तो यह पहले ही तय हो जाता है कि बारातियों का स्वागत किस तरह कितने धूम-धाम से होगा, क्या-क्या लेन-देन होगा, दहेज में क्या-क्या दिया जाएगा, खाने-पीने की व्यवस्था कैसी और कहाँ होगी। कुल मिलाकर शादी दो परिवारों का मिलन समारोह न होकर दिखावे का समारोह बन गया है ; जिसके लिए बाकायदा आजकल विवाह आयोजित करने वाले लोग बाजार में अपनी दुकान सजाए बैठे हैं । वे  सामने वाली पार्टी की हैसियत से विवाह के सारे इंतज़ाम करते हैं।
आज जबकि हम लेन-देन वाली जैसी कुप्रथाओं को गलत परम्पराओं को तोडऩा चाहते हैं तो  वह आधुनिकता के नाम पर और भी अधिक बढ़ती ही जा रही है। अब तो लोग सगाई की रस्म भी इतने भव्य पैमाने पर करने लगे हैं कि देखकर लगता है -इतने में तो शादी ही संपन्न हो जाती। जाहिर है -हमारे पारिवारिक और निजी समारोह भी आज व्यावसायिक चश्में में देखे जाने लगे हैं।
  किसी भी खबर को ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच पँहुचाने में मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। विवाह में फिज़ूलखर्ची और दिखावे को खत्म करने के लिए डॉ. दीप्ति ने जिस नई परम्परा की शुरूआत की है ,  उसे मीडिया ने ही हम तक पँहुचाया है। यह लगातार और बड़े पैमाने पर होते रहना चाहिए ताकि लोगों को ऐसे उदाहरणों से प्रेरणा मिले और वे भी कुछ ऐसा ही कदम उठाने के बारे में सोचना शुरू करें।  फिलहाल तो आइये हम सब मिल कर डॉ. दीप्ति जी ने जो नई शुरुआत की है ;उस मुहिम को आगे बढ़ाने का संकल्प लें।

4 comments:

अमित वर्मा said...

वास्तव में यह अपने आप में एक अनुकरणीय पहल है, इस पहल को मेरा सलाम !!! मूल रूप से आज दोहरे मापदंड हमारे जीवन में प्रवेश कर गए हैं। इसी से जीवन इतना उलझ गया है। हम सब डबल स्टैंडर्ड में जीते हैं, दोहरे मापदंडों में। दूसरों के लिए एक मापदंड होता है, अपने लिए दूसरा। लेकिन जिंदगी अलग-अलग नियम नहीं मानती है। उसके नियम एक हैं। हम जैसा दूसरे में देखते हैं और जो नियम दूसरे के लिए बनाते हैं, वही नियम अपने लिए भी बना सकें तो जिंदगी बहुत ऊपर उठ जाए। जैसा की अपने लिए कहूँ तो - मेरा क्रोध परिस्थिति की वजह से हुई भूल है, और दुसरे के लिए कहूँ तो- वह है ही बड़ा क्रोधी। कोई चीज टूट गई, तो मैं अपने लिए कहूँगा कि मुझसे टूट गई और दूसरे के लिए उसने तोड़ दी। वास्तविक रूप में हम पहल करना कहते ही नहीं, पहल की अपेक्षा सदैव हमें दूसरो से रहती है। हमें कभी अपनी सोच पर अपने आचरण पर पुनर्विचार की जरूरत ही नहीं महसूस हुई और जब तक हम इस पर पुनर्विचार नहीं करेगे तब यह समस्या हमारे आगे एक विकराल रूप लेती रहेगी ।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

टीवी सीरियल्स की तो बात ही मत कीजिये। बौद्धिक प्रदूषण फैलाने में इनका प्रमुख योगदान है। विवाह/ यज्ञोपवीत संस्कार में अपने मिथ्या वैभव प्रदर्शन से लोग गौरवांवित हो रहे हैं किंतु इससे कुप्रथाओं और धन के अपव्यय को ही बढ़ावा मिल रहा है। मैंने भी सोच रखा है, अपने बेटे के यज्ञोपवीत/विवाह संस्कारों में धन का अपव्यय नहीं होने दूँगा। प्रेरक प्रसंग देने के लिये सम्पादिका जी को साधुवाद!

Shiam said...

daktr rtnaa jii ke is kryaatmk sujhv ko pdhkr mn men ek bijli sii daud gyee | hmen aaj samj men is prkaar ki vichaar dhaaraa kii aawshykyktaa hai. puraanii rudhivaadii prmpraaon ko isii prkaar nikaal paayenge | lekh ka hr shbd sochkr likhaa gyaa hai| yug yug jiyo meri lekhikaa!
Shiam Tripathi Canada

प्रियंका गुप्ता said...

बहुत अनुकरणीय पहल है...इसके लिए डॉ.दीप्ति जी को साधुवाद...| आपने इस के बारे में हमें बताया, इसके लिए आप भी बधाई की हकदार हैं...और साथ ही वर-पक्ष भी,क्योंकि डॉ. साहब की इस पहल को उन्होंने भी अपना सहयोग दिया...और समस्त कार्यक्रम राजी-खुशी निपट गया...|
नव-विवाहित जोड़े को हार्दिक शुभकामनाएँ...|

प्रियंका गुप्ता