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Feb 17, 2010

एक सच्चे संत की पुण्य स्मृति


- प्रताप सिंह राठौर
यह निर्विवाद सत्य है कि गेरुआ वस्त्रधारियों के हुजूम में एक सच्चा संत ढूंढ पाना भूसे के ढेर में से सुई ढूंढने से भी ज्यादा मुश्किल है। जिधर देखो उधर ऐसे संतों (?) की भीड़ दिखाई देती है जो धर्मभीरू स्त्री-पुरुषों को सादा जीवन और त्याग का उपदेश देते हुए अपने नाम पर पांच सितारा होटलों जैसी सुख सुविधाओं से युक्त आराम (?) और एयरकंडीशंड कारों के काफिले बनाकर ऐश करते हैं। किसी भी तीर्थ स्थान पर जाइए ऐसे पूंजीवादी संतों की भरमार है। हरद्वार में भी ऐसा ही है। परंतु मैं अपनी पिछली हरद्वार यात्रा में एक सच्चे संत की मधुर स्मृति से अभिभूत हो गया। बचपन की उस स्मृति को आज मैं आपके साथ बांटना चाहता हूं-
मैं अपने जन्म से स्वामी रामानंद जी का स्नेहभाजन रहा हूं। वर्षों से इच्छा थी कि साधना-धाम जाकर स्वामी जी के पुनीत स्मारक के दर्शन करूं और स्वामीजी की पुण्यस्मृति को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। सो स्वामीजी की मेरे परिवार पर स्थायी कृपा के फलस्वरूप सुयोग बन ही गया और मेरी भतीजी का शुभ विवाह संस्कार 15 फरवरी 2007 को हरद्वार में होना निश्चित हुआ, इस प्रकार मुझे साधना धाम के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मैं अपरान्ह 4 बजे साधना धाम की पुण्य स्थली पहुंचा। इस पुनीत स्थल के सौम्य, शांत एवं पवित्र वातावरण में प्रवेश करते ही स्वामीजी के स्नेहमय सान्निध्य में बीते अपने जीवन की मधुर स्मृतियों का मेरे तनमन में ऐसा उफान उठा- ऐसा भावातिरेक हुआ कि आंखे अश्रुपुरित हो गईं। स्वामीजी की मुस्कुराती, स्नेहमय दिव्य छवि तो मन में सदैव ही विराजती है। लगा कि वह दिव्य पवित्र छवि सजीव होकर मेरे सिर को अपने करकमलों से सहला रही है।
मैं तब चार या पांच वर्ष का रहा होऊंगा। यह बात 1946-47 की होगी। मेरे माता-पिता फतेहगढ़ (फर्रूखाबाद) उत्तरप्रदेश निवासी स्व. श्रीमती राजेश्वरी देवी और स्व. ठा. चंदन सिंह राठौर, एडवोकेट स्वामीजी के अनन्य भक्त थे और स्वामीजी के कृपापात्र थे। स्वामीजी हमारे घर ठहरने की कृपा करते थे। स्वामीजी मुझे गोद में उठाकर दुलारते थे, लाड़ प्यार करते थे। मैं स्वामीजी के साथ प्रात: काल गंगा स्नान को जाता था। स्वामीजी गंगाजी में मेरा हाथ पकड़ कर डुबकी लगवाते थे। मेरा बदन भी पोंछ देते थे। कभी- कभी घर पर भी मेरे धूल से सने हाथ- पांव धोकर तौलिये से पोंछ देते थे। स्वामीजी का आसन बाहर बैठक में पड़े एक तख्त पर लगाया जाता था। उसी पर एक थैले में स्वामीजी का पार्कर पेन जिसमें गोल्डन कैप थी, क्विंक दवात और एक छोटा सा होम्योपैथी की दवाइयों का बॉक्स रहता था।
पिताजी के सुबह 10 बजे कचहरी चले जाने के बाद अपरान्ह 4 बजे उनके वापस आने तक मैं स्वामीजी के आस- पास ही खेलता रहता था। स्वामीजी का पेन और होम्योपैथी का बॉक्स मुझे बहुत आकर्षित करते थे। स्वामीजी अनुपस्थिति में मैं उनके पार्कर पेन से उनके लेटरपैड पर अगड़म बगड़म कुछ आकृतियों बना देता था, इंक फैला देता था और होम्योपैथी की शीशियों में से मीठी गोलियां खा लेता था। इन हरकतों पर मेरे माता- पिता मुझे डांटते थे। लेकिन स्वामीजी हंसते थे, इंक से सने मेरे हाथ धो देते थे और प्यार से गोद में बैठा लेते थे। स्वामीजी का मेरे घर पर ठहरना मेरे लिए उत्सव जैसा होता था। मेरा छोटा भाई अजित तब शायद दो वर्ष का था। स्वामीजी उसे भी अपनी गोद में लेकर प्यार करते थे।
मेरी माता जी का स्वामीजी बहुत सम्मान करते थे। उन्हें बड़े आदर से प्रताप की मां कह कर संबोधित करते थे। मेरे पिताजी से स्वामीजी बहुत स्नेह करते थे। मेरे पिताजी हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषाओं में निष्णात थे तथा धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन करते रहते थे। स्वामीजी उन्हें अपना मित्र कहते थे तथा उनसे अंग्रेजी में नियमित पत्र व्यवहार करते थे। बहुत ही सुन्दर हस्तलिपि थी स्वामीजी की। बहुत वर्षों तक मेरे पिताजी को लिखे स्वामीजी के पत्र मेरे परिवार की अमूल्य निधि रहे। स्वामीजी के प्रयाण के उपरान्त संभवतया स्वामीजी के पत्रों के प्रकाशन हेतु संकलक को भेज दिये गये थे।
बहुत ही मधुर, संगीतमय कंठस्वर था स्वामीजी का। संध्या समय होने वाले प्रवचन संकीर्तन की सभा में आसन पर बैठकर आंखे मूंद कर ध्यानमग्न होकर जब स्वामीजी राम का उच्चार करते थे तो वह छवि उस बाल्यावस्था में भी मेरे तनमन को झंकृत कर देती थी। आज भी वह संगीतमय मधुरवाणी मेरे मन में गूंजती रहती है।
उन्हीं दिनों मेरे माता- पिता ने नया मकान बनवाना शुरु किया था। स्वामीजी ने उस प्लाट पर जाकर उस भूमि को अपने चरणरज से पवित्र किया था और मेरे माता- पिता की इस योजना के सफल होने के लिए आशीर्वाद देते हुए कहा था- इस मकान में एक ईंट चांदी की लगेगी तो एक ईंट सोने की लगेगी, कोठी के नक्शे का सबसे महत्वपूर्ण भाग उसका 20x24 का ड्राइंग रूम है जिसमें 8 दरवाजे और एक बहुत बड़ी खिड़की है। इसका यह आकार और इसे इतना हवादार बनाने का उद्देश्य स्वामीजी की साधना गोष्ठियों के लिए उपयुक्त हाल का उपलब्ध होना। मेरे माता -पिता को जीवनभर यह कसकता रहा कि उनकी योजना के परिपूर्ण होने से पहले ही स्वामीजी स्वर्ग सिधार गए।
मुझे वह दुखद दिन भी याद है जब पत्र से स्वामीजी के स्वर्गवास का हृदय विदारक समाचार मेरे माता- पिता को मिला। मुझे अपने माता- पिता की आंखों से बहती अश्रुधारा की स्पष्ट याद है। हम बच्चे भी रोते रहे थे।
स्वामीजी इहलोक से प्रयाण कर गए परंतु मेरे परिवार में वे सदैव आराध्य थे और आज भी हैं। हमारी कोठी के पूजागृह में स्वामीजी का भव्य श्वेतश्याम चित्र अन्य देवी- देवताओं के चित्रों के बीच दैदीप्यमान रहता है।
मैं अपने छह भाई-बहनों में सबसे बड़ा हूं। मेरी दो छोटी बहनों और एक भाई का जन्म स्वामीजी के स्वर्गवास के बाद हुआ। फिर भी हम सभी के हृदयों में पूज्य स्वामीजी की मंगलमय कल्याणकारी छवि सदैव विराजती है। स्वामी जी की हमारे परिवार पर इतनी सघन कृपा और स्नेह के फलस्वरूप ऐसा होना ही था।
जहां तक मेरा विश्वास है तो संत, महात्मा, सन्यासी इन सभी शब्दों का एकमात्र पर्याय पूज्य स्वामी रामानंद जी है।
15.2.2007 के शुभ दिन साधना धाम के पावन परिसर में प्रविष्ट होते ही मुझे महसूस हुआ कि स्वामी जी ने अपने लंबे हाथ बढ़ाकर मुझे उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया है। यह एक दिव्य अनुभूति थी। मैं मंत्रमुग्ध हो गया। प्रण किया कि इस पावन स्थल पर बार-बार जाता रहूंगा। पूज्य स्वामी रामानंदजी के चरणों में शत शत प्रणाम।
सम्पर्क- बी-403, सुमधुर-।। अपार्टमेन्ट्स,
अहमदाबाद- 380015
मोबाइल- 09428813277
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स्वामी रामानंदजी
स्वामी रामनंद जी (1916-52 ) का जन्म ललितपुर (उत्तरप्रदेश) के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता होम्योपैथी के डॉक्टर थे। जन्म के समय उनका नाम शिशुपाल रखा गया। बालक शिशुपाल जब दो वर्ष के थे कि उनकी माता का देहांत हो गया। इसके बाद उनका लालन-पालन उनकी 12 वर्षीय बड़ी बहन और पिता ने किया। कुछ समय बाद यह परिवार तरन तारन पंजाब में आ गया और बालक शिशुपाल की शिक्षा प्रारंभ हुई। शिक्षकों ने पाया कि शिशुपाल एक अत्यंत मेधावी छात्र थे। पंजाब यूनीवर्सिटी की 1933 की मैट्रिक परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान पाकर एक नया रेकार्ड स्थापित किया। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें लाहौर भेजा गया। और वहां भी उन्होंने बीए (आनर्स) संस्कृत में प्रथम श्रेणी के साथ प्रथम स्थान प्राप्त किया। इसी के साथ युवक शिशुपाल के मन में वैराग्य छाने लगा और वे सन्यास लेने की बात करने लगे। उनके परिवार और शिक्षकों की आकांक्षा थी कि वे आई.सी.एस. की परीक्षा में सफल होकर अपनी प्रखर बुद्धि का सदुपयोग करेंगे।
विवेकानंद को आदर्श मानने वाले युवक शिशुपाल ने आई.सी.एस. बनकर विदेशी शासकों के शासन तंत्र की कड़ी बनना अस्वीकार कर दिया और परिवार के आग्रह पर बेमन से एम.ए. संस्कृत में प्रवेश ले लिया। वैराग्य में डूबे मन के बावजूद एम.ए. संस्कृत में भी प्रथम श्रेणी प्राप्त की। इसके एक वर्ष बाद परिवार को मनाने में सफल होकर सन्यासी बन कर सिर्फ एक झोला लेकर वे भारत भ्रमण पर निकल पड़े। स्वामी रामानंद एक यायावर सन्यासी थे और अपने प्रवचनों में अंधविश्वास से बचने और शिक्षा के महत्व का प्रचार करते थे। स्वामी जी ने अनेक पुस्तकें लिखीं और कैलाश की यात्रा की। स्वामी रामानंद ने अपने जीवनकाल में किसी मठ या आश्रम की स्थापना नहीं की। स्वामीजी ने कनखल, हरद्वार में शरीर त्याग दिया। बाद में स्वामीजी के अनुयाइयों ने उनके स्मारक के रूप में कनखल में साधना धाम स्थापित कर दिया है।

2 comments:

vedna said...

rathaur ji, apane ek dam sahi likha ajakal grahastho se jyada sanyasi dhani hain aur unhen dhan ki jaroorat hai aj to unhonne apane niji swarth ke liye vairagya ki bhi nayi -nayi paribhashayen shuru kar dee hain .is bar ki haridwar yatra se mera man bhi atyant hi vichalit ho gaya sanyasiyon ki bhog lipsa dekhakar .

Anonymous said...

बाजारी करण की हवा आज के तथाकथित बाबाओ को लग गयी है..इन्होने असली संतो पर तथा आस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. आपने सही कहा है कि आज सही अन्तो को पहचानना मुश्किल हो गया है.पिछले ही दिनों इच्छाधारी बाबा के कारनामे सुनकर तो होश ही उड गए. सबसे ब्डी बात तो यह कि इन्हे राज नेताओ का आश्रय प्राप्त है.और ये बहुत जल्दी छूट भी जायेगे.