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Sep 1, 2023

. अनकहीः हिन्दी कब बनेगी हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा?

  - डॉ. रत्ना वर्मा
जब संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा का परिणाम आया, तो मीडिया में तहलका मच गया । परिणाम आने पर पास होने वालों की सूची तो प्रतिवर्ष प्रकाशित और प्रसारित होती है; पर इस बार मामला कुछ दूसरा ही था– कारण 45 उम्मीदवारों ने हिन्दी माध्यम से यह परीक्षा पास करके उस धारणा को तोड़ा है कि आईपीएस और आईएएस बनने के लिए अंग्रेजी भाषा का जानना आवश्यक है।  ज्ञात हो कि इस बार हिन्दी माध्यम के से जिन 45 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी थी, उनमें से 29 उम्मीदवारों ने वैकल्पिक विषय के रूप में हिंदी साहित्य लेकर यह कामयाबी हासिल की है। 

यह खुशी की बात है कि अब कुछ धारणाएँ टूट रही हैं और लोग अपना देश अपनी भाषा के महत्त्व  को समझने लगे हैं; पर दु:खद पहलू यह भी है कि हम हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने को लेकर एकमत नहीं हो पाए हैं और यही वजह है कि दुनिया भर में आज भी हम अपनी बात अंग्रेजी में ही व्यक्त करते हैं। हिन्दी जानते हुए भी लोग हिन्दी में बोलने, पढ़ने या काम करने में हिचकते हैं, जबकि अन्य देशों के नागरिक अपनी मातृभाषा में बोलना गर्व की बात मानते हैं 

यही नहीं, ज्ञानवान् और बुद्धिमान् होने का मतलब भी अंग्रेजी जानने से लगाया जाता है, यानी जो अंग्रेजी बोल और लिख लेता है, वही पढ़ा- लिखा और काबिल माना जाता हैं। तभी तो विभिन्न परीक्षाएँ भी अंग्रेजी में ही ली जाती हैं और पढ़ने वाले बच्चे भी यही सोचते हैं कि यदि हमें अंग्रेजी नहीं आएगी, तो हम अच्छी नौकरी, ऊँचे पद पर नहीं पहुँच पाएँगे। दरअसल शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी को प्राथमिकता न दिए जाने के पीछे एक अहम कारण है- उच्च शिक्षा में हिन्दी की अच्छी पुस्तकों का अभाव। विज्ञान, चिकित्सा, कानून और अन्य तकनीकी शिक्षा में जितनी भी पाठ्यक्रम की किताबें हैं, सब अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध हैं।  इसका कारण है, हिन्दी को माध्यम न बनाना। हिन्दी अगर शिक्षण का माध्यम नहीं है, तो कोई लेखक हिन्दी में पुस्तक किसके लिए लिखेगा, प्रकाशक किसके लिए छापेगा? इसके लिए ज़रूरी है कि हिन्दी को भी शिक्षण और परीक्षा का माध्यम बनाया जाए। जिस दिन माध्यम बना देंगे, एक महीने से भी कम समय में पुस्तकें बाज़ार में आ जाएँगी।

इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि भारतीय संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिला है। हिन्दी एक राजभाषा है, राज्य के कामकाज में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने को लेकर 1946 से 1949 तक संविधान को बनाने की तैयारियाँ शुरू कर दी गईं थीं। सबसे ज्यादा विवादित मुद्दा रहा कि संविधान को किस भाषा में लिखा जाना है, किस भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा देना है; परंतु सभा में दक्षिण के प्रतिनिधि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने को लेकर अपना विरोध प्रकट कर रहे थे। फलस्वरूप हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई, जबकि साल 1918 में महात्मा गांधी ने एक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दौरान हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की बात कही थी। 

 

मुश्किल आज भी वही है सर्वधर्म समभाव वाले भारत देश में पूर्व से लेकर पश्चिम तक, उत्तर से लेकर दक्षिण तक अनेक बोलियाँ और अनेक भाषाएँ बोलने वाले लोग हैं और सबको अपनी बोली अपनी भाषा से प्यार है; परंतु देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए किसी एक भाषा पर तो सहमति बनानी होगी ना? आखिर कब तक हम दूसरी भाषा की बैसाखी के सहाने अपनी बात दुनिया के सामने रखते रहेंगे। 

केन्द्रीय मंत्री अमित शाह ने गत वर्ष हिन्दी दिवस के अवसर पर जब अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा के तौर पर हिन्दी सीखने की बात कही थी, तब फिर से एक बार देशभर में हिन्दी को लेकर बहस छिड़ गई थी। तब अमित शाह ने अपने बयान पर सफाई पेश करते हुए कहा था कि उन्होंने हिन्दी को क्षेत्रीय भाषाओं पर थोपने की बात कभी भी नहीं कही, उन्होंने अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा के तौर पर हिन्दी सीखने की बात कही थी, और वे खुद एक गैर हिन्दी भाषी राज्य गुजरात से आते हैं; पर मुद्दा उठाने वाले और विरोध करने वाले रुकते कहाँ है। किसी को भी अपनी बोली अपनी भाषा को त्यागने नहीं कहा जा रहा, बस दुनिया में अपना परचम अपने देश की भाषा में लहराया जाए, तो बात ही कुछ और होती है। जिस प्रकार जब देश की सुरक्षा की बात आती है, तो पूरा देश एकजुट होकर आगे आता है, तब न राजनैतिक भेदभाव दिखाई देता, न धर्म और न जात-पाँत। यही भाव हमें हिन्दी को लेकर दिखाना होगा; क्योंकि यह मामला भी देशभक्ति और देशप्रेम से ही जुड़ा हुआ है। पूरा देश एक स्वर में जब बोलेगा, तो उसकी आवाज दूर तक सुनाई देगी। इस बात को देश के कर्णधारों को समझना होगा। 

हमारे देश में हिन्दी दिवस एक बार नहीं बल्कि साल में दो बार मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 में देवनागरी लिपि में हिन्दी को भारत की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया था।  इसके बाद 1953 से हर साल देशभर में 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाने लगा।  इसके अलावा एक अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में  हिन्दी का प्रचार प्रसार पुरी दुनिया में हो, इसके लिए 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस भी मनाया जाता है । यह तो सभी जानते हैं कि हिन्दी देश की पहली और विश्व की तीसरी ऐसी भाषा है, जो सबसे अधिक ज्यादा बोली जाती है। भारत में 70 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग हिन्दी बोलते हैं। दुनिया भर में लगभग 120 मिलियन लोग दूसरी भाषा के रूप में हिन्दी बोलते हैं, और 420 मिलियन से अधिक लोग इसे अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं। विदेशों के पाँच प्रमुख विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभिन्न पाठ्यक्रम चलाए जाते हैं; लेकिन इन सबके बाद भी हमारी हिन्दी आज भी राष्ट्रभाषा बनाए जाने की प्रतीक्षा में है।


6 comments:

Sujata saha said...

हमेशा की तरह आपकी अनकही बेहतरीन है ...

विजय जोशी said...

आदरणीया,
- बात में गहन सार है। पर अफ़सोस की बात है हिंदीभाषियों में मातृभाषा के प्रति स्वाभिमान का सर्वथा अभाव, जिन्हें अपने बच्चों के कांवेंट जैसे स्कूलों में प्रवेश के लिये राजनैतिक लोगों की चाटूकारिता तक से परहेज नहीं।
- यह भाव उत्तर भारत में सब जगह देखा जा सकता है।
- यही कारण है कि केवल तमिलनाडु जैसा एकमात्र प्रदेश हमारे बढ़ते कदम रोकने का दुस्साहसी प्रयास सफलता पूर्वक कर लेता है
- हिंदी राज्याश्रित कभी नहीं रही इसीलिये संतों की वाणी स्वरूप आज तक जीवंत है।
- सबको सन्मति दे भगवान
हार्दिक आभार सहित सादर 🌷🙏🏽

रत्ना वर्मा said...

आदरणीय जोशी जी आप बिल्कुल सही कह रहे हैं l प्रयास करते रहना हमारा काम है l आपकी इस बहुमूल्य टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद l सादर 🙏

रत्ना वर्मा said...

शुक्रिया सुजाता 😊

शिवजी श्रीवास्तव said...

महत्त्वपूर्ण आलेख,हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की कहीं कोई सुगबुगाहट भी अब नहीं दिखती,दो दशक पूर्व तक तो इस संदर्भ में आंदोलन भी चलते थे,मांग भी उठती थी पर अब वैसा कुछ नहीं दिखता।हिंदी दिवस रस्म-अदायगी की तरह रह गया है।राजनीतिक इच्छा शक्ति हिंदी को राष्ट्रभाषाबनाने के पक्ष में नही दिखती।

Anonymous said...

जब तक हमारी मानसिकता में परिवर्तन नहीं आता कि अंग्रेज़ी के माध्यम से हम आगे बढ़ सकते हैं तब तक हिन्दी की यही दशा रहेगी। दूसरी ओर दक्षिण भारतीय दूसरी भाषा के रूप में अंग्रेज़ी को तो अपनाते हैं लेकिन हिन्दी से दुर्भाव क्यों? राजनीतिज्ञ चाहें तो क्या नहीं हो सकता। स्वार्थ से ऊपर तो उठना ही होगा।
सटीक एवं बेहतरीन आलेख हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर