बूढ़ी माँ को सब पता, उसके बाल यूँ ही धूप में सफेद नहीं हुए।
मंदिर, ठाकुर देवता का चक्कर न होता तो बेटा-बहू, माँ के पास इस तरह अल्ल-सुबह न धमकते, वो भी महीनों
बाद। घर में पैर रखते बेटे ने माँ से कहा, "हमें काली
दर्शन के लिए मंदिर जाना है। तुम भी चली चलो, बड़ी मुश्किल
से छुट्टी मिली है। आज दर्शन नहीं हुए तो जाने कब मौका मिले। इतनी दूर से आया हूँ,
खास इसी काम के लिए। आज का दिन भी शुभ है। माँ, जल्दी तैयार हो जाओ, रसोई की चिन्ता पीछे
करना।"
माँ ने बेटे का उतावलापन
देखा और कह उठी, "बेटा, मैं मंदिर जाकर क्या करूँगी, और इस उमर में मुझसे
इतनी सीढ़ियाँ भी तय न होंगी। वर्षों हो गए काली मंदिर देखे, अब न इतना भक्तिभाव रहा न शारीरिक शक्ति बची है। तुम दोनों हो आओ, मैं पोती को घर में सँभाल लूँगी। इतनी छोटी बच्ची वहाँ
जाकर क्या करेगी। न खुद सीढ़ियाँ चढ़ पाएगी, न ही तुम दोनों उसे लेकर चल पाओगे। आज रविवार है, बहुत
भीड़ मिलेगी।"
"नहीं माँजी,
हम देवी दर्शन के लिए ही आए हैं और बिटिया क्या
मंदिर नहीं जाएगी! माँ काली के पैर उसे भी तो छुआने हैं। आप
जल्दी तैयार हो जाएँ, वरना हमें देर हो जाएगी- हमें शाम तक लौटना भी है अपने घर। कितने दिनों से प्लान हो रहा था पर
कमबख्त इन्हें नौकरी से फुर्सत नहीं।" बहू ने झुंझलाहट दिखाई।
आखिरकार, अनिच्छा ही सही माँ को भी मंदिर जाने के
लिए तैयार होना पड़ा। उनका दिल अच्छी तरह समझ रहा था कि माँ को ले जाने की जिद
क्यों हो रही है। जाने कब, कैसे, किस
बात के लिए माँ की जरूरत पड़ जाए। और वही हुआ जिसका अंदेशा था।
सीढ़ियों पर दर्शनार्थियों
का रेला-पेला लगा था। बेटा-बहू माँ पोती कुछ सीढ़ियाँ चढ़ीं ज़रूर पर ऊपर जाकर देवी
दर्शन करता दुरूह कार्य था। माँ ने आगे बढ़ने से हार मान ली नीचे उतर एक बेंच पर
बैठ गई। मरता क्या न करता। बेटे ने बहू को अंग्रेज़ी में समझाया, छोटी बच्ची को ऊपर लेकर जाना संभव नहीं,
उसे माँ के पास यहीं नीचे छोड़ देते हैं। हम दोनों का दर्शन करना
ज़्यादा ज़रूरी है। बच्ची के साथ-साथ हमारे जूते-चप्पल और गाड़ी की भी रखवाली हो जायेगी।
वरना तो मन तनाव में पड़ा रहता। स्साले... ड्राइवर को भी आज
ही छुट्टी लेनी थी।"
बहू इतनी जल्दी बेटे की
बात सुन-समझ-मान लेगी, इस बात की
उम्मीद माँ को न थी और सुझाव पसंद क्यों न आता इसमें उनका ही तो फायदा था। बच्ची व
चीज़ सामान की देखभाल भी हो रही थी।
बहू ने चटपट बेटी को माँ
के पास छोड़ा और ढेरों नसीहतें बच्ची को ये खिला देंगी, पिला देंगी, सू-सू
करने पर नैपी चेंज कर देंगी आदि-आदि सुझाव देते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। माँ ने
खुशी-खुशी बेटे-बहू का आदेश शिरोधार्य किया और दीन-दुनिया भुला पोती के साथ बात
करने लगी। अनायास उन्हें जैसे ज़माने भर की खुशियाँ मिल गई हों। पोती के साथ बात
करने को तरस गई थी। चाहते हुए भी उन्हें संग साथ नहीं मिलता। उधर पोती दादी-दादी
करके बेहाल हुई रहती तो इधर दादी मजबूरी में अपनी घर-गृहस्थी
में सिमटी रहती। खैर, अभी जो वक्त मिला है उसका आनन्द वह प्रतिक्षण
उठा लेना चाहती थीं। ईश्वर तो कहीं भी मिल सकता है पर इस पोती का साथ दुर्लभ है।
दादी ने झट पोती को अपने
करीब किया और उसके कोमल नन्हें पैरों को बार-बार छूकर प्रणाम किया और कह उठीं, “मेरी असली देवी तो मेरे पास है। मंदिर की देवी
तो काली है, मेरी देवी- देखो कितनी
गोरी कितनी सुन्दर है। क्या तुम्हें इसके चेहरे में किसी देवी माँ का दर्शन नहीं
हो रहा? इसे त्याग तो मैं यमराज के पास भी न जाऊँ, फिर माँ काली क्या बला है। बड़ी किस्मत से हाड़-माँस की देवी हाथ लगी है,
इसे कैसे छोड़ दूँ...!"
पड़ोसी दम्पती चकित थे। वाकई जहाँ पोती के निष्पाप, भोले मनभावक खूबसूरत चेहरे पर सूरज की छन कर आती स्वर्णिम किरणें उजास फैला रही थीं वहीं दादी बच्ची को सीने से लगाए मंत्रमुग्ध, मानों ऊपर वाले लौ लगा बैठी हों। विलक्षण था यह दृश्य !
सम्पर्कः हाजीनगर, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल, 743135, मोबाइल : 9874115883
3 comments:
अच्छी कहानी। बधाई।
बहुत सुंदर कहानी।बधाई हो।
उम्दा कहानी। बधाई
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