- अपर्णा विश्वनाथ
मनुष्यों ने अपनी बेहिसाब जरूरतों की आपूर्ति और बाकी सुख-सुविधाएँ भी पृथ्वी से प्राप्त की, न कि अन्य ग्रहों से। ऐसा इसलिए भी कि नौ ग्रहों में पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है, जिसमें जीवन जीने के लिए सभी कारक मौजूद हैं।
माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या: अर्थात् ‘पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूँ।’
‘Earth is my mother I am her son’
अथर्ववेद में वर्णित भूमि सूक्तों में यह एक है। जहाँ कहा गया कि पृथ्वी हमारी माँ और हम उनके बच्चे हैं। पृथ्वी को माता के रूप में कहा गया है। हम पृथ्वी की वंदना करते हैं; लेकिन यह सूक्ति आज के समय में सिर्फ सूक्ति बनकर रह गई है। क्यों और कैसे का जवाब हम सभी के जानते हैं।
अति उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति से आज हम धरती की रक्षक की जगह भक्षक बन गए हैं। ज़रूरत से ज़्यादा खाना, पानी, जमीन-जायदाद और अब तो कपड़ा भी; पर हक़ जताने की होड़ में हमने दूसरे के हिस्से के हक़ को छीनना प्रारंभ कर दिया है। मनुष्य ही नहीं बल्कि पृथ्वी पर लाखों ऐसी प्रजातियाँ हैं जो किसी ना किसी रूप में हम मनुष्यों के अति उपभोग का शिकार हो रहे हैं।
मनुष्य हजारों वर्षों से इसी धरती पर रह कर रोटी कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की नींव रखते हुए अपनी सभ्यता और संस्कृति के विकास की निरंतर यात्रा में चल रहा है। विकास की यात्रा ने मनुष्य की अति महत्वाकांक्षी, समाज में व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, नवपरिवर्तन की चाह और खोजी प्रवृत्तियों ने विलासिता को भी जन्म दिया।
समयान्तर में विकास की संस्कृति उपभोगवादी और बाजारवादी की संस्कृति में तब्दील होती चली गई।
दिखावे और विलासिता की होड़ इस कदर हावी हुई कि मनुष्यों ने प्रकृति से छीनना प्रारंभ कर दिया। अंततोगत्वा प्रकृति और पर्यावरण का दोहन करना आदत में शुमार होता चला गया।विस्फोटक, विकराल रूप ले चुकी जनसंख्या की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक क्रान्ति जैसे हरित क्रांति, औद्योगिक क्रांति, श्वेत क्रांति के अलावा समय समय पर अनेकों क्रान्ति हुए। बेशक जिसकी वजह से हम आर्थिक रूप से सुदृढ़ भी हुए हैं। इन्हीं में से एक कपड़ा उद्योग का क्रान्ति भी है।
कपड़ा उद्योग का औद्योगिक क्रान्ति में अहम योगदान था।
हथकरघा की जगह मशीनों ने और हस्तकरघा गृह उद्योग की जगह कारखानों ने ले ली। लेकिन यहाँ भी सिक्के के दो पहलू है। आज हम फैशन की दुनिया के बेताज बादशाह बनने की होड़ में दौड़ तो रहे हैं; लेकिन यह प्रकृति और पर्यावरण पर किस कदर नुकसान पहुँचा रहा है शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं।
तीन-चार दशक पहले अगर थोड़ा सा फ़्लैश बैक में हम देखेंगे हैं तो पाएँगे कि एक साधारण आयवर्ग वाले के यहाँ पूरे परिवार के लिए कपड़े रखने के लिए मात्र एक अलमारी हुआ करती थी। कहने का मतलब यह कि कपड़े सीमित मात्रा में हुआ करते थे। कुछ बाहर के लिए और कुछ शादी-ब्याह के लिए। कपड़ों की खरीदारी शादी-ब्याह या प्रमुख त्योहार पर ही होती थी।आज पर आते हैं। आज कपड़ों की खरीदारी किसी मौके की मोहताज नहीं है। आज चाहे कोई वर्ग के हो, आए दिन कुछ नया के नाम पर कपड़े खरीदते रहते हैं। आज परिवार के हर सदस्यों की अपनी अलमारी है। बड़ों की, बच्चों की अलग-अलग। तो आप कहेंगे कि यह आम बात है, इसमें कौन सी बड़ी बात है। बच्चे, महिलाएँ, पुरुष कोई भी पीछे नहीं इस दिखावे की होड़ में।
कभी सीजन के कपड़े, कभी न्यू कलेक्शन तो कभी क्लियरेंस सेल, लुभावनी छूठ, तो कभी गिफ्ट के चक्कर में हम अनचाही सस्ते कपड़ों की खरीदारी करते हैं। कुछ समय पहनते हैं या कभी कभी तो बिना पहने ही छोड़ देते हैं।
लेकिन इस बार कपड़ों की खरीदारी करते वक्त थोड़ा ठहरिए और विचारिए कि -★क्या हमारे कपड़ों की अलमारी पर्यावरण को प्रभावित कर रही है?
★क्या हम फास्ट फैशन के शिकार नहीं हो रहे हैं?
★फैशन की अंधाधुन्ध भागम-भाग में क्या हम प्रकृति का विनाश तो नहीं कर रहें हैं?
★क्या हम मनुष्य प्रकृति के सबसे बड़े दुश्मन तो नहीं बन रहें हैं?
आप कहेंगे क्यों भाई पैसा मेरा, क्रेडिट कार्ड मेरा। तो फैशन करना मेरी मर्जी और मेरा हक़ बनता है ना।
सही कहा, हम अपने अधिकारों में इस तरह उलझे हुए हैं कि कर्तव्यों के पीछे कभी सोचना क्या ध्यान भी नहीं जाता है। आज पूरी दुनिया ही गैरजरूरी फ़ैशन के पीछे पागलों की तरह सरपट दौड़ रही है। फैशन और शॉपिंग के नाम भारी संख्या में लोग रोज नई पोशाक खरीदते हैं और पुरानी फेंक देते हैं। धन का अनावश्यक अपचय तो है ही इसके अलावा इससे पर्यावरण को भी भारी नुकसान हो रहा है।अब आप कहेंगे कपड़ा फ़ैशन और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक है। बीच में यह प्रकृति पर्यावरण और कर्तव्य से क्या लेना-देना। तो इकोवॉच की सुनिए - जो यूएस की एक न्यूज साइट है (यह पर्यावरण संबंधी मुद्दों के बारे में लोगों को जागरुक कर करती है ) ने तेल इंडस्ट्री के बाद गारमेंट इंडस्ट्री को प्रकृति के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक बताया है। क्योंकि फास्ट फैशन में बहुत ही फास्ट तरीके से हमारे प्राकृतिक जल स्त्रोतों, हवा और जमीं को खराब करना शुरू कर दिया है।
वैज्ञानिकों का भी कहना है कि हमारे फैशन और कपड़ों के चक्कर में दुनिया सबसे ज्यादा गंदी हो रही है। कुल मिलाकर जो कपड़े हमें खूबसूरत दिखाते हैं, वेअसल में दुनिया को गंदा बना रहे हैं।कैसे...?
फास्ट फैशन के नाम पर पूरी दुनिया में लगभग 100 अरब से ज़्यादा कपड़े तैयार होने लगे हैं। आज गारमेंट उद्योग, तेल उद्योग के बाद दूसरा बड़ा करोबार होता जा रहा है। हर देश में लगभग गारमेंट मिलें हैं। जिनमें हजारों तरह के रसायनों का इस्तेमाल होता है।
यह हमारे पर्यावरण को कैसे नुकसान पहुँचा रहा है, यह आप नीचे लिखे बातों से अनुमान लगा सकते हैं -
★दुनियाभर में लोग सबसे ज्यादा सूती (कॉटन) के कपड़े पसंद किए और पहने जाते हैं। इसके लिए कच्चा माल कपास प्राकृतिक तो है, लेकिन इसकी खेती पर्यावरण के लिए नुकसानदेय है। क्योंकि कपास की खेती के लिए तुलनात्मक रूप से ज्यादा पानी, ज्यादा खेती के लिए खाद, ज्यादा कीटनाशक और दूसरे हानिकारक रसायनों की भी बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है। इसके अलावा दूसरे कपास किसी भी फसल के मुक़ाबले धरती की उर्वरक क्षमता को कम करती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक सूती की सिर्फ़ एक टी-शर्ट बनाने के लिए लगभग 2,700 लीटर पानी की खपत होती है। तो आप अनुमान लगा सकते हैं कि हम पर्यावरण को कैसे क्षति पहुँचा रहे हैं।
★कपड़ों को रंग-बिरंगे रासायनिक रंगों से डाइ किया जाता है। बचे हुए डाय नालों से होते नदी और समुद्र में मिलते हैं और साफ पानी को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा कपड़े बनने के प्रोसेस में जहरीले रसायन के अलावा कपड़ों के महीन रेशे कण भी पानी में जाकर विलय होते हैं। यह सभी जल में रहने वाले प्रजातियों के लिए जहर के समान है।इसके अलावा भी अनगिनत नुकसान सीधे प्रकृति और पर्यावरण को झेलना पड़ता है। कपड़ा बनने, इस्तेमाल करने से लेकर फेंकने तक के सफ़र में हर बार और बार-बार हम प्रकृति को प्रदूषित करते हैं।★ Indiatimes.com के एक आलेख में के अनुसार 1 किग्रा. कपड़ा बनने में 23 किग्रा. ग्रीनहाउस गैस का उत्पादन होता है। ये समझना होगा कि जितनी जरूरत है उतनी ही खरीदे ताकि प्रकृति पर अनावश्यक बोझ न पड़े और प्रकृति बची रहे।
★सस्टेनेबल / इको-फैशन
धरती पर कपड़ों के अनावश्यक बोझ तथा इससे होने वाले अन्य नुकसानों को कम करने के लिए सबसे पहले कपड़ा उद्योग को ही सामने आकर कठोर कदम उठाने होंगे और सस्ते फैशनेबल कपड़ों की जगह *सस्टेनेबल (टिकाऊ/ स्थायी) जिसे *इको-फैशन* भी कहा जाता है,कपड़ों के उत्पादन को बढ़ावा देना होगा।
हम हर वर्ष *विश्व पृथ्वी दिवस (World Earth Day) और विश्व पर्यावरण (World Environment Day) मनाते है। पृथ्वी दिवस को मनाने के अनेक उद्देश्यों में एक उद्देश्य मानव निर्मित कपड़ों से प्रकृति को होने वाले नुकसानों से बचाने के लिए उपायों पर विचार को भी अमल में लाया जाना चाहिए। नहीं तो हमारे फैशन की कीमत पृथ्वी को चुकानी पड़ेगी।
इसलिए हमारे पृथ्वी ग्रह तथा पर्यावरण के प्रति दृष्टिकोण में हमें सस्टेनेबिलिटी (टिकाउपन) के मुद्दे पर चर्चाएँ करनी होंगी।
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