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Apr 1, 2025

किताबेंः समय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति

 - अनुज मिश्रा 

पुस्तकः जवाहरलाल हाज़िर हो ( जेल की सलाखों के पीछे पंडित नेहरू के 3259 दिन); लेखकः पंकज चतुर्वेदी, प्रकाशक: पेंगुइन रैन्डम हाउस इंडिया, वर्ष: 2024, पृष्ठ: 186, मूल्य: ₹ 299, ISBN: 9780143470663

ऐसे दौर में जब देश के पूर्व प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की विरासत और प्रतिमानों को ध्वस्त करने की कोशिश की जा रही हो और ऐसे में पंकज चतुर्वेदी का जवाहरलाल हाज़िर हो, लिखना एक साहसिक कदम तो है ही। इस साहसिक कदम के लिए लेखक जरूर बधाई के पात्र हैं। यूँ तो पंकज चतुर्वेदी प्रकृति और पर्यावरण क्षेत्र में जानी-मानी हस्ती हैं: पर इतिहास पर लिखी उनकी पुस्तक जवाहरलाल हाज़िर हो भी कहीं से कम नहीं है। इस पुस्तक में सहजता के साथ - साथ प्रामाणिकता में भी कहीं कमी नहीं दिखी, जो लेखक की लेखन-शैली को स्थापित करता है।

यह पुस्तक नेहरू जी के 3259 दिनों की जेल यानी जीवन के सवा आठ साल के जेल यात्रा का चित्रात्मक विवरण तो है ही, जो अदालती कार्यों के दस्तावेज पर आधारित है; पर यह स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्त्वपूर्ण विवरण भी देता है। खास बात इस पुस्तक की ये है की नेहरू पर चलाए गए नौ मुकदमों का प्रामाणिक, रोचक और चित्रात्मक वर्णन तो है ही, जिसमें नेहरू साहस और दृढ़ता से ब्रिटिश न्याय व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाते भी दिखते हैं। जब- जब ब्रिटिश मजिस्ट्रेट उनसे सफाई देने के लिए कहता है, उनका उत्तर एक ही होता है: ‘आपकी न्याय व्यवस्था में मुझे कोई विश्वास ही नहीं है’। सफाई में अंग्रेजी व्यवस्था कोई हेरफेर न कर दे इस से बचने के लिए नेहरू लिखित बयान पेश करने की अनुमति माँगते हैं। लेखक ने काफी शोध करके नेहरू के अदालत में दिए गए लिखित बयान को जस का तस इस पुस्तक में पेश किया है, जो उनके तेवर, भारतदर्शन और भारत की आज़ादी पर उनके समर्पण को बताता है।

एक और खासियत इस किताब की ये है, इस पुस्तक से गुजरते ऐसा महसूस होता है कि सिर्फ़ काल और परिवेश बदला है, परिस्थिति सात दशक बाद भी वैसी ही है। कई जगहों पर तो ऐसा प्रतीत होता है, जैसे ये बात आज के हालात पर की गई टिप्पणी हो। चाहे वो किसान आंदोलन का मामला हो या अभिव्यक्ति की आज़ादी का। “बुराई के साथ कोई समझौता या बातचीत नहीं हो सकती, यह संघर्ष लोगों की पूर्ण जीत के साथ ही समाप्त होना चाहिए और हो सकता है” नेहरू जी का यह वक्तव्य आज भी उतना ही सार्थक है। इस पुस्तक ने नेहरू के विचार को पुनः प्रासंगिक कर दिया, जब वे कहते हैं कि “हम अपने बोलने के हक़ को किसी भी क़ीमत पर छीनने नहीं देंगे….किसी भी क़ीमत पर अपने बोलने की आज़ादी के अधिकार को कभी नहीं छोड़ सकते।” नेहरू के ऐसे विचार काल, स्थान और परिवेश के परे दिखता है मानो 1921 में कही बात आज भी उतना ही सटीक बैठती है - “सरकार ने भय, दबाव और आतंक को अपना मुख्य हथियार बना लिया है, जिससे देश के लोगों का दमन हो रहा है, उनकी भावनाओं को कुचला जा रहा है।” जवाहरलाल हाज़िर हो पुस्तक आज के समय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति है। लेखक ने नेहरू की भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में पूरे परिवार पिता वकील मोतीलाल नेहरू और अपनी पुत्री इंदिरा समेत उनकी भागीदारी और उन सब पर जेल में हुए मानसिक और शारीरिक यातनाओं का भी संवेदनशीलता चित्रण किया है। इस चित्रण के जरिए यह बताना भी मकसद था कि जो भी अंग्रेजी शासनतंत्र के अस्तित्व को चुनौती देता, उसका यही हश्र होगा। साथ ही, ये पुस्तक यह भी बताता है कि कठोर से कठोर यातनाएँ भी नेहरू के जज्बे को तोड़ नहीं सकीं; बल्कि हर वे यातना उनके आज़ादी के संकल्प को और मजबूत किया।

आज सोशल मीडिया पर नेहरू के खिलाफ तमाम अनर्गल बातें कही जाती हैं। इस पुस्तक में जिस व्यक्ति पर भोग-विलास और सुविधासंपन्नता का आरोप लगता है, वह कैसे सवा आठ साल तक ब्रिटिश जेलों में (कई बार तो सामान्य कैदी के तौर पर) काटता है, इसका भी विस्तृत विवरण है, जिसमें काल कोठारी में बंद नेहरू पर चूहे का उछल कूद मचाना, उन्हें कैसे हथकड़ी लगाई गईं और उनके ऊपर बदसलूकी का भी जिक्र है।

इस पुस्तक में नेहरू के पारिवारिक संकट, पत्नी की गंभीर बीमारी और बेटी इंदिरा के अंतरधार्मिक विवाह, जो तब सामाजिक अपवाद ही था। इसके बावजूद भारत के स्वतंत्रता संग्राम की लौ को कम नहीं होने दिया, इसका भी वर्णन है।

यह पुस्तक सर्वथा प्रासंगिक रहेगी। इनकी कई वजहें हैं: 1- मुकदमों की विस्तृत जानकारी देने के साथ- साथ ये वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर भी प्रकाश डालता है। 2- हालाँकि पुस्तक का मूल स्रोत अंग्रेजी है; पर इसका अनुवाद पुस्तक की विषय-वस्तु को कहीं से भी कमजोर करता प्रतीत नहीं होता है। 3- हालाँकि प्रथमदृष्टया लगता है कि यह पुस्तक कांग्रेस - समर्थित विचार-धारा से प्रेरित है; पर दरअसल ऐसा है नही। 4- यह पुस्तक दो तरह के लोगों द्वारा अवश्य पढ़ी जानी चाहिए: नेहरू के प्रशंसक तो पढ़ेंगे ही, पर उनसे भी ज्यादा आवश्यक है तटस्थ विचार रखने वालों द्वारा इसका पढ़ा जाना। ऐसा इसलिए की जब नेहरू पर विलासिता और अकर्मण्यता का राजनीति से प्रेरित आरोप लगते हैं, तो उसका सच्चाई से तर्कों के आधार पर न केवल सत्य को स्थापित किया जा सके बल्कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी का डटकर मुकाबला किया जा सके। अगर तटस्थ विचार रखने वालों में थोड़ी भी तार्किकता और संवेदनशीलता बची होगी, तो यह पुस्तक उनकी आँखें खोल देगी। 5- अगर ये पुस्तक नेहरू के साथ जेल की सजा काट रहे लोगों का नेहरू पर उनके विचार को शामिल करता, तो शायद यह पुस्तक और भी रोचक हो जाती।

लेखक ने, जो कि www.indiaclimatechange.com के संपादक हैं, इस पुस्तक को रीसाइकिल पेपर पर प्रकाशित कर पर्यावरण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को ही दर्शाया है।

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