- जवाहर चौधरी
आम आदमी के शरीर और माता बहनों
के सम्मान की रक्षा के लिये पंडित परसराम ने शपथ ली कि इस बार वे भियाजी को होली
खेलने से रोकेंगे। लोगों ने सुना तो हँस पड़े। भियाजी कोई बकरी का बच्चा तो है
नहीं कि दौड़े, पकड़ लिया और बंद
कर दिया टोकरी के नीचे! अगर जनहित में उन्हें रोका ही जाना था तो यह कोई पहला अवसर
नहीं है। बहुत साल पहले जब वे पहली बार मोहल्ला सुधार कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए थे
तभी रोका जा सकता था। लेकिन भियाजी निकले दाढ़ी के बाल, चाहे
रोज काटिये, रुकते ही नहीं। राष्ट्रसेवा के लिए जब वे आगे
बढ़े तो पुलिस ने रोका, बंद भी किया पर वे रुके नहीं। सरकार
की आँख की किरकिरी बने, उसने रोकने की कोशिश की पर नहीं रुके
। आखिर में थक हार कर पार्टी में ले लिया, टिकिट दिया,
विधायक बने, अब मंत्री बनेंगे, रुकेगें नहीं।
बावजूद इतनी तरक्की के वे जमीन
से जुड़े व्यक्ति हैं। वैसे यह कहना ज्यादा सुरक्षित होगा कि वे धरती माँ के सच्चे
सपूत हैं। न धरती माँ को इस दावे से आपत्ति है न ही बाकी बचे सपूतों को। होली के कुछ दिन पहले ही वे अपनी कर्मभूमि
पहुँच जाते हैं, अपनी प्यारी प्रजा
के पास। जिसे चुनाव के पहले देश के मालिक और सामान्य दिनों में पब्लिक कहने का
रिवाज है। पुराने समय में मानने वाले प्रजा को पुत्र के समान मानते थे। पुत्र अब
नालायक होने लगे हैं ; लेकिन अपने भियाजी को कोई टेंशन नहीं है। वे अपनी प्रजा को
गर्लफ्रेंड मानते हैं। जस्ट टाइम पास। चुनाव के टाइम डिस्को, बाद में खिसको। पहले कहते खाएँगे पिएँगे ऐश करेंगे, आती
क्या खंडाला। बाद में बोलते -हमें क्या पता तूने वोट किसको डाला! लेकिन होली पर वे
सारा मतभेद भुलाकर, नहा-धोकर रंग खेलते हैं। लेकिन इस बार
पंडित परसराम ने भिया को रोकने की योजना बना ली है।
देशभर के भियालोग तांत्रिकों
और ज्योतिषियों के चक्कर में रहते हैं। ज्योतिषी दावा करते हैं कि उन्होंने कई
ऐरे-गैरों को दिशा दे कर महान भिया बनाया है। अपने भियाजी भी समय समय पर
ज्योतिषियों के यहाँ मुंडन करवाते रहे हैं। इसलिए पंडित परसराम ने उनके सामने
ज्योतिष की लक्ष्मण रेखा खेंचने की कोशिश की।
भियाजी का हाथ देखते ही
उन्होंने एक प्रभावशाली चौंक लगाई। वैसे तो रिवाज ये है कि भियाजी का हाथ देख कर
अच्छे अच्छे चौंक पड़ते हैं। लेकिन पंडित परसराम की चौंक से भियाजी चौंक पड़े-क्या
बात है पंडित !?
बहुत गंभीर मसला है! ग्रह अपने सही स्थान पर
नहीं बैठे हैं। पंडित ने कहा।
सुन कर पहली प्रतिक्रिया में
भियाजी चिंतित हुए किन्तु बेबसी थी। अगर नौ की जगह अठारह ग्रह भी होते और इसी शहर
में रह रहे होते तो मजाल थी किसी की कि चूँ-चपड़ भी करता! सारे के सारे वहीं बैठते
जहाँ भियाजी बैठने को कहते। लेकिन बैठने को कहते ही क्यों!?
ऐसे ग्रह जो उनके खिलाफ
चलने की सोच रहे हों उन्हें वे बैठाते!? और वो नहीं
बैठाते तो शहर में कोई भी उन्हें बैठाने की हिम्मत करता! जो भियाजी का नहीं हुआ
समझो शहर में उसका कोई नहीं हो सकता। लोग कहते हैं कि मंगल-शनि, राहु-केतु की वक्र दृष्टि अच्छे-अच्छों को ऊपर-नीचे कर देती है । लेकिन
बहुत कम लोगों को पता है कि यदि इन पर भियाजी की वक्र दृष्टि पड़ जाए तो स्वयं शनि
महाराज भियाजी के फोटो पर तेल चढ़ाते नजर
आएँ। किन्तु ग्रह बड़े ही चालाक हैं । वे
इस शहर में कहीं नहीं रहते। जिस शहर में भी भियाजी लोग रहते हैं वहाँ भला कौन सा
ग्रह रह सकता है! फिर भी भियाजी को शंका हो गई कि ये ग्रह अंडरवर्ल्ड डॉन की तरह
रहते कहीं हैं और हप्ता वसूली कहीं और करते हैं। लेकिन इन ग्रहों के लोकल शूटर कौन
हैं!... क्या ये ज्योतिषी!
खैर,
पंडि़त परसराम ने अपनी चौंक और चिंता जारी रखी और बताया कि इस साल
उनके लिए होली का रंग खेलना अपने हाथों दुर्भाग्य को निमंत्रण देना है। इसलिए उन्होंने
सख्त हिदायत दी कि वे रंग-गुलाल ही नहीं पानी से भी दूर रहें। भियाजी थोड़े विचलित
तो हुए। कोई और मामला होता तो पंडित किस खेत की मूली हैं। भियाजी खाँस भर दें तो
संस्कृत के श्लोकों की हिन्दी हो जाती हैं। लेकिन इस मामले में वे खाँसनें-खोंसने
का कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते हैं। एक होली का त्योहार ही है जिसमें वे जनता की
माँ-बहनों के निकट आ कर भारतीय संस्कृति के उच्च मूल्यों का श्राद्ध करने का मौका
पाते हैं। पिछले साल पंडितानी के चरणस्पर्श करते हुए वे उनके हाथ-मुँह और पैरों को
रंग कर होली खेल आए थे। हालाँकि शगुन कहकर मुआवजे के रूप में सवा ग्यारह रुपये भी
दे आए थे, लेकिन बाद के दिनों में भिया को देखते ही पंडित का
चेहरा बिना रंग-गुलाल के लाल हो जाता रहा है, ये बात उन्हें
पता है । यहाँ बात सिर्फ भियाजी की नहीं
उनके साथ रह रहे लौंडों-लपाड़ों की भी है। मौका मिलते ही भियाजी की आड़ में वे भी
मुँह काला कर लेते हैं। उतावले इतने कि अगली होली का इंतजार इस होली की आग ठंडी
होते ही होने लगता है। लिहाजा भियाजी के लिये होली न खेलने का निर्णय लेना उतना ही
कठिन है जितना कि सरकार के लिये मंदिर नहीं बनाने का निर्णय लेना। जनभावना,
परंपरा, प्रतिष्ठा, संस्कृति,
और भी न जाने किस किस-किस का सवाल सामने था ।
बहुत सोच कर उन्होंने कहा -
देखो पंडित! होली की प्रतीक्षा नगर के नर-नारी वर्षभर करते हैं,
उन्हें निराश करना हमारे लिए असंभव है। आज तक हमने जनसेवा के लिए
बहुत सारे जोखिम उठाए हैं जिसमें हमारी जान जा सकती थी। नहीं उठाते तो आज जनता
हमें इतना प्रेम नहीं दे रही होती। होली पर हमें मौका मिलता है कि हम जनता को उसका
प्रेम ब्याज सहित लौटा दें। ... आप ही बताइये, अगर हम आपके
यहाँ ही होली खेलने नहीं पहुँचे तो भाभीजी को कितना बुरा लगेगा। ... उन्हें निराश
करना असंभव है, भले ही हमारी जान ही क्यों न चली जाए। हम
होली का ये सुन्दर मौका हाथ से जाने नहीं देंगे।
शहर में जलसंकट है। असफल पंडित ने उन्हें जागरूक नागरिक बनाने की
कोशिश की।
जलसंकट तों गरीबों को होता है! ... वैसे भी गरीब
बेचारे नंगे, उसका क्या रंगो!?
होली पर बिगाडऩे के लिए दो लत्ते तो होना ही चाहिये ना? आपको पता है, उनके पास खाने तक को नहीं होता है
त्योहार पर! ... इस लिए बताइये कभी हमने किसी गरीब से होली खेली है? ... चलिये, आपके यहाँ तो पानी आता है ना?
नहीं आता ... पीने के लिये भी नहीं हो पाता है।
इन दिनों तो मेहमानों को भी प्यासा लौटाना पड़ रहा है ...
लेकिन इतना समझ लो हम प्यासे
नहीं लौटेंगे। ... होली के दिन आपके यहाँ एक टेंकर पानी पहुँचा देंगे।... और कोई
दिक्कत?
दिक्कत तो नहीं है लेकिन सभ्यता का तगाजा है कि
जलसंकट के चलते पानी की बरबादी नहीं की जाए ....
सभ्यता का तगाजा सभ्य जानें ।
हम नेता लोगों को इसमें घसीटने की क्या तुक है !?... लाइए, अपना हाथ दिखाइए ये, हम
भी तो देखें आपकी रेखाएँ क्या कहती हैं। लाइए - लाइ ए, दिखाइये।
पंडित के पास कोई उपाय नहीं
था। उन्होंने हाथ आगे किया। भियाजी ने देखा और चौंके ... अरे वाह! इसमें तो धन योग
है! कहते हुए ग्यारह रुपये रख दिये। पंडित
को लगा कि अब द्रौपदी की तरह कृष्ण को पुकारे बगैर काम नहीं चलेगा। लेकिन आएगा
कन्हैया! वो भी तो होली खेल रहा होगा!
संपर्क:
16 कौशल्यापुरी, चितवाद रोड, इंदौर- 452001
मो.09826361533,
E-mail- jc.indore@gmail.com,
http://jawaharchoudhary.blogspot.in/
No comments:
Post a Comment