डॉ. सत्यजित रथ से साक्षात्कार
आजकल इम्यूनिटी
को लेकर बहुत चर्चा है। काढ़ों, विभिन्न इम्यूनिटी
उत्पादों के अलावा लगभग सारे पोषण-पूरकों में इम्यूनिटी शब्द जुड़ गया है। सारे
मामले को समझने के लिए स्रोत ने प्रतिरक्षा विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. सत्यजित रथ के
सामने कुछ सवाल रखे। प्रस्तुत है उन सवालों के जवाब डॉ. रथ की ज़ुबानी...। सवालों
का जवाब देने से पहले डॉ. रथ ने समस्या की पृष्ठभूमि स्पष्ट की।
आजकल भारत की सड़कों-गलियों का आम नज़ारा
देखिए। हम दुकानों पर भीड़ लगा रहे हैं, धक्का-मुक्की
कर रहे हैं और मास्क नहीं पहन रहे हैं। कभी-कभार मास्क को गले में पट्टे की तरह
ज़रूर डाल लेते हैं। हम उन बातों पर बिलकुल कान नहीं दे रहे हैं, जो कोविड-19 के लिए ज़िम्मेदार वायरस SARS-CoV-2 के प्रसार को थाम सकती हैं और गंभीर रूप से बीमार लोगों की संख्या को कम
कर सकती हैं। शारीरिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं), नाक-मुँह को
ढँकना और बार-बार साबुन से हाथ धोना इस महामारी के दौरान कुछ सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ
हैं, जिन्हें हम नहीं निभाते।
इसके बजाय
हम क्या करते हैं? हम डरे हुए हैं कि ‘हम’,
‘मैं’ कोरोना के संपर्क में आ गया, तो बीमार होकर मर जाऊँगा। यानी हम संसर्ग (छूत) के विचार को उसके
सामुदायिक संदर्भ से काटकर एक व्यक्तिगत भय में बदल देते हैं। हम हर उस चीज़ का ‘शुद्धीकरण’ करते हैं जिसे हम
छूते हैं (जिसकी हमारे यहाँ परम्परा भी रही है), और हम खुद
को और अपने साज़ो-सामान को ऐसी जादुई चीज़ों से नहलाते हैं, जो
हमें व्यक्तिगत रूप से ‘सुरक्षित’ रखेंगी।
हमने निर्णय कर लिया है कि बाज़ार हमें
बचाएगा। हमने निर्णय कर लिया है कि हममें से प्रत्येक को खुद को बचाना है और इसके
लिए हमें बाज़ार से कोई जादू खरीद लेना है। हमने तय किया है कि ‘औरों’ या ‘अन्य लोगों’ को बचाना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है। हमने निर्णय किया है कि वास्तव में ‘अन्य लोग’ ही इस समस्या के लिए ज़िम्मेदार हैं
क्योंकि वे गंदे और फूहड़ ‘अन्य’ हैं जो
‘हमारी’ तरह नहीं हैं। हम सचमुच ‘हममें’ से उन संक्रमित ‘बदनसीबों’
की परवाह करने की बजाय उनको बहिष्कृत कर देते हैं। यह वह पृष्ठभूमि
जिसमें हमें ‘इम्यूनिटी वर्धकों’ की
महामारी पर गौर करना होगा, जो हमें घेर रही है - जीवन शैली
सम्बंधी उपदेशों के रूप में भी और उत्पादों के रूप में भी। तो कुछ सवालों के जवाब
देकर बात को आगे बढ़ाते हैं।
सवाल-
क्या इम्यूनिटी नाम की कोई एक सामान्य चीज़ है? या
क्या समस्त इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट होती है? आप इम्यूनिटी को मात्रात्मक रूप में कैसे परिभाषित करेंगे?
जवाब-
सबसे पहले तो यह समझ लें कि शरीर का कोई एक हिस्सा नहीं है,
जिसे इम्यूनिटी कहा जा सके। वास्तव में शरीर के कई हिस्से कई
अलग-अलग ढंग से सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रस्तुत चुनौती की प्रतिक्रिया देते हैं और
इन सारे किरदारों के सामंजस्य का परिणाम होता है इम्यूनिटी। ये सारे किरदार
अपना-अपना काम करते हैं। यानी इम्यूनिटी एक जुगाड़ू परिणाम है
जो समन्वय से उभरती है, न कि पहले से निर्धारित कोई योजना
होती है जिसे निष्ठापूर्वक क्रियांवित किया जाता है।
एक उपमा से शायद मदद मिले। किसी संगीत
कार्यक्रम की उपमा से।
सुर बाँधने
के लिए एक तानपुरा होता है। हो सकता है बीच-बीच में वह थोड़ा ज़ोर से या धीमे बजे और
ऐसा होने पर गायक/वादक मुस्कराकर उसका स्वागत करेगा या भवें तान लेगा। थोड़े फेरबदल
से वह तानपुरा नाटकीय परिवर्तन पैदा करेगा या माहौल को बरबाद कर देगा।
फिर तबला होता है,
जो रफ्तार को पकड़ता है। एक ओर तो वह गायक की गति से तालमेल रखता है;
लेकिन बीच-बीच में अपना खेल
भी दिखाता है। यदि इसे हटा दीजिए ,तो संगीत
का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा, चाहे गायक वही रहे।
गायक तो किसी राग की जोड़-तोड़ कर रही है,
एक ऐसे ढाँचे पर जो उसके दिमाग में है। तानपुरा सुर का ख्याल रखता
है और तबला रफ्तार का। लेकिन दोनों को ही पता नहीं कि गायक क्या कोशिश कर रही है
और गायक को भी अंदाज़ नहीं है कि आज की महफ़िल में क्या सामने
आने वाला है। वह तो आगे बढ़ते-बढ़ते जुगाड़ करती है, खुद को
सुनती है, तानपुरे, तबले को सुनती है,
मौसम और श्रोताओं को सुनती है, परिस्थिति की
बारीकियों को सुनती है। राग के अनुशासन के तहत उसका संगीत इन सारे ‘उद्दीपनों’ से आकार पाता है।
इम्यूमिटी नामक शारीरिक प्रतिक्रिया भी
इसी तरह पैदा होती है। एक ही संक्रमण में, कोशिकाएँ
और अणु अलग-अलग उद्दीपनों को पहचानते हैं और अपने विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया
देते हैं। ये प्रतिक्रियाएँ एक-दूसरे में गूँथ जाती हैं, एक-दूसरे
को तीव्र-मंद करती हैं, बदलती हैं और जो कुछ उभरता है वह
इम्यून प्रतिक्रिया होती है। यह शरीर का एक तरीका है अंदर वाले सूक्ष्मजीव से
निपटकर जीवित रहने का।
इनमें से कुछ कोशिकाएँ और अणु उद्दीपनों
और ट्रिगर्स को पहचानते हैं और उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। इनमें से कुछ उद्दीपन
कई सारे सूक्ष्मजीवों, वायरसों और बैक्टीरिया
में एक जैसे होते हैं। ये अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ अपने-आप में भी एक किस्म की
इम्यूनिटी होती हैं। बहुत बढ़िया नहीं, लेकिन ठीक-ठाक तो होती
हैं।
गायक अलग ढंग से प्रतिक्रिया देता है। वह
कुछ आज़माइशी स्वरों से शुरू करता है, ताकि
वह देख सके कि सब कुछ ठीक तरह से चल रहा है और इसके आधार पर वह उस बुनियादी संगीत
को आकार देता है, जो वह निर्मित करने वाला है। लेकिन फिर वह
आसपास नज़र दौड़ाता है (या अपने अंदर झाँकता है) और अपने संगीत को आकार देना शुरू
करता है, हौले-हौले लेकिन बढ़ते आत्म-विश्वास और जटिलता के
साथ। यह संगीत उस विशिष्ट मौके के लिए, वहाँ उपस्थित
श्रोताओं के लिए और उस स्थान-विशेष के लिए होता है।
शरीर की कुछ कोशिकाएँ प्रवेश करने वाले
सूक्ष्मजीव के विशिष्ट खंडों को, सिर्फ उस विशिष्ट
सूक्ष्मजीव या उसके निकट सम्बंधियों पर उपस्थित आकृतियों को पहचानती हैं। पहचानने
के बाद वे प्रतिक्रिया देती हैं; लेकिन प्रत्येक आकृति जैसे लक्ष्य को पहचानने वाली
कोशिकाओं की संख्या बहुत कम होती है। लिहाज़ा उनकी पहली सार्थक प्रतिक्रिया यह होती
है कि वे बार-बार विभाजन करके अपनी संख्या बढ़ाती हैं और जब उनकी संख्या बढ़ती है । वे परिपक्व होती हैं, तो वे विशिष्ट रूप से उस
आकृति (जिसने उन्हें जन्म दिया था) पर केंद्रित कामकाजी प्रतिक्रिया हासिल करके
उसका क्रियान्वयन करती हैं। ये प्रतिक्रियाएँ शरीर को
सूक्ष्मजीव से निपटने में मदद करती हैं। किसी गायक के समान ही ये कोशिकाएँ भी अपनी
प्रतिक्रिया को उस मौके, उस स्थान और उस सूक्ष्मजीव के
अनुसार आकार देती हैं। वे अनुकूलन करती हैं; लेकिन उन्हें तानपुरा-तबला कोशिकाओं की मदद लगती
है , ताकि वे अपने परिपक्व होते संगीत के बारे में जटिल
निर्णय कर सकें और खुलकर पेश कर सकें।
तो क्या इम्यूनिटी नाम की कोई सामान्य
चीज़ है?
अपने संघटन में तो नहीं, सिर्फ उसके उभरते
प्रभाव के रूप में होती है। क्या सारी इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट
होती है? जवाब हाँ भी है और नहीं भी। जो प्रतिक्रियाएँ मिलकर
इम्यूनिटी का निर्माण करती हैं, उनमें से कुछ अन्य की
अपेक्षा ज़्यादा विशिष्ट होती हैं; लेकिन वास्तविक इम्यूनिटी तब प्रकट होती है, जब ये सब मिलकर काम करते हैं।
सवाल-
क्या इम्यूनिटी को नापा जा सकता है? यदि हाँ,
तो कैसे? और यदि नहीं, तो
आप ऐसे उत्पादों की बात कैसे कर सकते हैं जो इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करते हैं?
क्या कुछ ऐसे रसायन हैं जो प्रामाणिक इम्यूनिटी-वर्धक हैं? और इम्यूनिटी का सामान्य पोषण की हालत से क्या सम्बन्ध है?
जवाब- हमने यहाँ जिस तरह की इम्यूनिटी की बात की है,
उसे नापेंगे कैसे? ज़ाहिर है, ऐसा कोई इकलौता आसान माप नहीं हो सकता जिसका कोई वास्तविक अर्थ हो। हम यह
नाप सकते हैं कि सारे घटक मौजूद हैं या नहीं। अधिकतर लोगों
में ये मौजूद होते हैं। हम यह भी मापन कर सकते हैं कि क्या ये घटक एक सामान्य रूप
में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अधिकतर लोगों में ये करते
हैं। लेकिन ये माप हमें यह नहीं बताएँगे कि क्या वास्तविक इम्यूनिटी उभरेगी। इस
बात का अंदाज़ लगाने के लिए हमें यह देखना होगा कि क्या शरीर ने वास्तव में अतीत
में कतिपय विशिष्ट सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध प्रतिक्रिया दर्शाई थी। क्या हमें ऐसी
विगत इम्यूनिटी के अवशिष्ट प्रमाण मिल सकते हैं? अधिकतर लोगों में मिल सकते हैं।
क्या लोगों के बीच इन मापों में
छोटे-मोटे अंतर दिखते हैं? क्या इन अंतरों का
विभिन्न सूक्ष्मजीवों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में कोई उल्लेखनीय असर दिखता
है। हाँ; लेकिन क्या हम यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि
इम्यूनिटी के इन तरह-तरह के मापों में अंतरों का किसी विशिष्ट सूक्ष्मजीव के प्रति
हमारी प्रतिक्रिया पर क्या असर पड़ेगा? नहीं। जैसा कि ऊपर संगीत
के रूपक में बताया गया था, इसके बारे में अटकल लगाना भी लगभग
असंभव है, निश्चित भविष्यवाणी तो दूर की बात है। यह बताना
असंभव है कि इनपुट (यानी सूक्ष्मजीव) के कौन-से कारक इम्यूनिटी के परिणाम को बदल
देंगे और वह बदलाव क्या होगा। दरअसल, ऐसी परिस्थिति में,
यदि हम इम्यूनिटी के एक घटक को ‘समृद्ध’
करें, ‘बढ़ावा दें’ तो
परिणाम ‘अलग’ होगा, ज़रूरी नहीं कि वह ‘बेहतर’ हो
या ‘बदतर’ हो। तबला वादक बदल दीजिए और
गायक की आवाज़ महफिल में एक अलग संगीत पैदा करेगी। शायद कुछ लोगों को बेहतर लगे,
कुछ को नहीं।
यही हाल इम्यूनिटी के परिणाम का भी होगा, जो परिस्थिति-विशेष पर निर्भर करेगा। तो, जी नहीं,
हम किसी भी विवेकशील अर्थ में इम्यूनिटी बढ़ाने की बात नहीं कर सकते।
और यदि हम सार्थक ढंग से यह बात नहीं कर सकते, तो इम्यूनिटी
बढ़ाने का दावा करने वाले उत्पादों के बारे में क्या कहा जाए? ऐसे अधिकतर इम्यूनिटी वर्धक उत्पाद दरअसल कुछ नहीं
करते, अर्थात् इनका इम्यूनिटी के घटकों
पर कोई असर नहीं होता, स्वास्थ्य पर लाभदायक असर की तो बात
ही जाने दें।
तो ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं,
‘गनीमत है’; क्योंकि यदि इन उत्पादों का इम्यूनिटी के घटकों पर सचमुच कोई असर होता,
तो वह एक बड़ी समस्या होती। परिणामों को अच्छा या बुरा कहना तो आपके
नज़रिए पर है। देखा जाए, तो इनमें से अधिकतर उत्पाद फील-गुड-विज्ञापन वाले उत्पाद हैं, जिन पर
हम सिर्फ इसलिए भरोसा करते हैं ; क्योंकि हमने उनका दाम
चुकाया है। यह भरोसा सच्चे उपभोगवादी पूँजीवाद के शिकार की
निशानी है।
क्या हमें परेशान होना चाहिए कि लोग इन
पर भरोसा करते हैं? क्या हमें चिंतित होना
चाहिए कि लोग ऐसी चीज़ों पर विश्वास करते हैं, जिन्हें
अंधविश्वास कहते हैं?
शायद नहीं, हम सबको जीते रहने के लिए, अपने मस्तिष्क की निजता
में, तरह-तरह के सहारों की ज़रूरत होती है। लेकिन क्या
उपभोगवादी पूँजीवादी ढाँचा चिंता का विषय नहीं होना चाहिए, जो अनैतिक मुनाफ़ाखोरों को
प्रोत्साहित करता है कि वे हमारी हताशाओं से पैसा कमाएँ? तो
क्या ऐसा कुछ नहीं है जिसे खाकर/पीकर/करके हम अपनी इम्यूनिटी को समृद्ध कर सकें?
ज़रूर है; लेकिन वह नहीं है, जिसके बारे में हम अब तक सोचते रहे हैं।
कुल मिलाकर,
इम्यूनिटी के जिन घटकों की बात हम करते आए हैं, वे हमारे शरीर की कोशिकाएँ और अणु हैं। शरीर के किसी भी अन्य हिस्से की
तरह ये भी तभी विकसित होते हैं और काम करते हैं, जब सूक्ष्म
पोषक तत्त्व और विटामिन्स सहित अच्छा और संतुलित पोषण मिले,
जब विषैले पदार्थों से अपेक्षाकृत मुक्त साफ़
कुदरती पर्यावरण हो, जब एक ऐसा समर्थक सामाजिक माहौल हो
जिसमें हम काम करें, खेलें, एक-दूसरे
के साथ दोस्ताना सम्बन्धों में जिएँ,
और अपने-आप में मूल्यवान् महसूस करें। क्या यह
ज़रूरी नहीं कि हम सब मिलकर काम करें कि यह सब, सबको, हर जगह उपलब्ध हो सके।
इन बातों पर आम प्रतिक्रिया होती है: ये
सब अव्यावहारिक आदर्शवादी बातें हैं। आप तो यह बताइए कि जिस विकट परिस्थिति में हम
फँस गए हैं (कोई नहीं कहेगा कि हमने खुद को फँसा लिया है) उसमें इम्यूनिटी
को लेकर क्या किया जा सकता है। इस सवाल एकमात्र व्यावहारिक जवाब यह है कि यथासंभव
अच्छे से खाएँ।
दुख की बात तो यह है कि उपभोक्ता पूँजीवाद
हमारे लिए वास्तविक किफ़ायती भोजन से विटामिन और
खनिज तत्त्व प्राप्त करना असंभव बना देता है। हममें से जो
लोग इनका खर्च उठा सकते हैं, वे ये चीज़ें पूरक गोलियों के
रूप में ले लेते हैं।
ऐसे पूरकों के बारे में भी एक सावधानी
रखना ज़रूरी है। हर चीज़ की अति नुकसान कर सकती है। जैसे नमक अच्छा है,
किंतु इसकी अधिकता शरीर के लिए समस्याएं पैदा कर सकती है। यही बात
विटामिन व खनिज तत्वों पर भी लागू होती है। यह बात खास तौर से उन चीज़ों के बारे
में सही है, शरीर जिनका संग्रहण करता है। जैसे विटामिन ए व
डी का संग्रहण वसा में होता है। इसलिए सरल पूरकों के मामले में भी अति करना संभव
है।
अलबत्ता, शरीर के ‘प्रतिरक्षा तंत्र’ के
संदर्भ में इन सामान्य बातों में भी एक दिलचस्प पेंच है। शरीर के जिन घटकों की
प्रतिक्रियाएँ अंतत: ‘इम्यूनिटी’ के
रूप में प्रकट होती हैं, वे थोड़े विचित्र हैं। कारण यह है कि
वे सूक्ष्मजीवों को पहचानकर प्रतिक्रिया देते हैं। सूक्ष्मजीव हमेशा तो शरीर में
उपस्थित नहीं होते। विभिन्न सूक्ष्मजीव शरीर में आते-जाते रहते हैं और बार-बार ऐसा
करते हैं। और जब वे शरीर में आते हैं, तो सूक्ष्मजीव अचानक
पूरे शरीर में नहीं पहुँच जाते। वे शरीर के किसी हिस्से में, त्वचा के किसी बिंदु पर प्रवेश करते हैं। जैसे जहाँ घाव हो, या नाक में साँस के साथ, खानपान के साथ आँतों में।
इस वजह से इम्यूनिटी के घटक ज़बर्दस्त यात्री होते हैं। वे हर समय, पूरे शरीर में भटकते रहते हैं, धक्कामुक्की करते
हुए। और ऐसा करते हुए वे लगातार ‘ऑफ’ और
‘ऑन’ के बीच डोलते रहते हैं- जब कोई
सूक्ष्मजीव न हो, तो वे ‘ऑफ’ रहते हैं और जब वे स्थानीय स्तर पर सूक्ष्मजीव से टकराते हैं, तो ‘ऑन’ होकर प्रतिक्रिया
देते हैं। यह कोशिकाओं पर लगातार बदलते दबाव का द्योतक है। तब कोई अचरज की बात
नहीं कि प्रतिरक्षा कोशिकाएँ इस गहमा-गहमी के जीवन में काफी क्षतियाँ-चोटें झेलती
हैं और मर जाती हैं। इसका मतलब है कि शरीर को नई-नई प्रतिरक्षा कोशिकाएँ और अणु
बनाने पड़ते हैं (और बनाता भी है)। यह, उदाहरण के लिए,
मस्तिष्क की कोशिकाओं से काफी अलग है। मस्तिष्क की कोशिकाएँ इतनी
जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित नहीं होतीं। लेकिन शरीर का अस्तर बनाने वाली कोशिकाएँ भी
ऐसी ही होती हैं, जैसे त्वचा की कोशिकाएँ या वायु मार्ग,
आँतों के अस्तर की कोशिकाएँ या लाल रक्त कोशिकाएँ जो पूरे शरीर में
भटकती रहती हैं और ऑक्सीजन व कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन
करती हैं। ये भी लगातार जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित होती हैं।
इसका मतलब है कि लगातार प्रतिस्थापन के
लिए पोषण की ज़रूरतें काफी अधिक होती हैं। जैव विकास के लंबे दौर में शरीर में ऐसी
क्रियाविधियाँ विकसित हुई हैं जो यह सुनिश्चित करती हैं कि भोजन के अभाव के समय भी
इन कोशिकाओं का ठीक-ठाक रख-रखाव होता रहे। लेकिन यह बात प्रोटीन और कार्बोहायड्रेट
जैसे स्थूल पोषक तत्त्वों पर ज़्यादा लागू
होती है, ‘सूक्ष्म पोषक तत्त्वों’ पर
नहीं। हम नहीं जानते कि यह फर्क क्यों पैदा हुआ होगा। लेकिन जादुई
इम्यूनिटी-बूस्टर औषधियों के प्रवर्तकों के विपरीत हम तो बहुत कुछ नहीं जानते।
अलबत्ता, इम्यूनिटी की इस निजी सम्पत्ति अवधारणा की परीकथाओं से आगे बढ़कर थोड़ी
ज़्यादा पेचीदा व दिलचस्प यह बात करते हैं कि कैसे व्यक्ति और समुदाय उन्हें
संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ सुरक्षात्मक सामंजस्य बनाते हैं।
सवाल- आप किसी रोगजनक के प्रति इम्यून
कैसे हो जाते हैं? क्या ऐसा हर व्यक्ति में
होगा? क्या इम्यूनिटी एक से दूसरे व्यक्ति में प्रेषित की जा
सकती है? कोई समुदाय इम्यूनिटी कैसे हासिल करता है?
जवाब-
हम किसी रोगजनक के प्रति इम्यून कैसे हो जाते हैं? एक उदाहरण लेकर बात करते हैं - जैसे SARS-CoV-2 और
कोविड-19। यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि मानव शरीर और
संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीव की अंतर्क्रिया के बारे में ‘लड़ाई’
जैसी उपमा का उपयोग न करना बेहतर है। कई बार शरीर किसी वायरस को
बर्दाश्त कर लेता है। कई बार वायरस शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुँचाने की बजाय
उनके हमसफर बन जाते हैं, और कई बार शरीर की प्रतिक्रिया
वास्तव में वायरस संक्रमण से ‘लड़ती’ नहीं
है।
इतना कहने के बाद,
वायरस संक्रमण को सीमित रखने के लिए शरीर के पास तीन प्रमुख तरीके
होते हैं।
प्रत्यक्ष ‘वायरस-रोधी’ तरीकों के अलावा, शरीर
वायरल, बैक्टीरियल, फंगल या अन्य
घुसपैठियों से निपटने के लिए यह भी करता है कि उन्हें शरीर में किसी एक जगह कैद कर
देता है (और उन्हें पूरे शरीर में फैलने से रोकता है)। आजकल की भाषा में ऐसी
प्रतिक्रियाएँ संक्रमण को ‘कंटेनमेंट’ ज़ोन
में ‘क्वारेंटाइन’ करने जैसी होती हैं।
प्रतिक्रियाओं की इस श्रेणी को हम ‘शोथ’ या इंफ्लेमेशन कहते हैं।
तो चलिए प्रत्यक्ष वायरस-रोधी
प्रतिक्रियाओं पर लौटते हैं। एक तरीका यह है कि शोथ के साथ-साथ एक प्रक्रिया शुरू
होती है: अपनी खुद की कोशिकाओं को संदेश दिया जाता है कि वे कोशिका के अंदर ही
वायरस-रोधी प्रक्रियाएँ शुरू करके वायरस का जीना हराम कर दें। इंटरफेरॉन-अल्फा और
इंटरफेरॉन-बीटा यही करते हैं (और इन्हें कोविड-19 के उपचार में आज़माया भी जा रहा है)।
दो अन्य वायरस-रोधी प्रतिक्रियाएँ काफी
कारगर होती हैं, शायद उपर्युक्त
प्रतिक्रिया से भी ज़्यादा। लेकिन उन्हें शुरू होने में वक्त लगता है। ऐसा इसलिए है
कि, जैसा कि हमने ऊपर देखा, शरीर की
कुछ कोशिकाएँ प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीव के कुछ विशिष्ट टुकड़ों को पहचानती हैं-
ऐसे आकार जो सिर्फ उसी सूक्ष्मजीव (या उसके निकट सम्बन्धियों)
पर पाए जाते हैं। तो ये भी प्रतिक्रिया देना शुरू कर देती हैं, लेकिन दिक्कत यह होती है कि किसी भी लक्षित आकार के लिए जो कोशिकाएँ होती
हैं, उनकी संख्या बहुत कम होती है। इसलिए ठीक-ठाक
प्रतिक्रिया देने के लिए पहले इन्हें बार-बार विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ानी पड़ती
है। संख्यावृद्धि करते हुए, वे परिपक्व होकर उस विशिष्ट आकार
के विरुद्ध प्रतिक्रिया की क्षमता हासिल करती जाती हैं।
दूसरा है कि शरीर प्रोटीन या एंटीबॉडी
बनाता है जो वायरस की सतह के ठीक उस हिस्से पर चिपक जाते हैं ,
जिसके ज़रिए वायरस कोशिका पर चिपकता है। परिणामस्वरूप, एंटीबॉडी से ढका वायरस कोशिका में घुस नहीं पाता। प्लाज़्मा उपचार और
मोनोक्लोनल एंटीबॉडी जैसे तरीके यही करने की कोशिश करते हैं। SARS-CoV-2 के विरुद्ध अधिकतर टीकों से भी यही करने की उम्मीद है।
शरीर के पास वायरस को सीमित रखने का एक
तीसरा तरीका यह है कि हाल ही में वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर ‘किलर’ कोशिकाओं की मदद से उन्हें मार दिया जाए,
इससे पहले कि वायरस अपनी प्रतिलिपियाँ बनाना शुरू कर सके।
इन दोनों तरीकों को अनुकूलक प्रतिक्रियाएँ
कहते हैं;
क्योंकि ये प्रवेश करने
वाले वायरस को ‘देखती’ हैं, अपने खज़ाने में उससे मिलते-जुलते तत्त्वों को खोजती
और तलाश करती हैं, फिर खजाने के उस तत्त्व को विस्तार देती हैं और उन्हें तैनात करती हैं - एंटीबॉडी के रूप में या
किलर कोशिका के रूप में। यह विस्तारित खज़ाना शरीर में वायरस
से निपट लेने के बाद भी बना रहता है।
तो, वायरस
संक्रमण के समय हरेक व्यक्ति में शोथ व इंटरफेरॉन प्रतिक्रियाएँ मौजूद होती हैं।
ये प्रतिक्रियाएँ संक्रमण के तुरंत बाद, चंद मिनटों से लेकर
कुछ घंटों के अंदर, सक्रिय हो जाती हैं।
इसके विपरीत,
अनुकूलक प्रतिक्रिया को शुरू होने में समय लगता है, खासकर यदि हमारे शरीर ने वह वायरस या उस जैसा कुछ पहले न देखा हो। कारण यह
है कि शुरुआत में खजाने को विस्तार देने में समय लगता है (आम तौर पर दो दिन,
कभी-कभी ज़्यादा)। दूसरी ओर, यदि वायरस किसी
ऐसे शरीर में प्रवेश करता है, जिसके पास पहले से विस्तारित
खजाना है जो उस वायरस को पहचान सके, तो अनुकूलक प्रतिक्रिया
भी कुछेक मिनट या घंटों में शुरू हो जाती है। यही वजह है कि हम उसी वायरस से
पुन:संक्रमण (या टीकाकरण) से हम ज़्यादा सुरक्षित होते हैं। यहाँ बता देना लाज़मी है
कि चाहे हमारा सामना किसी वायरस से पहली बार हो, हमें उपर्युक्त प्रतिक्रियाओं की सुरक्षा हासिल होती है। बात सिर्फ इतनी है कि यदि
पहले से विस्तारित खज़ाना मौजूद हो तो वह बेहतर और त्वरित
सुरक्षा देता है।
अलबत्ता, ये विस्तारित अनुकूलक खजाने समय के साथ चुक भी सकते हैं। यदि वैसा होता है
तो हम उस संक्रमण के प्रति उतने ही दुर्बल होते हैं , जितने
पहली बार थे।
क्या प्रत्येक व्यक्ति घुसपैठी
सूक्ष्मजीव के प्रति इस तरह इम्यून हो जाता है? हाँ,
यह बात कमोबेश सही है, हालाँकि प्रतिक्रिया की
मात्रा और अवधि में अंतर हो सकता है। क्या ऐसा सारे सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में
होता है? जी हाँ, लगभग, हालाँकि सूक्ष्मजीवी अपवाद भी होते हैं।
क्या हम यह इम्यूनिटी एक संक्रमित
व्यक्ति से किसी अन्य वायरस-अनभिज्ञ व्यक्ति को दे सकते हैं?
तथाकथित सुरक्षा प्रतिक्रियाएँ या तो रक्त में एंटीबॉडी कहे जाने
वाले प्रोटीन्स के रूप में होती है या वायरस को पहचानने वाली किलर कोशिकाओं के रूप
में होती है। एक व्यक्ति से दूसरे को कोशिकाएँ प्रत्यारोपित करने की समस्याओं से
तो हम अंग प्रत्यारोपण के संदर्भ में परिचित ही हैं। अधिकतर प्रत्यारोपण
शरीर (के प्रतिरक्षा तंत्र) द्वारा अस्वीकार कर दिए जाते हैं। इसी तरह इम्यून
कोशिकाओं को भी अस्वीकार कर दिया जाता है।
दूसरी ओर, हम एंटीबॉडी स्थानांतरित कर सकते हैं। प्लाज़्मा उपचार या मोनोक्लोनल
एंटीबॉडी उपचार इसी उम्मीद में किए जाते हैं। लेकिन एंटीबॉडी कुछेक सप्ताह में
समाप्त हो जाती हैं, तो सुरक्षा भी लम्बे समय के लिए नहीं होती। कोशिकाएँ – एंटीबॉडी बनाने
वाली कोशिकाएँ या किलर कोशिकाएँ – बेहतर साबित होंगी लेकिन
उन्हें आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। सबसे अच्छा तो यह होगा कि एक टीका
हो जो शरीर को स्वयं की वायरस-रोधी प्रतिक्रिया निर्मित करने में मदद करे।
सवाल-
हर्ड इम्यूनिटी क्या है?
जवाब-
यह देखते हैं कि कोई वायरस समुदाय में कैसे फैलेगा। मान लीजिए एक व्यक्ति का
संपर्क (मान लीजिए किसी दूर-दराज के घने जंगल में) वायरस से होता है और वह
संक्रमित हो जाता है। इस व्यक्ति का शरीर अंतत: वायरस से निपट लेगा। लेकिन तब तक
वायरस की प्रतिलिपियाँ किसी प्रकार से शरीर से बाहर निकलती रहेंगी- अक्सर शारीरिक
तरल पदार्थों के माध्यम से- और यदि ये तरल पदार्थ उपयुक्त ढंग से अन्य लोगों के
संपर्क में आ जाएँ तो वायरस नए व्यक्तियों में संक्रमण स्थापित कर सकता है। यानी
वह प्रसारित हो गया। जब तक पहला व्यक्ति अपने शरीर से वायरस का सफाया करेगा,
तब इन नए संक्रमित व्यक्तियों के शरीर में वायरस बन-बनकर कई और लोगों
को संक्रमित करने लगेगा।
तो वायरस की ‘सफलता’ का एक निर्णायक कारक यह है कि वह एक संक्रमित
व्यक्ति से कितने व्यक्तियों को सफलतापूर्वक संक्रमित कर सकता है। यदि यह संख्या 1 से कम है, तो प्रसार का हर चक्र उससे पहले वाले
चक्र से कम लोगों को संक्रमित करेगा और संक्रमण बहुत अधिक नहीं फैल पाएगा। यह
संख्या 1 से जितनी अधिक होगी संक्रमण उतनी तेज़ी से फैलेगा।
वायरस की दिक्कत (!) यह है कि यह संख्या
(जिसे ङ कहते हैं) काफी हद तक इस बात पर निर्भर है कि संक्रमित व्यक्ति के संपर्क
में आने वाले लोग कितने संवेदनशील हैं। यदि संक्रमित व्यक्ति बहुत सारे लोगों के
संपर्क में तो आता है; लेकिन यदि उनमें से अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो उस वायरस से पहले टकरा चुके हैं और
जिनके शरीर में अनुकूलक खज़ाना विस्तार पा चुका है और वे
अनुकूलित प्रतिरोधी हैं, तो अब वे ठीक से संक्रमित नहीं हो
पाते, और परिणाम यह होता है कि वायरस का प्रसार अकार्यक्षम
हो जाता है। यही स्थिति तब भी होगी जब एक बड़े अनुपात में लोगों का टीकाकरण हो चुका
हो।
यदि समुदाय में काफी सारे लोग ‘अनुकूलित प्रतिरोधी’ हो जाते हैं तो वायरस का प्रसार
कमोबेश थम जाएगा। इस स्थिति को ‘हर्ड इम्यूनिटी’ कहते हैं। टीकाकरण से हर्ड इम्यूनिटी इसी प्रकार हासिल होती है। जैसे कि
हम देख ही सकते हैं, अधिकांश संक्रमण देर-सवेर ‘सामुदायिक प्रतिरोध’ के
बिंदु पर पहुँच जाएँगे। अर्थात हर्ड इम्यूनिटी एक प्राकृतिक नतीजा है। यह स्वीडन
या जनाब बोरिस जॉनसन द्वारा डिज़ाइन की गई कोई नीतिगत रणनीति नहीं है। वैसे एक
रणनीति के तौर पर इसके भरोसे रहना मूर्खता ही कही जाएगी।
सवाल यह है कि हर्ड इम्यूनिटी तक पहुँचने
के लिए कितने लोगों को SARS-CoV-2 के खिलाफ
अनुकूलक इम्यूनिटी हासिल करनी होगी। हमें पक्का पता नहीं है; विशिष्ट संक्रमण और सूक्ष्मजीव से सम्बंधित कई कारकों के चलते यह अनुपात
बदलता रहता है। अलबत्ता, 50 से लेकर 80
प्रतिशत तक के आँकड़े सामने आए हैं। चूँकि SARS-CoV-2 के
खिलाफ अनुकूलक प्रतिरोध फिलहाल करीब 20 प्रतिशत लोगों में
रिकॉर्ड हुआ है, इसलिए अभी दुनिया हर्ड इम्यूनिटी के आसपास
भी नहीं पहुँची है।
स्पष्ट है कि हर्ड इम्यूनिटी की स्थिर स्थिति हासिल
होने के लिए ज़रूरी होगा कि वायरस के संक्रमण की वजह से बढ़िया सुरक्षात्मक
प्रतिक्रिया पैदा हो और यह प्रतिक्रिया (जैसे एंटीबॉडी) जल्दी खत्म नहीं होनी
चाहिए। SARS-CoV-2 के मामले में जहाँ पहली शर्त
तो काफी सारे संक्रमित लोगों में पूरी होती दिख रही है, लेकिन
इस बात को लेकर अनिश्चितता है कि ये एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहेंगी। तो हो सकता
है कि SARS-CoV-2 के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी थोड़ी अस्थिर-सी
होगी। इसे स्थिरता प्रदान करने के लिए हमें टीके की ज़रूरत होगी, जो शायद अगले साल तक ही सामने आएँगे। (स्रोत फीचर्स)
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