उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Apr 1, 2025

लघुकथाः आदतें

  - सारिका भूषण

"साहब! मिसरी या गुड़ कुछ थोड़ा- सा मिलेगा क्या? आज रोटी नहीं ला पाया। घर पहुँचने में घंटा भर से ऊपर लग जाएगा।"- ठेकेदार के जाते ही, घर की मामूली मरम्मत का काम करने आया वह दिहाड़ी मजदूर, घर के मालिक को बाहर आते देखकर बोला।

"हाँ ... हाँ । क्यों नहीं ... दो मिनट रुको। अभी लाता हूँ।"- रमेश बाबू उसकी धँसी हुई आँखों और सूखे होंठ से नज़रें हटाकर बोले।

दोपहर का भोजन रमेश बाबू कर चुके थे; इसीलिए डाइनिंग टेबल पर रखे कैसरोल खाली हो चुके थे। बाई से उन्होंने आज ही फ्रिज की सफ़ाई करवाई थी; नहीं तो कुछ बासी खाना तो ज़रूर मिल जाता।

"चलो सत्तू ही चार चम्मच घोलकर दे देता हूँ, उस बेचारे को।" - रमेश बाबू ने नमक, मिर्च और नींबू डालकर बड़े प्यार से एक गिलास सत्तू का घोल तैयार कर दिया। उनके हाथ से स्टील का गिलास लेकर वह मज़दूर एक साँस में सत्तू गटक गया। फिर एक मटमैली बोतल से अपनी तृप्त होती आत्मा को झकझोरते हुए, पानी कंठ से उतार लिया।

रमेश बाबू एकटक देखे जा रहे थे।

"ठीक है साहब, चलता हूँ। कल सुबह 8 बजे तक आ जाऊँगा। हाँ! रोटी लेकर आऊँगा। घरवाली को भगवान ने जल्दी बुला लिया साहब! अभी आदत नहीं हुई है, उसके बिना रहने की!"- वह मज़दूर भारी आवाज़ में बोलता हुआ, हाथ जोड़कर निकल गया।

रमेश बाबू को ध्यान आया कि सत्तू के डब्बे का ढक्कन उनके हाथ में हैं। वे झटपट रसोई में गए और ढक्कन लगाकर डब्बे को ऊपर वाली शेल्फ में रखने लगे। अचानक उन्हें डब्बे पर बीवी की हाथों से लिखा हुआ धुँधला शब्द 'बेसन' दिखा और वे कुछ देर के लिए सन्न हो गए।

उनके सामने दो चेहरे थे- एक तो बेसन को सत्तू समझकर पीने वाला वह भूखा मजदूर, जिसको ग़रीबी की आदत लग चुकी थी और दूसरा चेहरा अपनी बीवी का, जिसको भगवान ने कुछ महीने पहले ही अपने पास बुला लिया था, जिसके बिना रहने की आदत अभी तक उन्हें नहीं लग पाई थी। 

Email- reetu.sarika@gmail.com

No comments: