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Sep 1, 2023

आलेखः बोलियों में निहित हिन्दी की शक्ति

  - डॉ. सुरंगमा यादव

    शाब्दिक दृष्टि से ‘हिन्दी’ शब्द का अभिप्राय हिन्द या भारतवर्ष में प्रयुक्त किसी भी भाषा के लिए हो सकता है; लेकिन आज सामान्य अर्थ में इसका व्यवहार उत्तर भारत के मध्य देश की उस भाषा के अर्थ में किया जाता है जिसका विस्तार पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर-पश्चिम में अम्बाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल की तराई, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण-पूर्व में रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खंडवा तक फैला हुआ है। इसे हिन्दी-भाषी क्षेत्र भी कहा जाता है। इस भू-भाग के आधुनिक साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं, शिष्ट वार्तालाप तथा शिक्षा का माध्यम मानकीकृत खड़ी बोली हिन्दी है। सामान्यतया हिन्दी शब्द का प्रयोग जन साधारण इसी अर्थ में करता है। भौगोलिक विस्तार के कारण आम बोलचाल में एक क्षेत्र की हिन्दी दूसरे क्षेत्र की हिन्दी से पर्याप्त भिन्नता रखती है। इस भिन्नता का कारण क्षेत्रीय बोलियाँ हैं। वास्तव में हिन्दी-भाषा है क्या? इस पर विचार करना आवश्यक है। हिन्दी-भाषा विभिन्न उपभाषाओं और बोलियों का समुच्चय व संश्लिष्ट रूप है। इसके अन्तर्गत पाँच उपभाषाएँ तथा कुछ समय पूर्व तक 18 बोलियाँ समाहित थीं, जिनकी संख्या आज 17 रह गई है। मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है। ये पाँच उपभाषाएँ और उनकी बोलियाँ इस प्रकार हैं- 1-पश्चिमी हिन्दी - खड़ी बोली, ब्रजभाषा, हरियाणवी, बुन्देली, कन्नौजी, 2-पूर्वी हिन्दी-अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, 3-राजस्थानी- मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी, 4-पहाड़ी- नेपाली, गढ़वाली, कुमाऊँनी, 5-बिहारी- भोजपुरी, मगही। हिन्दी कोई अलग भाषा नहीं है बल्कि इन्हीं उपभाषाओं और बोलियों का समन्वित रूप है या इनके समूह का नाम हिन्दी है। हिन्दी की इन्हीं बोलियों में से एक खड़ी बोली को मानकीकृत कर राजभाषा हिन्दी का दर्जा दिया गया है या दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बोलियों के इस समूह का मुखिया खड़ी बोली को बनाया गया है;  लेकिन ऐसा होने से न हिन्दी अपनी बोलियों से पृथक हो जाती है और न ही बोलियों का महत्त्व कम हो जाता है। वास्तव में बोलियाँ ही तो हिन्दी की शक्ति हैं। उनके बोलने वालों की संख्या और उनके साहित्य के दम पर ही तो हिन्दी बहुसंख्यक जन की समृद्ध भाषा के रूप में गौरवान्वित है। हिन्दी और उसकी बोलियाँ एक सूत्र में बंधें हुए लकड़ी के उस गट्ठर के समान हैं जो एक-दूसरे को बल प्रदान करती हैं। जब-जब उसमें से कोई लकड़ी खींची जाएगी,  तब-तब पकड़ भी ढीली होगी और शक्ति भी क्षीण होती जाएगी। गट्ठर की भी और पृथक् की गई लकड़ी की भी। इधर संविधान की आठवीं अनुसूची में हिन्दी की बोलियों को शामिल कराने की होड़- सी चल पड़ी है। पहले मैथिली हिन्दी परिवार से पृथक् हुई और अब भोजपुरी और राजस्थानी को भी अलग करने का प्रयास हो रहा है। ये या तो कोई षड्यंत्र है या फिर इसके दूरगामी परिणामों पर विचार नहीं किया जा रहा है। आज अपने संकीर्ण राजनैतिक, साहित्यिक तथा क्षेत्रीय स्वार्थ पूर्ति के लिए उस हिन्दी को कमजोर बनाया जा रहा है, जो देश की एकता की प्रतीक है। अपने एक हजार वर्ष के इतिहास में जिन विविध भाषा रूपों के सम्मिश्रण से हिन्दी एक मानक भाषा के रूप में विकसित हुई थी, उसमें बिखराव प्रारम्भ हो गया है। आज जो माँग हिन्दी की इन बोलियों के लिए उठ रही है, कल अन्य बोलियों के लिए भी उठने लगेगी। जिसका परिणाम ये होगा कि जनगणना के समय इन भाषाओं को बोलने वालों की गणना हिन्दी से पृथक् की जाएगी और आँकड़ों में हिन्दी बोलने वालों की संख्या घटती जायेगी। प्रो. सूर्यप्रसाद दीक्षित के अनुसार - “यदि इसी तरह हिन्दी की भाषाएँ/बोलियाँ अलग होती चली गईं, तो हिन्दी बोलनेवालों की संख्या 72करोड़ से घटकर 7 करोड़ रह जाएगी और तब हिन्दी केवल खड़ी बोली रह जाएगी।’’ हिन्दी का विस्तृत क्षेत्र और साहित्य संकुचित हो जाएगा। हिन्दी की विशाल साहित्यिक परम्परा लगभग डेढ़ सौ वर्षों में सिमटकर रह जायेगी। हिन्दी में विद्यापति, चन्दरवरदाई, कबीर, रहीम, जायसी, मीरा, सूर, तुलसी, बिहारी, भूषण आदि भी अलग-अलग क्षेत्रों में बँट जाएँगे। हिन्दी की विभिन्न बोलियों के साहित्य में हमारे देश के अलग-अलग स्थानों की आंचलिक संस्कृति, रीति-रिवाज व आचार-विचार समाहित हैं। हिन्दी साहित्य नई पीढ़ी को विविधवर्णी संस्कृति का ज्ञान कराकर राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने का कार्य करता है।

आज जनसंख्या की दृष्टि से विश्व में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या दूसरे स्थान पर है। इसी आधार पर हम संयुक्त राष्ट्र संघ में आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी को सम्मिलित करने की माँग कर रहे हैं। जब हमारे पास संख्या बल ही नहीं होगा, तो हमारी माँग में क्या दम रह जाएगा। हिन्दी की बोलियों का विकास अवश्य होना चाहिए;  किन्तु भाषा के विघटन के रूप में न होकर भाषा के संवर्द्धन के रूप में। बोलियों को अपने विकास के लिए अधिकाधिक अवसर मिलने चाहिए। इनकी अकादमी स्थापित हों, पाठ्यक्रम में विभिन्न स्तरों पर इनका साहित्य सम्मिलित किया जाए, जैसे हिन्दी में कुछ बोलियों का साहित्य सम्मिलित है। इसी प्रकार अन्य बोलियों का साहित्य भी जोड़ा जाना चाहिए। उनका मानकीकरण हो, उत्कृष्ट कोटि का साहित्य सृजन हो, पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो तथा फिल्म निर्माण हो,  ताकि वे समृद्ध हो सकें। इन बोलियों के भाषाशास्त्रियों, साहित्यकारों तथा विद्वानों के लिए सम्मान-पुरस्कार आदि की व्यवस्था हो। जो हिन्दी के अन्तर्गत ही बोलियों के लिए पृथक् से दिये जाएँ। भाषा और बोली के वैमनस्य को खत्म करने के लिए हमें संकुचित मानसिकता से ऊपर उठकर सोचना होगा। भारत विभाजन का दंश हम झेल ही रहे हैं। यदि हम नहीं चेते, तो भाषा विभाजन की पीड़ा भी हमें क्षेत्रीय, प्रादेशिक, राष्ट्रीय और वैश्विक कई स्तरों पर कई रूपों में झेलनी होगी। आज हिन्दी पूरे देश में सम्पर्क भाषा के रूप में बोली व समझी जा रही है। हम देश के किसी भी कोने में चले जाएँ, हिन्दी बोलकर अपना काम चला सकते हैं। हिन्दी हमें एकता के सूत्र में बाँधने की अद्भुत सामर्थ्य रखती है। अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में कितनी ही संस्थाएँ और समितियाँ हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य कर रही हैं और हम हिन्दी भाषी क्षेत्र के होते हुए भी अपनी ही देशव्यापी और विश्वव्यापी हिन्दी को संकुचित कर रहे हैं। हिन्दी हिन्दुस्तान की पहचान है। हिन्दुस्तान का नाम लेते ही यहाँ की भाषा के रूप में हिन्दी ही जेहन में आती है। प्रत्येक देश की एक घोषित राष्ट्रभाषा होती है, हमारे यहाँ वह भी नहीं है। कितनी बड़ी विडम्बना है कि एक विदेशी भाषा के कारण इतने विशाल और गौरवशाली देश में राष्ट्रभाषा के पद पर कोई भाषा प्रतिष्ठित नहीं है और हम सबसे प्रबल दावेदार को ही कमजोर बना रहे हैं। सर्वप्रथम हिन्दी को  ‘राष्ट्रभाषा’ का गौरव संवैधानिक रूप से प्रदान किया जाये तत्पश्चात् इस सूची में कितनी ही क्षेत्रीय भाषाएँ और बोलियाँ सम्मिलित हों देश के हिन्दी प्रेमियों को इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी। हिन्दी को राष्ट्रभाषा और पूरे देश की राजभाषा बनाये जाने के लिए सभी राज्यों का सहमत होना आवश्यक है। स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी ये सहमति न बनी है और न इसकी कोई संभावना है। अतएव इस व्यवस्था पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। भारत में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है। लोकतन्त्र में बहुमत निर्णायक होता है। शत-प्रतिशत सहमति आवश्यक नहीं है। भाषायी संकीर्णताओं से निकलकर सर्वप्रथम हमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन कराने के लिए एकजुट प्रयास करना चाहिए। अन्यथा हम नूर लखनवी के शब्दों में, ‘‘इतने हिस्सों में बँट गया हूँ मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं।’’ कहकर हाथ मलते रह जायेंगे।

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सम्पर्कः महामाया राजकीय महाविद्यालय, महोना, लखनऊ (उ. प्र.)


1 comment:

शिवजी श्रीवास्तव said...

सुचिंतित आलेख,हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के विषय मे अनेक बिंदुओं को स्पर्श करते हुए हिंदी के मार्ग के अवरोधों को स्पष्ट किया है।सच है आठवीं अनुसूची में बढ़ती बोलियों की संख्या हिंदी की स्थिति को कमजोर ही करेंगी।बधाई डॉ. सुरंगमा जी।