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Sep 1, 2023

कहानीः मेरी बगिया

  - निर्देश निधि

आज बड़े ही दिनो बाद तुम्हें पत्र लिख रही हूँ आली,  शायद पिछले बरस इन्हीं दिनों लिखा होगा तब जब देहरी पर बसंत की दस्तक हुई होगी, इस कोकिला का गाना शुरू हुआ होगा और इसने समय से पूर्व ही मुझे जगा दिया होगा। और तुम बरबस मुझे याद आ गए होगे । कैसा विचित्र है तुमसे ये रिश्ता मैं समझ पाने में सर्वथा असमर्थ ही रहूँगी । मेरा कोई सुख तुमसे बताए बगैर पूर्णता नहीं ले पाता और  मेरा कोई दुःख तुम तक पहुंचे बगैर हल्का नहीं हो पाता आली । और तुम कैसे मेरे सारे  सुखों - दुखों को अपना सा अनुभव कर मुझे अपनेपन की अबूझ डोर से बाँध लेते हो। बताओ न आली तुम ऐसा कैसे कर पाते हो ? कहते हैं किसी स्त्री का साथ देने में पुरुष के कुछ विशेष स्वार्थ होते हैं । मैं तुम्हारा कौन सा स्वार्थ पूर्ण कर सकती हूँ आली तब जबकि मैं और तुम उस एक बार के बाद कभी मिले ही नहीं । याद तो तुम्हें भी ज़रूर ही होगी वो मुलाक़ात जब मैं  पहली बार तीव्रगामी शताब्दी से सफर करने निकली थी लखनऊ, अपनी पहली पोस्टिंग जॉइन करने के लिए और मुझे अपना कोच, अपनी सीट कुछ भी तो खोजना नहीं आता था । तुमने बिना मांगे ही मेरी मदद की थी । तुम जैसे मेरे  एक कस्बे की लड़की होने और मेरे घबराहट भरे हाव-भाव को पूरी तरह पढ़ गए थे । कैसा आत्मीय चेहरा लगा  था मुझे तुम्हारा कि इस समाज की भयानक चालबाजियों से पूर्णतः परिचित होने के बावजूद  बिना किसी संशय के तुम्हारे पीछे चल पड़ी थी मैं । और तुमने मुझे मेरी सीट तक लाकर छोड़ ही नहीं दिया था बल्कि मेरे साथ वाली सीट के यात्री से विनती कर अपनी सीट भी बदलकर मेरे पास वाली सीट ले ली थी । और तुम्हारे पूछे बगैर ही कैसे बताना शुरू कर दिया था मैंने कि भैया का अपना इंटरव्यू आन पड़ा था दिल्ली में ऐन उसी दिन जिस दिन मुझे जॉइन करना था लखनऊ में, जिस वजह से मुझे अकेले आना पड़ा, बचपन में पापा की पोस्टिंग कहाँ - कहाँ रही और हमारी पढ़ाई उनके आए दिन होने वाले स्थानांतरण से कैसे – कैसे प्रभावित हुई और  माँ हमें लेकर हमारे छोटे से कस्बे में रहने लगीं , कैसे छोटे भैया से बात - बात में मेरी टशल चलती, बड़ी जीजी को कॉलेज जाने की आज़ादी नहीं मिली, जब मैं देर रात तक जाग – जाग कर पढ़ती तो माँ कैसे सुबह मेरे  देर तक सोने के जतन करतीं  और भी न जाने क्या – क्या बता डाला था मैंने उन चार पाँच घंटों में ही तुम्हें और तुम ऐसे सुनने लगे थे जैसे उस वक्त सबसे ज़रूरी तुम्हारे लिए वही सुनना था । उसी दिन से शुरू हुआ था सिलसिला मेरे सुखों और दुखों का तुम तक पहुँचने का । पर आली आज मैं न तो तुम्हें अपने किसी सुख- सपन में ले जा रही हूँ और न कोई दुःख सुनाकर तुम्हारी उदारता को उदासी में डुबो रही हूँ । आज न तुम सुनो, मेरी बगिया का मेरे घर के लोगों के व्यवहार में विलय ।

देखो ना आली आज फिर इस कोकिला की बच्ची ने मुझे सुबह – सुबह  पाँच बजने से भी पहले ही जगा दिया है और हमेशा की तरह सुबह उठकर मुझे तुम याद आ गए । पता है आली ये कोकिला ना माँ के बिल्कुल उलट है । जब मैं पढ़ाई कर, थक कर देर से सोती माँ दिन निकलने से पहले ही मेरे कमरे में दबे पाँव आतीं और धीरे से पर्दे सरकातीं कि कहीं से भी उसूल का पक्का और निर्दयता तक समय का पाबंद सूरज अपनी कोई मरियल सी किरण भी ना फेंक पाये मुझ तक । पर ये कोकिला है ना आली  हमेशा जामुन के पेड़ के घने छत्ते में दुबक कर बैठती है और कुहु - कुहु - कुहु - कुहु । एक ही बात कहते - कहते थकती भी तो नहीं, मैं कितनी भी देर से क्यों न सोई होऊँ उसकी इस मीठी मनुहार पर बिस्तर छोड़कर लॉन में आए बगैर रह ही नहीं पाती । इसे नहीं पता आली अगर माँ यहाँ होतीं तो शायद इसे भी उड़ा देने की कोशिश किया करतीं, मेरी नींद पूरी होने देने के लिए । अब भी कुहु - कुहु ? अरे अब तो चुप हो जा अब तो मैं आ गई । पर नहीं, शायद अब वो सूरज को बुला रही है। और देखो न आली वह भी उसका आज्ञाकारी सा आसमान के पूर्वी कोने में गुलाबी रंग लुढ़काकर अपने आगमन की सूचना देने लगा, मान गई मैं तो इसे। इसके लिए क्या सूरज क्या और क्या बसंत जिसे चाहे उसे कान पकड़ कर अपने साथ ले आती है । इस बसंत के झूमते यौवन को देख तो जैसे मदन सब प्राणियों को बोरा देने पर तुल आया हो । शिव मंदिर के घंटों की ध्वनि दूर से आकर कानों से टकरा रही है जैसे बता रही हों कि महादेव हैं न इस कलियुग के बेलगाम बसंत की मादकता पर नकेल कसने के लिए । बसंत के दिनों में तो जब तक ख़ासी धूप न चढ़ आए, तब तक अंदर जाने का तो मन ही नहीं होता ।

मैं डॉक्टर साहब से हमेशा यही कहती हूँ कि बाबू जी कितने दूरदर्शी रहे होंगे ना जो इतने बरसों पहले ही गाँव से आकर शहर में बस गए । उस समय कौड़ियों में उनके द्वारा खरीदी जमीन आज करोड़ों की हो गई है, कितना अच्छा किया था न उन्होंने तुम सब भाइयों के लिए । इतनी बड़ी जगह के कारण ही तो हम इतना लंबा ट्रेक बनवा सके जॉगिंग और वॉकिंग के लिए । ये पेड़ पौधों की घनी कतारें कहाँ हाथ आती हैं आम आदमी के जो हमारे परिसर में हैं ।

घर से निकलते ही जिस जामुन के दर्शन होते हैं उसे बाबूजी ने अपने हाथों से रोपा था । मैंने बाबूजी को कभी देखा तो नहीं, पर सच कहूँ तो इस जामुन के माध्यम से हजारों बार साक्षात्कार हो चुका है उनसे और अब मैं भी उतनी ही परिचित हूँ उनसे जितने उनके बेटे और बेटियाँ। सुबह जल्दी जागने वाले बाबूजी जैसे रोज कहते हैं- सिद्धु बिटिया तू बड़ी रानी है । सब सो रहे हैं बस एक  तू ही जग रही है मेरी सेवा में। इस जामुन के रूप में इतने डेने पसार लिए हैं उन्होने, जैसे कह रहे हों बच्चों मैं हूँ तुम्हारे सिर पर साया आज भी, तुम जियो निश्चिंत होकर । ये जामुन साया ही नहीं फल भी मीठे और बेशुमार देती है। माँ बताती थीं कि  ये अगेती जामुन है जब तक दूसरी जामुनों पर फल आने शुरू ही होते हैं ये उन्हें पकाकर टपाटप बरसाना भी शुरू कर देती है, जैसे बाबूजी अपने बच्चों को सबसे पहले बाँट देना चाहते हैं मीठे – मीठे, मधुर फल । तुम मानते नहीं हो आली पर सच मानना, एक बार बोगनवीलिया इसकी जड़ों से होकर फुनगियों तक जोंक की तरह चिपक गई थी । गुलाबी फूलों की दमक से अलग काँटों की कसक से लहूलुहान हो गई थी जामुन की काया । तभी एक दिन बाबूजी मेरे स्वप्न में आए और कहने लगे सिद्धू बिटिया मुझे दूसरे कपड़े ला दे मेरे पूरे शरीर में कांटे से चुभ रहे हैं, मैं सो नहीं पा रहा हूँ बच्ची । सुबह उठकर न जाने क्यों सबसे पहले मैं जामुन की तरफ ही तो भागी थी । ध्यान से देखा तो उसके कांतिहीन पात त्राहि - त्राहि कर मेरी ओर देख रहे थे जैसे बाबूजी काँटों में लिपटे खड़े थे । मैंने उसी दिन अपने माली चन्दन को बुलाकर जामुन को उन भयानक काँटों से निजात दिलाने की प्रक्रिया आरंभ कर दी थी । कई दिन लगे कई लड़कों ने मिलकर हटाया था बोगनवीलिया को । लड़के भी सारे छिल गए थे पर कितने फल आए थे उस बरस। लॉन की घास भी उनके लगातार टपकने से पीली पड़ गई थी । उसी बरस तो हुआ था शिशु का सलेक्शन भी आई आई टी में। जैसे बाबूजी ने अँजुरियाँ भर- भर निरंतर आशीर्वाद बरसाया था घर पर । तब से तो इस जामुन के सामने से गुजरते समय मेरी ओढ़नी रोज खुद - बख़ुद सिर पर जाने लगी थी ।   

पिछले बरस माँ भी कूच कर गईं बाबू जी का साथ देने के लिए और जामुन की ही तरह अब माँ के रोपे नीम से भी मैं माँगने लगी हूँ आशीर्वाद । और सच कहूँ तो माँ भी जरा कंजूसी नहीं करतीं उसे देने में । कितनी समानता है माँ और नीम में जैसे नीम की कड़वी - कड़वी पत्तियाँ और उसके कड़वे फल, पर कोई खाए तो उसके शरीर के सब विकार खत्म । ऐसी ही थीं माँ की बातें भी कड़वी लगने वाली, पर मीठा फल देने वाली । उनकी बातों का भी कोई मर्म समझ जाए तो जीवन सुधर जाये । मैं बच्चों और डॉक्टर साहब से रोज यही कहती हूँ । वे बताते हैं कि बाबूजी अपने पेड़ पौधों को रोज संगीत सुनवाते थे । सुबह ही हाथ में ट्रांज़िस्टर लेते और पहुँच जाते लॉन में और गर्मियों की छुट्टियों में सारे बच्चों को भी बुला लेते, घास निकलवाते, निराई करवाते उसके बदले सबको चवन्नी देते । वे भी पेशे से डॉक्टर थे। कई बार तो माली की अनुपस्थिति में तहमद ऊपर पलटकर क्यारियों में इस तरह जुटे रहते कि रोगी उन्हीं से पूछ बैठता, “माली भैया डॉक्टर साब हैं क्या ?” बाबूजी हल्का सा मुसकुराते और थोड़ी देर प्रतीक्षा करने के लिए कहते फिर हाथ मुँह धोकर कपड़े बदलते और दवाखाने आ जाते, न रोगी उनपर माली होने का शक कर पाता, ना वो खुद कुछ बताते।

जेठ जी भारतीय सेना में थे, उन्हें भी तो मैंने कभी नहीं देखा, हाँ इतना जरूर पता है की वो थे बेहद सज्जन, सुंदर, हट्टे – कट्टे, उदारमना और अपने छोटे बहन - भाइयों के साथ - साथ अपने परिवार सहित अपने समाज और अपने देश तक को बेहद प्यार करने वाले। कहते हैं कि उनकी मृत्यु के लगभग छह माह पूर्व से उनके  लगाए दो पाम में से एक सूखना शुरू हो गया था तब किसी ने नहीं सोचा था क्या अनहोनी होने जा रही थी । नहीं पता था कि बार्डर पर पड़ोसी सेना इस तरह घुसपैठ करेगी कि अकस्मात हमारा घर अपनी सबसे बड़ी संतान खो बैठेगा, कहते हैं कि वो हारे नहीं थे उन्होंने दुश्मन की पूरी चौकी उड़ा दी थी । पर हाँ एक पाम पूरी तरह सूख गया था, फिर भी ये बचा हुआ पाम उनकी याद दिलाने के लिए पर्याप्त है । सुबह - सुबह इसके पास से गुजरना हेंडसम जेठ जी का आशीर्वाद लेने से कम तो नहीं । जैसे सतर खड़े हों वो अद्यतन देश की सीमा पर मुस्तैद और हम नगर बाशिंदों को कोई डर पालने की जरूरत ही न हो । इस लंबे - तड़ंगे पाम की काया पर बने घेरे जैसे जेठ जी को वीरता के लिए मिले अनेक तमगे हो । शायद जानते थे जल्दी जाना है इसी लिए विवाह में इतनी आनाकानी करते रहे । उस बार बाबूजी ने लगभग तय ही कर दिया था पर, उस बार तो आनाकानी करने के लिए भी जीते - जागते वापस नहीं लौटे । कहते थे कि मैं अपने भाइयों के लिए काजू बादाम कि बोरियाँ डलवा दिया करूँगा माँ, तुम देखना तो । कैसी मन से इच्छा की कि समय से पहले ही मरकर भी तमाम मुआवजे दिला गए घर को । माँ ने किसी से बिना पूछे कहे डॉक्टर साहब और देवर जी के लिए तमाम सारे मेवे मँगा दिए थे और जीवित बचे पाम की बड़ी- बड़ी पत्तियों का रंग कुछ गहरा सा गया था । उस बार नई पत्तियाँ समय से कुछ पहले ही फूट पड़ीं थीं उस पर । आज तक भी जेठ जी के बारे में जो भी बात करता है बस उनकी प्रशंसा ही करता रह जाता है । यहाँ तक कि रिश्ते नाते वाले, आस पड़ोसी, रिक्शे वाले, जूते वाले सब । पिछले बरस तब जबकि उन्हें शहीद हुए कम से कम अड़तीस बरस हो गए मैं जूते खरीदने गई तो दुकानदार भाई साहब का जिक्र करके आँखों में आँसू ले आया । छोटे शहर की वजह से सब आपस में एक - दूसरे को जानते हैं और अभी तो महानगरों की एक - दूसरे को ना पहचानने वाली महामारी से थोड़े - बहुत बचे रह गए हैं। उस दिन मैं भाई साहब के व्यक्तित्व की जादूगरी मान गई थी । सेना में देर से गए थे न; इसलिए अपने शहर के लोगों के दिलों में भी खूब रच बस कर गए। कहते हैं आत्मा कभी मरती नहीं सिर्फ शरीर बदलती है । हो न हो भाई साहब ने इस पाम को ही अपना नया शरीर चुना हो।

डॉक्टर साहब भी पेड़ों के घने शौकीन हैं, किसी बच्चे का जन्मदिन हो या मेरा, पौधों का उपहार देना कभी नहीं भूलते । मेरे तीस बसंत पार कर लेने पर तीसा खीसा की निर्मम कहावत को सिरे से खारिज कर देने के लिए इन्होंने मेरा वह जन्मदिन कुछ विशेष ही रोमांटिक होकर मुझे हरसिंगार भेंट करके उत्सव की तरह मनाया था, मेरा सुगंधियों से प्रेम अच्छी तरह जानते हैं ना । अब इस हारसिंगार की छतरी घनी पत्तियों और उनसे भी अधिक लदे और महकते फूलों से ऐसी झूमती है कि ये तो इसे देखकर फूले नहीं समाते हैं। खुद की तरह ही है ना, दिन भर काम में मशगूल अपने मरीजों की सेवा में जुटे जैसे घर में किसी को जानते ही ना हो, कोई अपनी महक ही न हो परंतु रात के आते ही काम से अवकाश और सुबह तक का सारा समय पूरी हंसी - खुशी के साथ परिवार का। ऐसा ही ये हरसिंगार है, दिन भर खड़ा रहेगा चुपचाप एक - एक कली को बंद कर खरखरे पत्तों में समेटे, साँझ होते ही ऐसी सुगंधियाँ बिखेरगा की सँभालो खुद को मदहोश होने से । और कहीं इसके नीचे खड़े हो गए तो प्रेमी बन ऐसी झड़ी लगाएगा जोगिया डंडी वाले सफ़ेद फूलों की कि मन मोहित हुए बगैर रह ही ना पाए । डंडी भी जोगिया यूँ रख ली होंगी कि कहीं खड़े होने वाला अपनी पूरी सुधबुध ही ना खो दे । खूब सोच समझ कर दिया था इन्होंने मुझे उस समय ये उपहार, हरसिंगार की ख़ुशबुओं में लिपटी मैं और मुझसे समाया इनका अनंत प्रेम, सचमुच ही बेजोड़ ।

और मेरे स्टाइलिश देवर जी का रोपा हुआ ये खूबसूरत अरिकेरिया लॉन के सारे पौधों मे न्यारा ही दिखाई देता है जैसे उनके करीने से काढ़े हुए बाल और सजा - संवारा व्यक्तित्व । चारों तरफ फैली उसकी शाखाएँ, उन पर नन्ही - नन्ही कुछ नरम से काँटों वाली एक - एक पत्ती सजी – सँवरी जैसे अपनी राजसी शान के साथ खड़े हों स्वयं देवर जी । और ननद जी का रोपा हुआ ये लाल गुलाब , वाह इसके तो क्या कहने जैसे वो खुद लिपटी रहतीं सुगंधियों में वैसा ही है उनका ये गुलाब । खुद तो ससुराल चली गईं परंतु अपना प्रतिनिधि छोड़ गईं, इसके रूप में । जैसे खुद मेरी साड़ी का पल्लू पकड़ कर खींच लेती थीं न ठीक ऐसा ही बिगड़ैल है ये भी, जरा सा इसके पास आँचल लहराया नहीं  कि बस उलझा लेगा अपने काँटों में पर न जाने क्यों इसके कांटे भी मुझे काँटे नहीं लगते बल्कि ननद जी का अपने मुलायम हाथों से मेरा आँचल थाम लेना सा लगता है। 

पता है आली मेरे बच्चों ने क्या रोपा है । वे दोनों तो चमन के साथ नर्सरी जाते हैं और जिस पौधे पर फूलों के खिलने का सीजन होता है न उसी को लाकर रोप देते हैं हर बार । प्रतीक्षा का समय ही कहाँ है इन बुलेट ट्रेन से भागते बच्चों के पास । पर ये संतोष का विषय है कि कम से कम रोपते तो हैं । ये नहीं पूछोगे आली कि मैंने वहाँ क्या रोपा ? मैंने लॉन में तो कुछ नहीं रोपा, पर घर के पिछले हिस्से में बीचो - बीच एक गुलमोहर और दोनों बाहरी सिरों पर दो शीशम रोपी हैं। जब - जब गुलमोहर पर बहार आएगी वो नयनाभिराम सौंदर्य से लदा रहेगा ही अन्यथा उसकी घनी छाँव तो घर पर हमेशा बनी ही रहेगी और शीशम उनको तो मैंने धरती माँ को समर्पित किया है उसके स्वास्थ्य का ध्यान रखेंगी वो दोनों ।

तुम्हें याद है आली या तुम भूल गए कि तुम भी तो मुझे कोई पौधा देने वाले थे, वादा किया था तुमने बरसों पहले । बताओ न कब दोगे ? मेरे लॉन में तुम्हारे वाले पौधे की जगह अभी तक रिक्त है आली.........       

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email – nirdesh.nidhi@gmail.com  


1 comment:

Anonymous said...

प्रकृति से जोड़कर रिश्तों की सुंदर कहानी। सुदर्शन रत्नाकर