- सुभाष लखेड़ा
छींक पर सर्वप्रथम वैज्ञानिक ढंग से विचार करने
का प्रयत्न प्रसिद्ध दार्शनिक एवं वैज्ञानिक हिप्पोक्रेट्स को जाता है। ईसा से
लगभग चार सौ वर्ष पूर्व जन्मे इस विद्वान् का विचार था कि फेफड़ों की बीमारियों से
ग्रस्त व्यक्तियों के लिए छींकना खतरनाक है, जबकि अन्य रोगियों को इससे फ़ायदा होता है।
प्रसिद्ध विकृति विज्ञानी सर जोनाथन हटचिन्सन भी छींकने को अच्छे स्वास्थ्य का
प्रतीक मानते थे। बहरहाल, वैज्ञानिक
छींक पर अनुसंधान करते रहे और आज जो जानकारी उपलब्ध है, उसके
अनुसार यह एक नासा क्षोभक प्रतिवर्त है और इसका अच्छे या बुरे स्वास्थ्य, जन्म अथवा मृत्यु से कोई रिश्ता नहीं है और न इसका शकुन अथवा अपशकुन से
कोई सैद्धांतिक संबंध है।
दरअसल, छींक हमारी नाक की भीतरी सतह में मौजूद तंत्रिकाओं के सीमांत सिरों अथवा
दृष्टि तंत्रिका के उद्दीपन से मस्तिष्क में पहुँचने वाले आवेगों के कारण उत्पन्न
होने वाला एक अनैच्छिक प्रतिवर्त है। नाक में यह उद्दीपन किसी बाह्य पदार्थ की
उपस्थिति, नाक की शलेष्मल कला की सूजन, जुकाम आदि से होता है. दृष्टि तंत्रिका चमकीले प्रकाश से उद्दीप्त होती
है। नसवार के सूँघने से अथवा किसी वस्तु विशेष से एलर्जी की वजह से भी छींक आ जाती
है. यूँ किसी भौतिक उद्दीपन और कई तरह के
रासायनिक उत्तेजकों को नाक की भीतरी सतह पर प्रयोग करने से छींक पैदा की जा सकती
है। हिस्टामीन जैसी औषधियों को सूँघने एवं नाक में होने वाले श्लेष्मीय स्राव से
भी छींक आती है. झर्झरिका (ethmoidal), वीडिअन (vidian)और बड़ी सतही अश्म (petrosal) तंत्रिकाओं का वैद्युत उद्दीपन भी छींक पैदा कर
सकता है किन्तु त्रिधारा (trigeminal) तंत्रिका को उत्तेजित
करने से छींक का आना कतई जरूरी नहीं है. शरीर की त्वचा को ठंडा करने, शिरोवल्क या कान पर उत्तेजकों की उपस्थिति, तथा
कतिपय मनोवैज्ञानिक कारणों से भी छींक आ सकती है।
हिस्टीरियाजन्य कारणों से व्यक्ति को लंबे समय
तक निरंतर छींक आ सकती है. ऐसे कुछ उदाहरण रिकॉर्ड भी किए गए हैं। ऐसा ही एक
उदाहरण एक तेरह वर्षीय लड़की का है जो दो महीनों तक लगातार छींकती रही। उसकी छींक
तभी बंद हुई जब उसे एक एकांत कमरे में रखा गया। ऐसा भी देखने में आया है कि काली
खाँसी के कुछ रोगियों में खाँसी का दौरा समाप्त होने पर छींक का दौरा शुरू हो गया।
नाक में पालिपों के कारण एवं बाह्य कर्ण गुहर में किसी इतर पदार्थ की मौजूदगी से
भी छींक आती है। दरअसल, नाक की श्लेष्मीय
कला में मौजूद तंत्रिकाओं के सीमांत सिरे ही छींक पैदा करने वाले उत्तेजकों के लिए
ग्राहक का काम करते हैं यानी ये सिरे ही उद्दीपकों द्वारा पैदा आवेगों को मस्तिष्क
में स्थित छींक केंद्र तक पहुँचाते हैं।
वैज्ञानिकों का विचार है कि सभी तरह के छींक
पैदा करने वाले उद्दीपकों के लिए एक ही अभिवाही पथ नहीं हो सकता है किन्तु
अध्ययनों से यही ज्ञात होता है कि अधिकतर उद्दीपकों के कारण नाक के अंदर श्लेष्मीय
अतिरिक्तता एवं श्लेष्मा का स्राव होता है। इन दोनों कारणों से नाक के आंतरिक पटों
में मौजूद तंत्रिका सिरे सक्रिय हो उठते हैं और व्यक्ति विशेष छींकने लगता है।
यद्यपि अभी तक छींक पैदा करने वाले आवेगों के अभिवाही पथों के विषय में वैज्ञानिक
एकमत नहीं हो पाए हैं ; किन्तु इस बात से
वैज्ञानिक सहमत हैं कि जब ये आवेग मस्तिष्क में स्थित छींक केंद्र
को उत्तेजित करते हैं तभी छींक आती है। छींक की प्रक्रिया शुरू होते ही
व्यक्ति विशेष एक अनैच्छिक गहरी साँस लेता है।
तत्पश्चात्, कोमल तालु एवं
अलिजिह्वा श्वासावरोध की स्थिति पैदा करते हैं। इसी अल्पकाल के दौरान फेफड़ों तथा
ग्रसनी में दबाव में वृद्धि होती है और अचानक अधिजिह्वा के अवनमित होते ही फेफड़ों
से हवा तेजी से संबंधित व्यक्ति के मुँह और नथुनों से बाहर निकलती है। फेफड़ों से
अत्यधिक तेज गति से आने वाली यह हवा नाक के अंदर मौजूद इतर पदार्थ अथवा श्लेष्मा
को साधारणतया एक या दो बार में बाहर फेंक देती है।
छींक के शारीरिक प्रभावों में मुँह तथा की
पेशियों का संकुचन, आँखों का
टिमटिमाना और बंद होना तथा सिर सहित शरीर के ऊपरी भाग का संचालन प्रमुख है। छींक
के दौरान आँखों में पानी आ सकता है। कभी-कभी छींक की प्रबलता के कारण श्वसनी के
बहिर्व्यास एवं हृदवाहिका प्रणाली में अस्थायी परिवर्तन हो सकता है। यदा-कदा,
इस दौरान होने वाले कुछ अन्य शारीरक परिवर्तनों के कारण क्षणिक उच्च
रक्त दाब, अथवा मूर्च्छा के लक्षण भी देखने को मिलते
हैं। लाक्षणिक दृष्टि से छींक का अत्यंत
अल्प महत्त्व है। हाँ, यदि इसकी निरंतरता बनी रही यानी किसी
व्यक्ति को लगातार छींक आती रही तो इसकी तरफ अवश्य ध्यान दिया जाना चाहिए। ऐसे
व्यक्ति के नाक, कान और गले की जाँच जरूरी है। बीमार
व्यक्तियों को भी छींक आती है और यदि वे प्लूरिसी अथवा कमर के दर्द से पीड़ित हों
तो उन्हें छींक अत्यधिक कष्टप्रद महसूस होती है। ऐसा भी देखा गया है कि छींक आने
से हिचकियों का दौरा समाप्त हो जाता है।
कुल मिलाकर, सामान्यतया छींक आना कोई हानिकारक
शारीरिक प्रक्रिया नहीं है। यदि छींक आ रही है तो उसे रोकने का प्रयास नहीं करना
चाहिए। ऐसा प्रयास श्लेष्मा को साइनसों एवं कानों में पहुँचा सकता है जहाँ वह
जीवाणु संक्रमण का कारण बन सकती है।
लेखक के बारे में:
रक्षा शरीर क्रिया एवं सम्बद्ध विज्ञान संस्थान से सेवानिवृत्त वैज्ञानिक,
एम एससी (रसायन विज्ञान), वैज्ञानिक अनुसंधान
कार्यों से जुड़े लगभग तीस से अधिक शोध पत्र एवं रिपोर्ट। राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी
के प्रचार-प्रसार के लिए विगत 32 वर्षों से प्रयासरत, एक
हजार पाँच सौ से अधिक वैज्ञानिक लेख और विविध रचनाएं राष्ट्रीय स्तर की
पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। पंद्रह विज्ञान कथाएँ प्रकाशित, आकाशवाणी से विज्ञान विषयक 134 वार्ताएँ प्रसारित खेल विज्ञान पर खेल, खिलाड़ी और विज्ञान
पुस्तक प्रकाशित। कई पुरस्कार एवं सम्मान। सम्प्रति: रक्षा अनुसंधान और विकास
संगठन से वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद से सन 2009 में सेवा निवृत्त।
संपर्क:
सी - 180, सिद्धार्थ कुंज,
सेक्टर- 7, प्लाट नंबर -17, द्वारका, नई दिल्ली-110075, फोन-
011-25363280; मो.9891491238, Email -subhash.surendra@gmail.com
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