- अनघा जोगलेकर
'माँ, आज मुझे किसी भी हाल में प्ले स्टेशन चाहिए ही
चाहिए। मेरे सारे दोस्तों के पास तो पी एस 4 है। एक मैं ही हूँ जिसके पास...’ कहते हुए उसने विधिवत रोना शुरू कर दिया।
पलाश
था तो 10 साल का ही लेकिन उसमें अपने दोस्तों की बराबरी करने की आदत सी पड़ गयी
थी।
'ठीक है, तुम तैयार हो जाओ। मैं कार की चाभी लेकर आती
हूँ।’ मीनू ने
कहा, 'लेकिन
बेटा, मेरा एक
छोटा-सा काम है, पहले
वो पूरा कर लें फिर वहीं से हम मॉल चले जायेंगे।’
'ठीक है माँ।’ पलाश ने खुशी-खुशी माँ की बात मान ली।
मीनू
ने अपनी गाड़ी एक पुराने से मकान के सामने लाकर खड़ी कर दी। अंदर का दृश्य देख, पलाश ठगा-सा रह गया।
'इतने
सारे बच्चे? और
कैसे पुराने से कपड़े पहन रखे हैं इन सबने।’ वह कसैला सा मुँह बनाता हुआ बोला, ’...और वो बच्चा... उसके
तो नाक बह रही है। ये तुम मुझे कहाँ ले आई माँ?’
'बेटा, ये सारे बच्चे अनाथ हैं।‘
'अनाथ.....?’
'हाँ बेटा, न तो इनकी माँ है न पिताजी। न तो इनके पास
अच्छे कपड़े हैं न खिलौने। न टी. व्ही. है न कम्प्यूटर। यहाँ तो, ये ही एक दूसरे के
अभिभावक भी हैं, दोस्त
भी और खिलौने भी।’
'तो क्या वो...वो छोटी-सी बच्ची भी जिसके पाँव...?’
'हाँ बेटा।’ मीनू उसका हाथ अपने हाथ मे लेती हुई बोली, 'अच्छा सुन, मैं जल्दी से अपना काम
कर आऊँ फिर चलते हैं। तब तक मॉल भी खुल....’
'माँ....,’ अभी मीनू का वाक्य
पूरा भी न हुआ था और वो बीच में ही बोल पड़ा, '...मैं सोच रहा था कि क्यों न हम प्ले स्टेशन लेने
के बजाय, उन
पैसों से इन सबके लिए ढेर सारे पिज्जा, चॉकलेट और चिप्स खरीद लें और हाँ, अच्छे-अच्छे कपड़े भी।’ पलाश की आँखों पर चढ़ी
सुख-सुविधाओं की परत चटक चुकी थी मीनू
मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।
2. नवसृजन
'बेटा ज़रा यहाँ आ तो’, माँ ने आवाज़ लगाई तो
मीनू साधी-सी साड़ी में लिपटी, उनके पास आकर खड़ी हो गई।
'हमेशा
बन-ठन कर रहने वाली मेरी बच्ची, ऐसे सादे लिबास और बिना श्रृंगार के...’ उनका मन किया कि वे रो दें, 'मैंने कितनी कोशिश की
कि ये दूसरी शादी के लिए मान जाए लेकिन पलाश की यादें....,’ उन्होंने अपनी आँखों
में आई पानी की लकीर को आँखों में ही समेटते हुए कहा, 'बेटा, ज़रा ये गद्दियाँ
जुलाहे के पास देकर आने में मेरी मदद तो कर। देख तो, इनके अंदर रुई ने कैसे गाँठें बना दी हैं। जब
ये गद्दियाँ नई-नई आईं थीं तो कितनी नरम-सी थीं लेकिन वक्त के साथ ये कितनी कडी और
बेजान हो गईं हैं। जुलाहे के पास जाएगी तो वह इन्हें धुन कर, इनकी रुई में पड़ी
पुरानी गाँठे खोल देगा और इन्हें नए रूप में भी ढाल देगा। आखिर कब तक ये रुई यूँ
ही उलझी पड़ी रहेगी। भई इसे भी तो मुक्त होकर खुलने का अधिकार है न?’ माँ ने आंखों में
उम्मीद भर, मुस्कुराते
हुए कहा।
मीनू
बिना कुछ कहे गद्दियाँ उठाने लगी लेकिन माँ की बातों से उसके अंदर अब कहीं कुछ
बदलने लगा था।
E-mail- naghajoglekar@yahoo.co.in
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