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Apr 1, 2025

अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति

डॉ. रत्ना वर्मा 

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में चल रहे भोरमदेव महोत्सव में वीआईपी कल्चर के विरोध में लोगों ने कुर्सियाँ तोड़ डालीं। इस महोत्सव में इतने अधिक वीआईपी पास बाँटे गए कि आम लोगों को बहुत पीछे कर दिया गया। फलस्वरूप बड़ी संख्या में कार्यक्रम देखने आई आम जनता ने कुर्सियाँ तोड़कर अपना विरोध प्रकट किया। यह कोई पहली बार या नई बात नहीं है कि वीआईपी को प्राथमिकता देने के चक्कर में आम जनता को दरकिनार किया गया हो । 

आजाद भारत के आम नागरिकों का यह दुर्भाग्य है कि चाहे अस्पताल में डॉक्टर से मिलना हो, मंदिर में भगवान के दर्शन करना हो, उसे घंटों लाइन में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है । यहाँ तक कि किसी विद्यार्थी को परीक्षा केन्द्र में समय पर पहुँचना हो,  बस, रेल या हवाई जहाज पकड़ना हो; परंतु किसी चौराहे पर अचानक ट्रेफिक रोक दिया जाता है, कारण किसी अतिविशिष्ठ व्यक्ति को उस मार्ग से गुजरना होता है। भले ही इस कारण से किसी मरीज की जान चली जाए, कोई परीक्षा देने से वंचित रह जाए या किसी की गाड़ी ही छूट जाए। इन सबसे  न राजनेताओं, न बड़े अधिकारी, और उन कुछ अतिविशिष्ट की श्रेणी में आने वाले को कोई फर्क पड़ता।  

वीआईपी संस्कृति का एक दर्दनाक उदाहरण है- कुंभ प्रयाग के संगम में भगदड़ और लोगों की मौत। वीआईपी संस्कृति सिर्फ सत्ता और राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यवसाय, खेल और मनोरंजन जगत में भी बहुतायत से देखने को मिलती है, जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। भीड़भाड़ वाले सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में वीआईपी कल्चर अक्सर आम जनता की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है।  

ऐसा नहीं है कि वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिए चर्चा नहीं होती, इस पर अंकुश लगाने के प्रयास भी होते हैं; परंतु हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2017 में ‘देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है’ कहते हुए मंत्रियों और अधिकारियों की गाड़ियों से लाल बत्ती हटाकर बदलाव लाने की कोशिश की थी। पर यह हम सब जानते हैं कि लालबत्ती हटाना मात्र दिखावा ही साबित हुआ है। इसी तरह वे गणतंत्र दिवस के समारोह में श्रमिकों और कामगरों को विशेष अतिथि का दर्जा देकर भी वीआईपी संस्कृति को बदल नहीं पाए। 

अब तो देखा यह जा रहा है कि राजनेता और अधिकारी पहले से भी अधिक वीवीआईपी बन गए हैं और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए शान से चलते हैं । दरअसल राजनीति आजकल जनसेवा कम, अपनी सेवा ज्यादा हो गई है। यही वजह है कि कानून भी उनके लिए अलग तरीके से लागू किया जाता है, जिससे कानून पर भी उँगली उठने लगी है।  पिछले दिनों न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में मिले नोटों की बोरियों के ढेर ने कई प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। 

 जाहिर है वीआईपी संस्कृति देश की तरक्की को कमजोर करती है। यह असमानता लोकतंत्र के लिए एक बड़ी बाधा है।  विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए कई लोग भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। नेता और अफसर अपने पद का दुरुपयोग कर गैरकानूनी रूप से विशेष सुविधाएँ लेते हैं। इससे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है।

अगर देश को विकासशील देश की श्रेणी में रखना है, तो लोकतंत्र में सबके लिए समानता होनी चाहिए। हमारे सामने दुनिया के कई ऐसे देशों के उदाहरण हैं, जहाँ वीआईपी संस्कृति का चलन नहीं है जैसे - नॉर्वे में प्रधानमंत्री और अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी आम नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। वे बिना सुरक्षा काफिले के सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं और सामान्य नागरिकों की तरह ही लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी प्रकार स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड्स, जापान जैसे कई और भी देश हैं जो वीआईपी संस्कृति से कोसों दूर हैं। जब इन देशों में वीआईपी संस्कृति का प्रचलन नहीं है, तो फिर भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इस संस्कृति को भी खत्म किया जा सकता है।

लेकिन बड़े दुख के साथ कहना  पड़ता है कि हमारे देश में  जनता की बजाय वीआईपी की सेवा को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में जब आम लोग देखते हैं कि कुछ लोगों को विशेष सुविधाएँ मिल रही हैं, तो उनके मन में असंतोष पनपता है। यह असमानता समाज में गुस्से, नफरत और विद्रोह को जन्म देती है। यह भी देखा गया है कि वीआईपी संस्कृति के कारण प्रशासन निष्पक्ष रूप से काम नहीं कर पाता। पुलिस और सरकारी अधिकारी वीआईपी की सुरक्षा और सेवा में लगे रहते हैं, जबकि आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी की जाती है।

 अतः यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर न हो। नेताओं को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, न कि शासक। यदि हमें सच्चे लोकतंत्र की ओर बढ़ना है, तो इस संस्कृति को जड़ से खत्म करना होगा। इसके लिए सरकार, प्रशासन और जनता तीनों को अपनी भूमिका निभानी होगी। जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना होगा, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार मिले, और कोई भी व्यक्ति अपने रसूख के बल पर विशेषाधिकार प्राप्त न कर सके। तभी हमारा देश सही मायने में लोकतांत्रिक देश कहलाएगा।

6 comments:

विजय जोशी said...

आदरणीया
बहुत सामयिक विषय को छुआ है आपने। वी.आई.पी. संस्कृति अंग्रेजी राज की विरासत है, जिसमें और अधिक अभिवृद्धि कर हमारी सत्ता के केंद्रों ने आम जनमानस पर थोप दिया है। कुर्सी मिलते ही मैकाले की ये संतानें हो गईं :
- जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ अति ही इतराय
- प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय
इसके सर्वथा विपरीत विदेशों में यह प्रथा एवं परंपरा सर्वथा अनुपस्थित है। न लाल बत्ती, न सायरन और न ट्रैफिक प्रतिबंधित, भले ही कितना भी बड़ा आदमी गुज़र रहा हो। वहां तो शोफर ड्रिवन गाड़ी का भी चलन नहीं है। और यहां
- शौहरत की भूख हमको कहाँ ले के आ गयी
- हम मोहतरम हुए भी तो किरदार बेच कर
खैर समय भी सुधरेगा और लोग भी सुधरेंगें। ये एक दिन में नहीं होगा, पर एक दिन जरूर होगा।
साहसिक अभियान हेतु हार्दिक बधाई सहित सादर

Anonymous said...

मेरी दुखती रगों को छेड़ दिया रत्ना जी आपने ।आप के इन शब्दों में भारत देश की पूरी जनता की आवाज़ है ।आपका हृदय से आभार ।आपके साहस को प्रणाम करती हूँ।
डाॉ सुनीता वर्मा

Anonymous said...

एक बार फिर सामयिक समस्या को लेकर कलम चलाने के लिए रत्ना जी आप बधाई की पात्र हैं। आपने सही कहा कि कोई भी व्यक्ति क़ानून से ऊपर नहीं हैं। सरकार और प्रशासन से पहले जनता का जागरूक होना सबसे अधिक ज़रूरी है। आपके आलेख से चंद व्यक्ति भी जागरूक हो गए तो जोत से जोत जलती जाएगी ।बस आवाज़ उठाने का साहस चाहिए।बुरी परम्पराओं का अंत तो होना ही चाहिए। अशेष शुभकामनाएँ । सुदर्शन रत्नाकर

डॉ. रत्ना वर्मा said...

आदरणीय जोशी जी , आपके शब्द कि- 'ये एक दिन में नहीं होगा, पर एक दिन जरूर होगा'। हमें ताकत देते हैं और उन लोगों की बोलती बंद कर देते हैं जो हमेशा निराशावादी तर्क दे कर हतोत्साहित करते हैं। आपका आभार और बहुत- बहुत धन्यवाद।

डॉ. रत्ना वर्मा said...

हार्दिक धन्यवाद और आभार सुनीता

डॉ. रत्ना वर्मा said...

हम सब मिलकर जोत से जोत जालाएँगे सुदर्शन जी। आपके प्रेरक शब्दों के लिए कोटिशः धन्यवाद और आभार।