- प्रो. अश्विनी
केशरवानी
होली केवल हिन्दुओं का ही नहीं
वरन् समूचे हिन्दुस्तान का त्योहार है। इस त्योहार को सभी जाति और सम्प्रदाय के
लोग मिल जुलकर मनाते हैं। इसमें जात-पात कभी आड़े नहीं आती। सारी कटुता को भूलकर
सब इसे मनाते हैं। इसे एकता, समन्वय
और सद्भावना का राष्ट्रीय पर्व भी कहा जाता है। होली के आते ही धरती प्राणवान हो
उठती है, प्रकृति खिल उठती है और कवियों का नाजुक भावुक मन न
जाने कितने रंग बिखेर देता है अपने गीतों में, देखिए एक
बानगी-
होली का त्योहार मनाएँ
ले लेकर अबीर झोली में
निकले मिल जुलकर टोली में
बीती बातों को बिसराकर
सब गले मिलें होली में
पिचकारी भर भरकर मारें
सबको हंसकर तिलक लगाएँ
आओ मिलकर होली मनाएँ।
होली का लोक जीवन से जितना
गहरा सम्बंध है, उतना किसी अन्य
त्योहार से नहीं है। इस त्योहार पर तो जीवन खुशी से उन्मश्र हो जाता है। वास्तव
में ग्राम्य जीवन का उल्लास यदि फसल कटने के बाद नहीं बहेगा तो कब बहेगा? घर धन-धान्य से भरा है और कोठी गौओ से। साल भर के बाद होली आई है पाहुन
बनकर। यदि इसके आगमन पर खुशी नहीं मनाई जायेगी तो कब मनाई जायेगी..? ऐसे अवसर पर लोक जीवन खुलकर रंग रेलिया मनाता है, खुशी
से बावला होकर नाचता और गाता है-
होली आई रे...
सरसंगी सपने दुलारती होली आई
रे।
फागुन फाग सुनाता आया,
गाये कोयलिया,
आम्र मंजरी छनन छनन झनकाये
पायलिया।
अमलताश किंशुक ने माँग भरी बन
देवी की
केसर कचारी की अंगराई पीली
चुनरियाँ।
डालों के किसलय आँचल छू बेला
बौराया
भरमाती कलियों को अलियों की तरुणाई
रे।
कुमकुम और गुलाल भरे घन उमड़
घुमड़ छाए,
सुर धुन पिचकारी अम्बर का तन
नहलाए
संध्या के अरुणिम मुख पर
मल कालिख सूर्य भगा
शशि मेघों मं छिपा कि काजर
निशा न मल पाए।
होली आई रे...।
ग्राम्य जीवन में किसान नई फसल
की बाली को भूनकर सामूहिक रूप से खाते और गाते हैं। छत्तीसगढ़ में धारणा है कि नये
अन्न को खाने के पहले अग्नि देव को भेंट किया जाना जरूरी है। मानव ग्रह्य सूत्र
में भी उल्लेख है कि '
नये अन्न को यज्ञ को समर्पित किये बिना न खाएँ ’ अग्नि में भूनी बालियों को 'होला’ या 'होलक’ कहा जाता है। संस्कृत भाषा में भी अधपके भूने हुए अनाज को 'होलक’ कहा जाता है। संभवत: इसी होलक को आधार मानकर इस पर्व को 'होली’ कहा जाने लगा..?
रोजमर्रा की जिन्दगी से मुक्ति,
आपाधापी से भरी जिन्दगी का एक रस, उबाऊ ढर्रा,
पनपता विद्वेष, उफनती हिंसा, अपनो से दूरी, अभाव, अनमनापन,
सब कुछ भुला देती है- होली, जब माथे पर लगता
है अबीर और मन में चढ़ती है रंग की बौछार। हसरत रिसालपुरी फागुन के इस मदमाते रंग
में डूबे हुए हैं। हौले-हौले मुख पर अबीर और गुलाल लगाकर नयनों से नयन मिलाकर
दूसरों को आत्मज्ञान का संदेश दे रहे हैं-
मुख पर गुलाल लाल लगाओ
नयनयन को नयनों से मिलाओ
बैर भूलकर प्रेम बढ़ाओ
सबको आत्म ज्ञान सिखाओ
आओ प्यार की बोली बोले
हौले हौले होली खेले।
नजीर अकबराबादी होली की
रंगीनियां कुछ यूं पेश करते हैं-
नजीर होली का मौसम जो जग में
आता है
वह ऐसा कौन हो जो होली नहीं
मनाता है।
कोई तो रंग छिड़कता है,
कोई गाता है
जो खाली रहता है,
वह देखने को जाता है
जो ऐश चाहो,
कि मिलता है यारों होली में।
मीठी मीठी प्यार की बोली बोलना
मनुष्य सीख ले तब कहाँ हो दंगा-फसाद और लड़ाई-झगड़े। तब तो बस होली ही होली है।
साहिर ने भी होली के इस सुहाने नजर और लुभावने पन को बड़ी गहराई से आत्मसात किया
है। अकबरावादी की शायरी में चटकीली होली और उसका रंग ऐसे दिखता है जैसे शीशे में
छलकता जाम हो-
तब देख बहारें होली की।
और दम के शोर खड़कते हों
तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों
तब देख बहारें होली की।
होली में जगह-जगह फाग गाये
जाते हैं। फाग में प्रणय, बिछोह,
हर्ष और उत्साह का समावेश होता है। फाग का मौसम याने रंग गुलाल और
अबीर की बौछार का मौसम। इस वक्त हर कोई खुशी में मस्त और रंगों में रंगा होता है।
इस रंग में बिस्मिल भी रंगे हुए हैं-
हम क्या बताएं कि क्या रंग है
जमाने का
कहीं अबीर कहीं है गुलाल बेलों
में।
कोई निहाल कोई शाद और कोई खुश
बदल गया है जमाने का हाल होली
में
निराला जमा है रंग ऐसा
कि दूर है शामें सजा मलाल होली में।
उड़ा रहे हैं अब अहले जमीं
अबीरो गुलाल
फलक पर निकलेंगे तारे भी लाल
होली में।
दुआ यह है कि अहज्ज-ओ-दोस्त ऐ
बिस्मिल
खुशी में यूँ कहें हर साल होली
में।
इस मस्ती के मौसम में रंगों की
बौछार के साथ हम भी झूमने लगते हैं। ऐसे में जब प्रियतमा भी साथ हो तो रंग कुछ
ज्यादा ही चढऩे लगता है। लेकिन प्रियतमा का चेहरा तो घूँघट के अंदर छिपा है। ऐसे
में क्या किया जाये? बिस्मिल की
प्रस्तुति देखिए-
उठाओ चेहरे से नकाब होली में
हिजाब और फिर ऐसा हिजाब होली
में।
खुदाई भर के तो अरमान हो जायें
पूरे
मेरा ही दिल न हुआ कामयाब होली
में।
पलक पे छाया है उड़ उड़के आज
अबीरो- गुलाल
अजब नहीं जो छुपे आफ़ताब होली
में।
वह जान बूझकर मुझसे गले नहीं
मिलते,
हुई है खुद ही मिट्टी खराब
होली में।
कहना न होगा कि होली राष्ट्रीय
एकता का प्रतीक त्योहार है। वह एकता,
अपनत्व और राष्ट्रीयता का भी प्रतीक है। इन रंगों में ही इसका
उद्देश्य निहित है जिसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। एक बानगी पेश है-
होली से खुदा का मतलब है,
मिल जुलकर सब रहना सीखें।
दरिया-ए-मोहब्बत में मिलकर,
लहरों की तरह बहना सीखें।
होली का मजा है मिलने में,
ऐसा जो नहीं,
तो कुछ भी नहीं।
यह खूब समझते दिल में तुम,
ऐसा नहीं तो कुछ भी नहीं।
तुम एक रहो तो फिर देखो,
क्या नतीजा मिलता है इसका।
दावे से यह बिस्मिल कहता है,
दुनिया का कलेजा हिलता है।
संपर्कः
'राघव’ डागा कालोनी, चाम्पा-495671
(छ.ग.)
E-mail-
ashwinikesharwani@gmail.com
No comments:
Post a Comment